डाॅ. सुशील उपाध्याय
शहर में पाकिस्तानी मौजूद है। बात सुन कर ही सिहरन पैदा होती है। डर का अहसास होता है। कोई घुसपैठिया है! पहचान छिपाकर आया है, अकेला है या कई लोगों के साथ आया है ? कौन लेकर आया है, क्यों और किसने बुलाया है ? न जाने क्या होने वाला है! पत्रकार सक्रिय हैं। पुलिस को भी पता है।
दून लाइब्रेरी और रिसर्च सेंटर के बाहर बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं। इंतजार कर रहे हैं। इंतजार करने वालों में उत्तराखंड के पूर्व चीफ सेेक्रेटरी एन. रविशंकर, पूर्व एडिशनल चीफ सेक्रेटरी विभा पुरी दास और भारत की आईएएस एकेडमी के डायरेक्टर रहे डाॅ. संजीव चोपड़ा भी शामिल हैं। पूर्व कुलपति और दून लाइब्रेरी के पूर्व निदेशक प्रो. बीके जोशी, पर्यावरणविद रवि चोपड़ा जैसे लोग उनके स्वागत के लिए खड़े हुए हैं।
उत्तराखंड लोक सेवा आयोग के चेयरमैन रह चुके उत्तराखंड के एक अन्य पूर्व चीफ सेक्रेटरी एसके दास उन्हें लेने एयरपोर्ट गए हैं। मतलब, ये पाकिस्तानी कुछ खास है।
व्याख्यान कक्ष भर चुका है। अतिरिक्त कुर्सियां लगाने के बाद भी लोग खड़े हैं। बाहर की तरफ एनेक्सी में स्क्रीन लगाकर लोगों को एडजस्ट किया गया है। आखिरकार उस पाकिस्तानी की आमद हुई, जिसका इंतजार था। प्रो. इश्तियाक अहमद। जो जन्म से भारतीय थे क्योंकि उस पाकिस्तान नहीं बना था। वक्त ने उन्हें पाकिस्तानी बना दिया और फिर वे स्वीडन में बस गए।
इस वक्त स्टाॅकहोम में प्रोफेसर एमेरिटस हैं। पंजाब, पाकिस्तान और जिन्ना पर उनकी तीन किताबों (जिन्ना, पाकिस्तान द गैरीसन स्टेट, पंजाब: ब्लेडिड, पार्टिशन्ड एंड क्लीन्ज्ड) ने दक्षिण एशिया ही नहीं, उन्हें पूरी दुनिया में प्रतिष्ठा दिलाई है।
वे एयरपोर्ट से सीधे दून लाइब्रेरी के सभागार में पहुंचते हैं। तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत होता है। यूं तो उन्हें कई साल से यूट्यूब पर देखता, सुनता रहा हूं, लेकिन सीधे तौर पर मिलने और सुनने का मौका पहली बार मिला। एक दुबला-पतला व्यक्ति, लंबा कद, एक कंधा थोड़ा झुका हुआ, ढीला-सा कोट, पुराने फैशन के कपड़े, कुल मिलाकर वैसा ही जैसा कि किसी प्रोफेसर को होना चाहिए।
आगे की पंक्ति में बैठे बुजुर्ग सिख से मिलते ही पंजाबी में बात करते हैं। सिंह साहब जवाब देते हैं कि वो रावलपिंडी में पैदा हुए थे। सभागार में ऐसे कई बुजुर्ग मौजूद हैं जो उस भारत में पैदा हुए, जो अब पाकिस्तान कहलाता है। प्रोफेसर इश्तियाक अहमद अगली पंक्ति में मौजूद डाॅ. संजीव चोपड़ा की ओर मुखाबित होते हैं और इस बात के लिए माफी मांगते हैं कि वे दो साल पहले उनके बुलावे पर वैली ऑफ वर्ड्स के लिटरेचर फैस्टिवल में नहीं आ सके।
इस फेस्टिवल में उनकी किताब को नॉन-फिक्शन श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ किताब का सम्मान दिया गया था। वे अन्य कई लोगों को भी पहचान लेते हैं और किसी से उर्दू, किसी से पंजाबी, किसी से अंग्रेजी और किसी से हिंदी-हिंदुस्तानी में बात करते हैं। कुछ मिनटों में माहौल ऐसा बन गया कि जैसे हर कोई हर किसी को जानता है। न कोई बेगाना है, न कोई पराया और दुश्मन पाकिस्तानी तो कोई भी नहीं है।
प्रोफेसर इश्तियाक अहमद अपनी बात शुरू करते हैं, ‘‘उस वक्त जब वो पैदा होने वाली थे, बंटवारे का क़त्ल-ओ-गारत शुरू हो गया था। लाहौर में उनकी मां ने घर की खिड़की से एक सिख का कत्ल होते देखा था। ये सदमा ताउम्र उनकी मां के साथ रहा। जब थोड़े बड़े हुए तो मुहल्ले में रहने वाले लालदीन से साबका पड़ा, जो दिमागी संतुलन खोने की वजह से हर किसी को गालियां देते रहते थे।
वजह ये कि लालदीन के सामने ही उसके जवान बेटे को मार दिया गया था। उन्होंने अपनी किशोरावस्था और जवानी के दौर में पाकिस्तान में मार्शल लाॅ और भारत के साथ युद्ध देखे। समझ बढ़ी तो अपनी मिट्टी और जड़ों का कर्ज उतारने का ख्याल आया, वे पंजाबी कौम के दुखों का दस्तावेजीकरण करने निकल पड़े।’’ खास बात ये है कि प्रोफेसर इश्तियाक हिस्टोरियन नहीं हैं, वे पाॅलिटिकल सांइस के स्काॅलर हैं। शायद इसीलिए उन्होंने एक अलग निगाह के साथ इतिहास को देखा। दिल्ली, लाहौर, कराची से लेकर लंदन तक दस्तावेज खंगाले और दशकों लंबी रिचर्स के बाद वे जिन निष्कर्षाें पर पहुंचे, उन्हें पाकिस्तान से ज्यादा भारत और यूरोप में स्वीकार किया जा रहा है।
वे मुस्कुराते हुए कहते हैं कि भारत का वीजा मिलना आसान नहीं था इसलिए कई बार टूरिस्ट बनकर भी रिचर्स करनी पड़ी। (इस रिसर्च के लिए लोग किसी पाकिस्तानी को इंटरव्यू देने को तैयार नहीं थे, चाहे वो प्रोफेसर ही क्यों न हो!) लेकिन, प्रोफेसर इश्तियाक अब बेहद संतुष्ट हैं कि भारत ने उनके काम को सराहा, स्वीकार किया और इसी का परिणाम है कि वे स्टॉकहोम छोड़कर जून की तपती गरमी में भारत में जगह-जगह व्याख्यान दे रहे हैं। घंटा भर लंबे व्याख्यान के बाद जब प्रश्नों का दौर शुरू हुआ तो उनकी स्थापनाएं बंटवारे को लेकर भारत में होने वाली परंपरागत सोच से अलग थीं।
उन्होंने कहा, ‘‘भारत के विभाजन के पीछे धार्मिक वजहें थीं, लेकिन मिलिट्री से जुड़ी वजहें और ज्यादा बड़ी थीं। अंग्रेज सरकार को लगता था कि कांग्रेस के नेतृत्व वाला भारत समाजवादी देश बनेगा और इंग्लैंड के कहने पर नहीं चलेगा। जबकि जिन्ना ने पाकिस्तान के बनने से पहले ही कॉमनवेल्थ में शामिल होने की गारंटी दे दी थी।
अंग्रेजों को लगता था कि यदि सोवियत रूस को रोकना है तो ये काम पाकिस्तान बनाकर ही संभव है।’’ प्रोफेसर इश्तियाक तर्क देते हैं कि विभाजन का निर्णय अंग्रेज सरकार का था, जिन्ना ने केवल मौके का फायदा उठाया और उनके साथ जमींदार, मौलवी तबका और अंगेे्रेजों के पिछलग्गू लोग भी जुड़ गए। तब आम मुसलमान को हिंदुओं का गुलाम बनने का खतरा दिखाया गया। इन बातों में संदर्थ, तथ्य और परिस्थितियां इतनी स्पष्ट थीं कि संदेह का कोई प्रश्न पैदा ही नहीं हुआ। हत्याएं, लूटपाट और जोर-जबरदस्ती दोनों तरफ हुई। भारत से करीब 60 लाख लोग पश्चिमी पंजाब गए और वहां से करीब 54 लाख हिंदुओं, सिखों ने भारत का रुख किया। लेकिन, ऐसा नहीं था कि सब जगह एक जैसी ही हिंसा हो रही थी। सिंधी हिंदुओं को पंजाबी हिंदुओं-सिखों की तुलना में कम नुकसान हुआ।
सीमांत प्रांत में खान अब्दुल गफ्फार खां की पार्टी ने कत्लेआम नहीं होने दिया। सबसे ज्यादा पीड़ा पंजाब की धरती ने भोगी। सबसे ज्यादा लोग पंजाब में ही मारे गए।
व्याख्यान के बाद सवालों का सिलसिला शुरू हुआ तो पाकिस्तान के बारे में जानने की जिज्ञासाओं का अंबार लग गया-लोग कैसे हैं, भारत के बारे में क्या सोचते हैं, पाकिस्तान बार-बार लड़ाई क्यों छेड़ता है, वहां हिंदुओं पर इतने अत्याचार क्यों होते हैं, इतनी कट्टरता क्यों है, भारत-पाकिस्तान कभी एक हो पाएंगे, क्या पाकिस्तान कोई सबक सीखेगा, क्या दुश्मनी हमेशा रहेगी……और भी न जाने कितने सवाल। दो घंटे बाद भी बहुत कुछ ऐसा था जो अनुत्तरित और अनसुना रह गया।
औपचारिक व्याख्यान खत्म हुआ तो अनौपचारिक बातचीत शुरू हुई। वास्तव में एक ऐसा पाकिस्तानी ढूंढना आसान काम नहीं है जो कहता हो कि बंटवारे की बुनियाद ही गलत हैै। ये होना नहीं चाहिए था, लेकिन हो गया तो इसे स्वीकारना तो पड़ेगा ही। और संभव है कि कभी वो दिन भी आ जाए जब यूरोपीय यूनियन, अमेरिका-कनाड़ा या भारत-नेपाल की तरह ही सीमाएं खुल जाएं।
(और जिस दिन ऐसा होगा, शायद उस दिन ‘रामचंद पाकिस्तानी’ जैसी फिल्में बनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अचानक सीमा के इस पर आये छोटे बच्चे और उसके पिता की कहानी दर्द से भर देती है.)
बात-मुलाकात के इस सिलसिले में शुरू से आखिर तक ये ही लगा कि ये पाकिस्तानी तो हमारे जैसा ही है। कलकत्ता, मद्रास, बंबई, दिल्ली, जालंधर, अमृतसर, पटियाला, मेरठ, मलेर कोटला, आगरा, बेंगुलुरू, ये सारे नाम बार-बार उसके संदर्भों में उभर कर आते हैं। और ऐसा हो भी क्यों न हो, वतन से निकाले गए जिन लोगों ने अपने मां-बाप से अपनी धरती के बारे में सुना है, वे उसकी जी भर कर बातें करना चाहते हैं। उन्होंने 75 साल बाद भी सारे ब्यौरे संभालकर रखे हुए हैं। इस पाकिस्तानी ने लोगों को वैसा ही मौका दिया।
सुखद बात ये कि प्रोफेसर इश्तियाक की तुलना वैसे किसी व्यक्ति से नहीं हो सकती जो चाहे इस तरफ के अतिवाद का शिकार हो या उस तरफ की जिहाद की गिरफ्त में हो। उन्होंने एक खूबसूरत से वाक्य से अपनी बात खत्म की, ‘‘एक इंसान के तौर पर मैंने अपना फर्ज पूरा कर दिया। 76 साल का हो गया हूं, मेरे पास किसी से डरने की कोई वजह नहीं है। लोग मिलकर चलेंगे तो आने वाला वक्त आज की तुलना में कहीं बेहतर होगा।’’