लोकगीतों का उठाया लुत्फ

नयी दिल्ली। इंडिया हैबिटैट सेंटर में लोक गीतों का कार्यक्रम आयोजित किया गया। अमररस रिकॉर्ड्स और अमररस सोसाइटी आफ परफौरमिंग आर्टस द्वारा संचालित इस सम्मेलन में दर्शकों ने राजस्थान ( Rajasthan) एवं कुमाऊँ के लोकसंगीत का आनंद उठाया।

कार्यक्रम प्रारम्भ करते हुए आशुतोष ने अमररस रिकॉर्ड्स और अमररस सोसाइटी आफ परफौरमिंग आर्टस की इस अनूठी पहल का ज़िक्र किया जिस के अंतर्गत भारत (India) के विभिन्न प्रांतों के गीत संगीत को आम जनता तक पहुंचाया जा रहा है।

इस के बाद, अलवर के जुम्मे खान और उन के बैंड के गीत संगीत ने दर्शकों को मंत्र मुग्ध कर दिया। ये कह पाना तो मुश्किल होगा कि उन की आवाज़, संगीत और सादगी भरी बातों में से किस चीज़ की अधिक तारीफ हुई, पर यह तय है कि जब तक वो स्टेज पर थे तब तक हम सब मेवाड़ की माटी की सुगंध से सराबोर हो चुके थे। उन के अपने शब्दों में “मैं एक शिव भक्त और मुस्लिम योगी हूँ। मैं राजस्थान के उस ज़िले से हूँ जिस के नाम में मात्राओं की कोई ऊंचाई, निचाई नहीं है-उस के पहले अक्षर से पढ़ाई शुरू होती है (अ) और बाकी तीनों अक्षरों से अंग्रेजी भाषा का प्रेमी शब्द बन जाता है (लवर), यानि की अलवर।” उन के संगीत में हारमोनियम, चिमटा, डोलक और भपंग वाद्यों का इस्तेमाल इस तरह से किया गया कि पौराणिक और एतिहासिक कहानियाँ आज के संदर्भ में आसानी से जुड़ गईं।

इस के बाद कुमाऊँ के हिमालीमऊ बैंड के सदस्यों ने मंच पर अपना जादू बिखेर दिया। पहाड़ों की ताज़ा हवा जैसा संगीत जो उत्तराखंड के बाहर मुश्किल से सुना जाता है, झोरा, चाॅचरी, चपेली, न्योली और चैती शैलियों में प्रस्तुत किया गया। चाहें वो विरह की वेदना सहती कुमाऊँ की स्त्रियाँ हों या नेपाल से रोज़ी रोटी की तलाश में आये मज़दूर हों। या फिर झोलाघाट, पिथौरागढ़ में बिछड़े हुए दो प्रेमी हों, हिमालीमऊ बैंड की सारी रचनाएं इन सब कथाओं का सचित्र विवरण कर रहीं थीं।

सवृजीत, अनुभव, धीरज, चंद्रशेखर ने बांसुरी, ढोलक, डृम और तालियों की मदद से मानो उतरांचल को दिल्ली के इंडिया हैबिटैट सेंटर में उतार दिया।

कार्यक्रम की शुरुआत, नैनीताल के रहमत-ए-नुसरत group ने गुरु गोविन्द सिंह के लिखे एक शबद से की।

और फिर तो जैसे सुर गंगा बह निकली नुसरत फतह अली साहब की रचनाएँ “साँसों की माला पे सिमरू मैं पी का नाम” और “ये जो हलका हलका सुरूर है” फरीदुदीन इयाज़ साहब का कबीर का भजन “भला हुआ मोरी गगरी फूटी, मैं पनिया भरन से छूटी” और अंत में “दमादम मस्त कलंदर” सवृजीत और उन के साथियों अभिषेक, अनुभव, नीरज, दीपक और रवि ने इस दो दिवसीय सम्मेलन का बहुत खूबसूरती से समापन किया।

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