कृष्ण : जीवन और चिंतन के बृहत्तम आयामों की अवतारणा

अजित कुमार राय

‘राम और कृष्ण भारतीय मानसिकता के ‘अक्षांश’ और ‘देशांतर’ हैं। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और श्रीकृष्ण सर्वमान्य लीलापुरुष। कृष्ण की कल्पना में चरित्र और ‘मिथक’ का योग है; यह संधि है ‘गोपाल’ (Gopal) और ‘पार्थ सारथी’ की। कृष्ण जातीय जीवन के महानतम मिथक हैं।

श्रीकृष्ण ( Shri Krishna) की चरित्र – खनिजता मानवीय उदात्तीकरण के लिए सहज सुलभ है। युद्ध के चटख लाल रंगों की धधकती पृष्ठभूमि में अनासक्त गीता-गायक का निर्वेद नीलवर्णी व्यक्तित्व जिस अप्रतिम रूप में उकेरा या चित्रित किया गया है, उसका समकक्ष स्वयं भारतीय पौराणिकता ( Indian mythology) में दूसरा नहीं है तब ग्रीक, यूनानी या चीनी पौराणिकता की तो बात ही क्या है।’ सांस्कृतिक परंपरा के प्रवक्ता एवं यशस्वी कवि नरेश मेहता का उपर्युक्त कथन अक्षरशः सत्य है। भाषिक भास्वरता एवं सांस्कृतिक सौष्ठव के अन्वेषी समर्थ शिल्पी को कृष्ण धर्म-चिंतन-वृत्त के प्रशस्त ‘व्यास’ के रूप में प्रतिभासित होते हैं। उनके ‘जीवन दर्शन’ की तात्त्विक व्याख्या यहाँ अभिप्रेत है। उल्लेखनीय है कि यहाँ तत्त्व-व्यंजना ही ग्रहण की जा सकती है, ‘तथ्योपलब्धि’ नहीं।

आज ‘उत्तर आधुनिकता ‘ (Postmodernism) के सवाल उठाए जाते हैं। भारतीय संस्कृति के संदर्भ में यदि इस शब्द की व्याख्या की जाए तो इसके सबसे बड़े आलंबन ठहरते हैं कृष्ण। नर के ‘नारायणत्व’ की संभावनाओं की खोज करनी हो तो इसके सबसे बड़े मिथक बनेंगे कृष्ण। और आत्मा के विस्तार, व्यक्तित्व की व्यापकता अथवा आत्मप्रसार की साधना करनी है तो मानवीय चरित्र की पूर्णता के सबसे ‘सिद्ध’ प्रतीक हैं कृष्ण।

वे मानवीय चेतना के शिखर पुरुष हैं और ‘गीता’ उस शिखर का आरोहण है। आत्मबोध के प्रतिफलन अथवा ‘प्रज्ञा पारमिता’ की उपलब्धि एवं आदर्श के उच्चतम प्रतिमानों की गवेषणा है-‘गीता’। गीता एक प्रज्ञापुरुष के ‘प्रभामंडल’ का साक्षात्कार एवं ‘विराटता बोध’ के अनुभव का आख्यान है। सहज जीवन-शैली एवं ‘समग्रता बोध’ से परिस्फूर्त मानवीय सत्य का अनंत अनुभव कोष है। कृष्ण केवल गीता के गायक ही नहीं, गीता के प्राप्य भी हैं। कृष्ण गीता की परिभाषा हैं और उनका जीवन

गीता दर्शन की प्रत्यक्षाभिव्यक्ति है। कृष्ण क्रांति-विधायक व्यक्तित्व एवं रूढ़िरहित जीवन-दृष्टि के कायल हैं; किंतु वे रूढ़ि विरोधी है ‘परंपरा विरोधी’ नहीं।

कृष्ण ‘निर्ग्रंथि भाव से जीवन को उसकी सहजता में जीने और गहराई के साथ जीवन-अर्थ को आत्मसात् करने का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। उनका प्रेमादर्श प्रेम को परिपूर्णता के साथ अकुंठ भाव से जीने का निर्देश करता है। कृष्ण स्वस्थ काम चेतना के विकास के आग्रही हैं। डॉ. शिव प्रसाद सिंह का मानना है कि ‘वे वस्तुतः निषेध के नहीं, अनुराग के देवता हैं।’ उन्होंने गीता में अपने धर्म को अविरोधी ‘काम शक्ति’ बताया

धर्माविरुद्ध कामोऽस्मि भरतर्षभ।

कृष्ण ‘ज्ञानयज्ञ’ के अनुष्ठान के महत् अध्वर्यु होने के साथ ही प्रणय तंत्र के निष्ठावान् साधक भी हैं। कृष्ण साधना में बहुत पहले से काम पूजा का समावेश दिखाई पड़ता है। ‘गोपाल पूर्वतापनीयोपनिषद्’ में जिस ‘गोपाल यंत्र’ का उल्लेख है, उसमें काम गायत्री और काम माला मंत्र ( spell) को बहुत ही महत्त्व दिया गया है। कृष्णोपासक कवि के लिए काम साधना में बाधक तत्त्व के रूप में नहीं, साधक शक्ति के रूप में मान्य था।

इन अर्थों में कृष्ण असीम हैं। वे किसी सिद्धांत की सीमाओं या प्रतिज्ञाओं में आबद्ध होनेवाले नहीं हैं। उन्हें किसी पूर्व निश्चित साँचे में नहीं ढाला जा सकता। वे जीवन पद्धति के सारे फॉर्मूले झटक देते हैं।

उन्हें मापने के लिए सारे स्केल छोटे पड़ जाते हैं। उनका प्रयोगधर्मी व्यक्तित्व अभिनव जीवन-शैली का आविष्कार करता है। उनके व्यक्तित्व में अंतर्विरोधों का अनुरोध दिखाई पड़ता है। उनके चरित्र में दो विपरीत ध्रुवों का स्पर्श दृष्टिगत होता है। भोग और योग, वासना और विज्ञान, संसार और परमार्थ का संश्लिष्ट समुच्चय तथा काम और राम के समानुपाती संबंध का घोषणा पत्र है उनका व्यक्तित्व। वासना को उपासना में बदलने का अमोघ रसायन उनके पास है। कबीर के ‘सुरति’ (सुतराम् रतिः) के ‘निरति’ (नितराम् रतिः) में पर्यवसान की कला का ‘बीज मंत्र’ कृष्णचरित्र ही है।

कर्मयोग को भावयोग और भावयोग (भक्ति) को ज्ञानयोग में परिणत करने की टेक्नीक निर्दिष्ट करने और सांख्यादि विभिन्न योगों की सम्यक् मीमांसा करनेवाले कृष्ण अद्भुत जीवन-शिल्पी हैं। वे सारस्वत चेतना और भागवत चेतना के ‘संगमन बिंदु’ हैं। बौद्धिकता ‘आधुनिकता बोध’ का विशिष्ट लक्षण है। इस बौद्धिकता का आध्यात्मिक संस्कार करके प्रशांत चेतस् की उपलब्धि एवं ‘विकल्पों’ को ‘संकल्प शक्ति’ में परिणत करने का कौशल कृष्ण के ही पास है।

आध्यात्मिक स्तर पर आत्मा को विश्वात्मा में विसर्जित करने का आदर्श कृष्ण ने अपने आचरण में प्रमाणित किया । बूँद समुद्र बन गई। जीवन के ‘अहम्’ ने विस्तीर्ण होकर निखिल ब्रह्मांड को आच्छादित कर लिया और ब्रह्म की संज्ञा से विभूषित हो गई। असल में ‘खुदी को मिटाकर खुदा हुआ जा सकता है’। कृष्ण ने संसार और संन्यास में सामंजस्य सूत्र की खोज की। जैसे जल में कमल रहता है वैसे ही संन्यासी को संसार में रहना चाहिए–’पद्मपत्रभिवाम्भसा’; कमल जल में रहते हुए भी उससे ऊपर उठा रहता है। वह इतना स्निग्ध है कि जल उसपर पड़े भी तो फिसल जाएगा। इसी स्निग्ध चित्तता की उपलब्धि संन्यासी की साधना का अभीष्ट प्रयोजन है। हम संसार में रहें, किंतु संसार हममें न रहे। कृष्ण की परिभाषा में संन्यास ‘वस्तु त्याग’ नहीं, ‘वृत्ति त्याग’ है।

कृष्ण पलायनवादी नहीं हैं। वे संसार को नहीं, उसकी ‘पकड़’ छोड़ने का आदेश देते हैं। वे ‘दुःखवादी’ जीवन-दर्शन के विरोधी हैं। इसीलिए कष्टसाध्य हठ यौगिक साधनाओं के स्थान पर सहज ‘राजयोग’ को प्रस्तावित करते हैं। ज्ञान और भक्ति का क्रियात्मक संमूर्त्तन उनका लक्ष्य है। वे बुद्ध की ‘मध्यमा प्रतिप्रदा’ के अत्यंत निकट हैं। इसलिए आसक्ति और विरक्ति के स्थान पर’ अनासक्ति’ का समर्थन करते हैं-न राग, न विराग, अपितु ‘वीतराग’ का वे मंत्र देते हैं।

भगवान् रजनीश ने ‘कृष्ण और हँसता हुआ धर्म में कहा है कि ‘सामान्य संसारी का चित्त ‘फोटोग्राफी प्लेट’ की भाँति होता है, जिसपर एक व्यक्ति का चित्र अंकित हो गया तो फिर दूसरा चित्र नहीं बन सकता; किंतु ज्ञानी का चित्त ‘दर्पण’ की भाँति होता है जिसके सामने जो भी आता है, उसे पूरा-पूरा झलका देता है और जब व्यक्ति चला जाता है तो उसे पूरा-पूरा विदा कर देता है।’ कृष्ण जब गोकुल छोड़कर मथुरा चले जाते हैं तो गोपियाँ तो उन्हें नहीं भूल पातीं, उनके चित्त-फलक या भाव-पट पर कृष्ण चित्रांकित हो गए हैं।

‘उर में माखनचोर गड़े।
अब कैसेहुँ नहिं निकसत ऊधौ, तिरछे है जु अड़े ॥’

उनकी त्रिभंगी मुद्रा उनके मानस में धँस गई है, किंतु कृष्ण मथुरा के होकर रह जाते हैं। जब गोकुल में थे तो गोकुल को पूरी प्रगाढ़ता के साथ जिया। अब मथुरा को अखंड मन से जी रहे हैं। वर्तमान की चुनावरहित अवधानता और ‘साक्षी’ भाव का प्रत्यक्षीकरण अन्यत्र दुर्लभ है।

यद्यपि यह कृष्ण की सीमा भी है। तर्कशास्त्र में ईश्वर की ‘सर्वकर्तृत्व क्षमता’ पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए पहला सवाल उठाया जाता है ‘क्या ईश्वर ऐसा पत्थर बना सकता है जिसे वह स्वयं न उठा सके ?’ कृष्ण ‘कालिय नाग’ का दमन तो करते हैं, किंतु जब विरहिणी राधा को काली रात नागिन बनकर इसती है तो उन्हें कृष्ण नहीं बचा पाते। सारी चेतना विषाक्त हो उठती है। सर्पिणी काटकर उलट जाती है और विरहिणी मर्मांतक पीड़ा झेलती है।

पिया बिनु नागिन कारी रात।
जौं कहुँ जामिनि उवति जुन्हैया, डसि ह्वै उलटी जाति ॥

घुप्प बादलों से सहसा चाँदनी का निकल आना सर्पिणी के काटकर उलट जाने के समान है। साँप का ऊपरी भाग ‘चितकाबर’ और निचला भाग सफेद होता है। काटकर उलट जाने की दशा में श्वेत भाग हो प्रत्यक्षीभूत होता है, जिसका साम्य चाँदनी की धवलता से है।

कृष्ण अत्यंत ‘प्रगतिशील’ चेतना के व्यक्ति हैं। प्रगतिशीलता के उस बिंदु तक अभी मानवीय सभ्यता को आना है। शत्रु को मारकर उसे आत्मपद प्रदान करना प्रतिक्रियाशून्य जीवन-दृष्टि का द्योतक है, जो प्रगतिशीलता का सर्वोच्च प्रमाण है।

बिना हिंसा वृत्ति के हत्या (वध) करना किसी सुपर मानव के ही वश की बात है। शकटासुर, वत्सासुर, पूतना, तृणावर्त, अघासुर, केशी, कंस, शिशुपाल आदि का वध करते हैं कृष्ण; किंतु इस अर्थ में बुद्ध कृष्ण से अधिक प्रगतिशील ठहरते हैं। वे दुष्ट का नहीं, ‘दुष्टता’ का वध करते हैं। वे अंगुलिमाल जैसे डाकू को संन्यासी बना देते हैं। कृष्ण अपने अवतीर्ण होने का कारण बताते हुए कहते हैं

‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

कृष्ण जानते हैं कि आत्मा का छेदन शस्त्रों द्वारा नहीं किया जा सकता। वह शरीर को पुराने वस्त्र की भाँति उतारकर नया शरीर ग्रहण कर लेगी। शिशुपाल फिर नए रूप में अवतरित होगा किसी चंगेज, किसी हिटलर के रूप में। फिर ‘दुष्टों के विनाश’ का क्या अर्थ ? ओशो ठीक कहते हैं कि ‘दुष्ट को मारने का एक ही उपाय है, उसे साधु बना दो ।

कृष्ण एक पूर्ण मिथक हैं। वे परम देवता हैं। वे लोकोत्तर लक्षणों से युक्त हैं । वे फूल से भी कोमल और वज्र से भी कठोर हैं । एक हाथ में वंशी धारण करते हैं तो दूसरे हाथ में चक्र | वे भक्त वत्सल और निर्हेतु की कृपा करनेवाले हैं। उनके दो रूप हैं ‘रस रूप’ और ‘ऐश्वर्य रूप’। रस रूप गोपाल के रूप में व्रज की वीथिकाओं में घूमता है तो ऐश्वर्य रूप मथुरा और द्वारिका के वैभव के बीच अभिव्यक्ति पाता है। वे एक ओर गोपी-वल्लभ हैं तो दूसरी ओर गहन तत्त्व चिंतक-मनीषी । भगवान् शिव से उनकी पर्याप्त समानता है। एक नटवर नागर है तो दूसरा ‘नटराज’। एक योगेश्वर है तो दूसरा योगिराज। दोनों कुशल नर्तक हैं । लगता है, योगी बनने के लिए नृत् कला में प्रवीण होना आवश्यक है। नर्तक होना प्रथम शर्त है योगी होने की। मन को नचाने के लिए पहले मन के अनुसार नाचना जरूरी है। काम है से मुक्त होने के लिए काम की समझ अपरिहार्य है। काम का निषेध नहीं, काम का जागरूक साक्षात्कार । काम के प्रति भोगवादी दृष्टि नहीं, प्रेम के प्रति पूजा का भाव । प्रेम परमात्मा की विभूति है। उसके रचनात्मक अर्थ के प्रति आस्थावान् होने की संकल्पना के

सदिच्छा वरेण्य है। कृष्ण के प्रणय व्यापारों अथवा ‘रासलीला’ जैसे जीवन-संदर्भों का ‘अलौकिकीकरण’ करके उसमें आध्यात्मिक अनुशासन का निर्देश कर दिया गया। उसकी सही व्याख्या नहीं की गई।

वस्तुत: अज्ञान बाँधता है, ज्ञान मुक्त करता है। परमात्मा के ज्ञान से वासना- मुक्ति नहीं होती, आत्मज्ञान से, वासना के बोध से वासना-मुक्ति संभव है। जागतिक सौंदर्य में भी उसीका आस्वाद निहित है। उसीकी शक्ति विभिन्न रूपों में अनुभूत होती है। सारे रूप उसी अरूप के हैं। सारे दृश्य के पीछे उसी अदृश्य का हाथ है। सारे आकार उसी निराकार की सूचना से भरे हैं। सृष्टि का प्रत्येक परमाणु परमात्मा की शक्ति से ही परिस्फूर्त है। सारे जागतिक उपकरणों पर उसीके हस्ताक्षर हैं। सृष्टि परमात्मा का सगुण और व्यक्त रूप है। कृष्ण ‘गीता’ में कहते हैं कि सब कुछ मैं ही हूँ-यज्ञ की क्रिया, हवन, होता, अग्नि, अध्वर्यु, मंत्र – सब मैं ही हूँ। अतः आवश्यकता है प्रेम के प्रति पुनीत दृष्टि की, यज्ञभाव की।

गोपियों का ‘चीर-हरण’ प्रसंग बड़ा अर्थवाही है। गोपियों के वस्त्र उनके संस्कारों के प्रतीक हैं, माया के आवरण के प्रतीक हैं। इस आवरण को उतारकर नग्न भाव से (निष् होकर) सर्वात्मना समर्पित होने पर ही प्रभु अंगीकार करता है।

कबीर कहते हैं-

घूँघट के पट खोल रे, तोकों पीव मिलेंगे

‘श्रीमद्भागवत’ के अनुसार, ‘वैधी भक्ति’ का पर्यवसान’ रागात्मिका भक्ति’ में है और रागात्मिका भक्ति पूर्ण प्रपत्ति (समर्पण) में परिणत हो जाती है। यही निरावरण मिलन की अर्थवत्ता है। भागवत के कृष्ण गोपियों को आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार भुने या उबाले हुए बीज फिर अंकुर के रूप में उगने योग्य नहीं रह जाते उसी प्रकार ईश्वरोन्मुख कामनाएँ सांसारिक भोगों की ओर ले जाने में समर्थ नहीं होतीं।

कृष्ण सौंदर्य के अद्वितीय प्रतिमान हैं। सौंदर्य वस्तुनिष्ठ भी है और व्यक्तिनिष्ठ भी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- ‘जिस प्रकार की रूपरेखा या वर्ण विन्यास के साथ चित्त की ‘तदाकार परिणति’ होती है, मन तद्रूप हो जाए, वही सौंदर्य का लक्षण है।’ कृष्ण की रूपराशि के उद्दाम आकर्षण एवं ऐंद्रजालिक सम्मोहन के कारण गोपियों का मन तद्रूप (कृष्णमय) हो जाता है।

वस्तुत: जिस किसी व्यक्तित्व के साक्षात्कार के समय चित्त की तदाकार परिणति हो जाय, वहीं ‘कृष्णत्व’ की अवतारणा हो जाती है। ‘गोचारण’ कृष्ण के नैसर्गिक जीवन-बोध को प्रकट करता है, लोक जीवन के प्रति गहरी प्रतिबद्धता को सूचित करता है।

‘गोवर्धन धारण’ उनके दायित्व बोध के वहन का प्रतीक है। ‘गोवर्धन पूजा’ देवत्व के सापेक्ष मनुष्य की गरिमा की गहरी स्वीकृति का बोधक है। उन्होंने मनुष्य को देवत्व की महिमा से मंडित किया या देवत्व को मानवीय धरातल पर उतारा। उनकी दिव्यता में मानवीय सुगंध छिपी है। दर्पण की भाँति अनासक्त दृष्टि-बोध के साथ ही कृष्ण परम मुक्ति के प्रतिनिधि प्रतीक भी हैं। वे सही अर्थों में स्वाधीन व स्वतंत्रचेता व्यक्ति हैं। वे इतने मुक्त हैं कि ‘जीत’ से भी बँधे नहीं हैं।

‘युद्ध में जीतेंगे ही’, ऐसा आग्रह भी उनके मन में नहीं है। वे हार भी जाते हैं, पराभव का आलिंगन भी कर लेते हैं। वे इतने कमजोर नहीं कि हार को न सह सकें। इसलिए वे जरासंध से हार जाते हैं। वास्तव में कृष्ण का चित्त संस्कारशून्य है, जिसमें कोई विचार या आग्रह रेखांकित नहीं है। कृष्ण प्रेम से भी बँधे नहीं हैं। उनका प्रेम बंधन नहीं, मुक्ति का द्वार है। उनका प्रेम संबंधगत’ नहीं, ‘स्वभावगत’ है। कृष्ण के भोग में छिपे योग को सूक्ष्मदर्शी दृष्टि ही लक्ष्य कर सकती है। देहासक्ति के अतिक्रमण या ‘विदेह’ होने की खरी कसौटी प्रस्तुत करते हुए गोरखनाथ कहते हैं।

नौ लख पातरि आगे नाचैं, पाछैं सहज अखाड़ा।
ऐसो मन लै जोगी नाचै, तब अंतरि बसै भंडारा॥

विषय के उपस्थित रहने पर भी मन में विक्षेप न हो, मन स्पंदित न हो – यह योगी होने का निकष है। शरीर के संपर्क में आने पर भी विषय मन का स्पर्श न कर सके, मन निर्विकार रहे। कृष्ण सोलह हजार एक सौ आठ गोपियों के साथ ‘रास’ रचाते हैं, परंतु उनका मन उसमें रस नहीं लेता। वे नाचते हैं, परंतु मन नहीं नाचता; मन स्थिर है। कृष्ण अंतर्दशा को अधिक महत्त्व देते हैं। शरीर का कोई मूल्य नहीं। वस्तुतः यदि हमारा मन पवित्र, शांत और समाहित है तो हम जो भी बोलेंगे, वह वेद होगा और यदि हम वासना में प्रतिष्ठित हैं तो वेद भी बोलेंगे, तब वह ‘कामसूत्र’ का आख्यान होगा।

भाव-जगत् में कृष्ण का प्राकट्य बड़ा ही अर्थपूर्ण और मांगलिक है। भाद्र मास की अष्टमी की मध्य रात्रि (निशीथ) में आनंदकंद भगवान् श्री कृष्णचंद्र (चंद्रवंशी) का प्राकट्य होता है। कालेश्वर के आगमन के समय काल ने बड़ा सौम्य रूप धारण कर लिया। समस्त ग्रह नक्षत्र अनुकूल और उदार हो गए।

संपूर्ण प्रकृति में रमणीयता छा गई। दिशाएँ प्रसन्न हो गईं। शीतल-मंद सुगंधित वायु बहने लगी । हीरे आदि की खानें मंगलमय हो गईं। धरती पर समृद्धि छा गई। भीतरी दरिद्रता नष्ट हो गई। अभाव का अभाव हो गया। नदियों ने सोचा, ‘निर्मल हृदय से ही भगवान् मिलते हैं। अतः नदियों का जल निर्मल हो गया। ‘कल-कल’ का आश्वासन ‘आज’ में बदल गया। रात्रि के समय भी सरोवरों में कमल खिल रहे थे। सज्जनों के सुमन (सुंदर मन फूल) खिल गए । वन में वृक्षों की पंक्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पों के गुच्छों से लद गई थीं। कहीं पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भ्रमर गुंजार कर रहे थे।

नद्यः प्रसन्नसलिला हृदा जलरुहश्रियः ।

द्वि जालिकुलसंनादस्तवका वनराजयः ॥

श्रीमद्भागवत

अशेष प्रकृति का शेषशायी के आविर्भाव के उपलक्ष्य में उत्सव मनाना वस्तुतः कृष्ण के ‘विश्वव्यापी प्रभाव’ का सूचक है। जब भी कोई विराट् बुद्ध चेतना अवतरित होती है तो धरती उल्लास से भर जाती है। जाग्रत चेतना के अवतरण के समय संपूर्ण प्रकृति जाग जाती है। रात्रि के घनघोर अँधेरे में कृष्ण का प्रकाशित होना मोहाच्छन्न आकाश में, अज्ञान के निविड़ांधकार में दिव्य ज्ञानोदय अथवा सत्य के आलोक के प्रस्फुटन का प्रतीक है

‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।’

गीता

कृष्ण का ‘दर्शन’ उनके जीवन व्यापारों पर पूर्णतः घटित या चरितार्थ होता है। इसीलिए उसे सही अर्थों में जीवन दर्शन की संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है। कृष्ण घोषणा करते हैं

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्

जो मुझे जिस भाव से भजते हैं, मैं उन्हें उसी भाव से भजता हूँ। विभिन्न भक्तों ने उन्हें अपने-अपने भाव के अनुरूष भजा। अपनी आकांक्षाओं के अनुसार कृष्ण की मूर्ति को गढ़ा या कृष्ण में अपनी भावनाओं को पढ़ा। विभिन्न शास्त्रों में विहित कृष्ण का रूप भी भिन्नभिन्न है । वस्तुतः कृष्ण एक मिथक हैं, जिनके ऐतिहासिक विकास की एक सुस्पष्ट श्रृंखला है। वे भारतीय वाङ्मय के प्रमुख उपजीव्य हैं। वे ऐतिहासिक व्यक्ति हों या न हों, आदर्श पुरुष अवश्य हैं। वे चिरंतन सांस्कृतिक चिंतन के अक्षय प्रेरणास्त्रोत हैं।

( प्रो. विद्यानिवास मिश्र ने इस आलेख को अपने साहित्यअमृत में प्रकाशित किया था )

Leave a Reply