सुशील उपाध्याय
गद्दार, राष्ट्रविरोधी, देश का दुश्मन, दोगला, नापाक, हरामखोर, पाकपरस्त, नमकहराम, कमीना, दरिंदा…..। अगर आप ने बचपन में सुनी गालियों का पाठ याद नहीं रखा है तो एक मौका सामने है। एक से बढ़कर एक गालियां हमारे सामने आ रही हैं।
चीन और पाकिस्तान से तनातनी के बाद कोई समाचार चैनल खोलकर देख लीजिए, किसी भी प्रोग्राम को देख लीजिए, वहां कभी एंकर की ओर से तो भी पार्टी प्रवक्ताओं, नेताओं या तथाकथित विशेषज्ञों की ओर से अनथक गालियों की बौछार नजर आएगी।
ऐसा नहीं है कि ये गालियां केवल भारतीय चैनलों पर दिख रही हों, पाकिस्तानी चैनल इनसे दो हाथ आगे हैं। चैनलों पर भाषा को ऐसी आधिकारिकता के साथ इस्तेमाल किया जा रहा है कि यदि तयशुदा शब्दों की बजाय अन्य कोई शब्द सामने आ जाए तो एंकर, एक्सपर्ट और प्रवक्ता बुरी तरह टूट पड़ते हैं।
इन दिनों टीवी चैनलों की स्क्रिप्ट में बातचीत, शांति, मिलजुलकर रहना, समझौता, दरियादिली, उदारता, मेलजोल, भाईचारा, सहिष्णुता, मेलमिलाप, आपसी संवाद, वार्ता, दुतरफा-बातचीत जैसे शब्द घोर निंदनीय बन चुके हैं। (पंडित नेहरू और अटल बिहारी वाजपई की भाषा में ऐसे शब्दों कि भरमार दिखाई पड़ेगी, दोनों के भाषण उतुबे पर उपलब्ध हैं।) इस वक्त मीडिया, खासतौर से न्यूज़ चैनलों को कोई भी सकारात्मक शब्द नागरवार गुजर रहा है। कई चैनलों की भाषा ऐसी है कि इनके सामने अपराधियों या बुचर्स की भाषा भी पानी भरने लगेगी।
भाषाविज्ञान के लिहाज से देखें तो आपात स्थितियों में, खासतौर से युद्ध जैसे हालात में भाषा की कठोरता बढ़ जाती है, उसमें विशेषणों का प्रयोग अधिक होने लगता है। बदला लेने वाली शब्दावली की बहुलता हो जाती है। कुछ शब्दों को त्याज्य, अमान्य और निंदनीय घोषित कर दिया जाता है। जैसे इन दिनों सवाल उठाना, उत्तर की मांग करना या सेना के बारे में कोई टिप्पणी करना त्याज्य विषय हैं।
यदि, कोई ऐसे शब्दों का प्रयोग करेगा तो उसे दुश्मन का हिमायती घोषित करने का खतरा पैदा हो जाएगा। एक और बात ध्यान देने लायक है, वो ये कि चैनलों पर एंकरों, वक्ताओं, विशेषज्ञों और प्रवक्ताओं का स्वर दिन ब दिन ऊंचा हो रहा है। अपवाद छोड़ दें तो ज्यादातर चैनलों पर लगभग चीखने-चिल्लाने की स्थिति है। ऐसा नहीं है कि यह स्थिति केवल हिंदी चैनलों तक सीमित हो। अँग्रेजी के चैनल भी इस अभियान में शामिल हैं। रिपब्लिक टीवी इन सबमें बाजी मार रहा है। जी न्यूज, इंडिया टीवी, टाइम्स नाऊ, सबके सब भाषा को नए राष्ट्रवादी शिखर पर ले जाने को आतुर दिख रहे हैं।
वास्तव में, इन दिनों अखबारों और चैनलों की भाषा व्यापक तौर पर बदल गई है। शब्दों का चयन बेहद सनसनीखेज, उत्तेजना से पूर्ण और बदले की भावना से भरा हुआ है। उसी के अनुरूप वाक्य गुंथे हुए होते हैं। सामान्य पाठक और श्रोता भी इस बात को आसानी से महसूस कर सकता है कि इन दिनों मीडिया माध्यमों की भाषा न्यूनतम मर्यादा को ध्वस्त कर रही है। इसके पीछे एक खास तरह का मनोविज्ञान काम कर रहा है। इसे गालियों के मनोविज्ञान के साथ जोड़कर देख सकते हैं।
जिस व्यक्ति की भाषा जितनी कमजोर होगी, वह उतनी ही अधिक गालियों का प्रयोग करेगा, उसकी भाषा उतनी ही ज्यादा अमर्यादित होगी। इसकी वजह यह है कि गाली देने वाले को यह लगता है कि उसके पास गाली से अधिक समर्थ अभिव्यक्ति उपलब्ध नहीं है।
यदि, किसी के पास शब्दों और वाक्यों की व्यापक उपलब्धता होगी तो फिर गाली या अमानक भाषा के प्रयोग की स्थिति पैदा नहीं होगी। तब, संबंधित व्यक्ति व्यंजना और लक्षणा में अपनी बात कहने में समर्थ होगा।
चूंकि मीडिया माध्यमों के साथ उनके संचालकों के आर्थिक हित भी जु़ड़े हुए हैं इसलिए उनकी शब्दावली सत्ता की अपेक्षाओं और समकालीन बाजारी जरूरतों के अनुरूप ही है। किसी न किसी स्तर पर यह भी मान लिया गया है कि भाषा को जितना अधिक चीखने-चिल्लाने के स्तर पर ले जाया जाएगा, दर्शकों को उतना ही मजा आएगा (क्या वास्तव में ऐसा है ?) और संबंधित चैनलों की टीआरपी बढ़ेगी। यह बढ़ी हुई टीआरपी अंततः उनके आर्थिक लाभ को बढ़ाएगी।
भाषा विज्ञान के सिद्धातों को सामने रखकर देखें तो मीडिया माध्यमों की भाषा एक खास तरह के विरोधाभास को भी रेखांकित कर रही है। भाषाविज्ञान यह मानता है कि समाज के निचले तबके से संबंध रखने वाले और कम पढ़े-लिखे लोग अमानक और अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं। जबकि, चैनलों पर एंकर, वक्ता-प्रवक्ता और विशेषज्ञ के तौर पर जो लोग दिखाई देते हैं, उनमें से शायद ही कोई अनपढ़ या निचले तबके से कोई वास्ता रखता हो। चैनलों पर होने वाली बहसों और खबरों की भाषा को देखने के बाद भाषाविदों को मानक-अमानक भाषा के प्रयोगकर्ताओं के बारे में अपने सिद्धांत पर दोबारा गौर करना चाहिए।
अभी तक भाषा की प्रकृति को तटस्थ माना जाता रहा है, लेकिन अब लग रहा है कि वास्तव में कोई भाषा तटस्थ नहीं होती, बल्कि वह अपने प्रयोक्ताओं की प्रकृति के अनुरूप बदलती है।
इस वक्त राष्ट्रवादी भाषा पर जोर है। यानी जिस भाषा में न केवल वीर रस हो, बल्कि वह रौद्र तक जाता हो, वही भाषा मान्य है। अभी तक बस, इतनी ही राहत है कि न्यूज चैनलों और अखबारों को पौराणिक दौर की भाषा की गालियों के बारे में जानकारी नहीं है। वरना, वो दिन भी देखने को मिल सकता है जब महाभारत या रामचरित मानस में खलनायकों के मुंह से निकलने वाली भाषा ही, चैनलों पर आ विराजे। तब हमें अति दुष्ट, नराधम, खल खामी, दुरात्मा, पापात्मा, पातकी, महापातकी, व्यभिचारी, कुलकलंक, रक्तपिपासु, अधम, अवीर्य, हत्वीर्य, नरपशु, पापाचारी, कुलकलंक……जैसे शब्द सुनाई देंगे। (हालांकि, ओम राउत की ‘आदिपुरुष’ फिल्म के संवाद लेखक मनोज मुंतशिर शुक्ल द्वारा लिखे गए संवादों के बाद तो इस बात की संभावना बहुत कमजोर हो गई है कि पौराणिक पात्रों की भाषा का स्तर उच्च प्रकृति का होगा, अब तो वे भी सड़क छाप गालियों का प्रयोग करते दीखते हैं!) खैर, तब तक मीडिया माध्यमों की युद्ध-पिपासु शब्दावली को सुना जाए!