घुसपैठ पर यह कैसी रीति-नीति?

मणिपुर सख्त तो मिजोरम नर्म

एक्सक्लूसिव स्टोरी
  • मिजोरम सरकार 60 हजार विदेशी शरणार्थियों को परिवार मान कर पाल रही
  • ‘कुकीलैंड’ की परिकल्पना कहीं ‘ग्रेटर मिजोरम’ की ओर न शिफ्ट हो जाए !

ममता सिंह, पूर्वोत्तर मामलों की जानकार। 

देश-दुनिया की नजरें अशांत मणिपुर में शांति के इंतजार में हैं लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद सशस्त्र संगठन और दोनों ओर के उपद्रवी लगातार हमले कर यह जता रहे हैं कि उनका एजेंडा अभी पूरा नहीं हुआ है। दूसरी ओर, हिंसा के बीच से बचकर निकले राज्य के करीब 45 हजार विस्थापितों ने आसपास के जिन पड़ोसी राज्यों खासकर असम, मिजोरम और नागालैंड में शरण ले रखी है, वहां की सरकारों की लाख कोशिशों के बाद भी उनके सामने भविष्य को लेकर दिक्कतें तो हैं हीं। इस बीच मणिपुर के करीब 12 हजार कुकी और नगा समुदाय के लोगों को पनाह दे रहे मिजोरम राज्य की महज एक-डेढ़ माह में ही हालत खस्ता होने लगी है। सरकार ने यह चिंता जताई है कि यदि अति शीघ्र केंद्रीय मदद न मिली तो राज्य सरकार को संकट का सामना करना पड़ सकता है।
मई के अंतिम सप्ताह में ही मुख्यमंत्री जोरमथांगा दिल्ली दरबार में जाकर मणिपुर से आए आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों के लिए फौरी राहत के तौर पर 10 करोड़ रुपए के राहत पैकेज की मांग भी कर चुके हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर क्या वजहें रहीं कि यह राज्य अपने ही पड़ोसी राज्य के महज कुछ हजार निवासियों को बेहतर सुविधाएं उपलब्ध नहीं करा पा रहा, तो उसके एक बड़ा कारण यह है कि जहां पूरे देश में घुसपैठ को रोकने के लिए सख्ती है, वहीं यह राज्य दशकों से म्यांमार और बांग्लादेश से आए जनजातियों लोगों को खुलेआम शरण देता आ रहा है।
मिजोरम म्यांमार के साथ 510 किलोमीटर लंबी सीमा और बांग्लादेश के साथ 318 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करता है। और मिजोरम की मिजो, म्यांमार की चिन और बांग्लादेश के चटगांव की पहाड़ियों में रहने वाली कुकी चिन जनजातियां मणिपुर के कुकी के सजातीय हैं और इन्हें संयुक्त रूप से जोमी कहा जाता है। इन जनजातियों में एक बात खास है कि इनमें जबरदस्त एकता देखी जाती है और जरूरत पड़ने पर ये सभी सीमाओं को पार करके एक-दूसरे की मदद करते हैं।

मालूम हो कि भारत और म्यांमार के बीच एक फ्री मूवमेंट रिजीम मौजूद है, जिसके तहत पहाड़ी जनजातियों का प्रत्येक सदस्य, जो या तो भारत का नागरिक है या म्यांमार का है भारत के दोनों ओर 16 किमी के भीतर तक जाने और 14 दिनों तक रहने की अनुमति मिली हुई है। इस वजह से दोनों तरफ के लोग कामकाज, व्यापार और रिश्तेदारों से मिलने के लिए सीमा पार आवाजाही करते रहते हैं। सीमा के आर-पार शादियां भी होती हैं। यही वो दूसरी वजह रही कि मणिपुर में कड़ी सख्ती के बावजूद किसी न किसी रास्ते इनकी घुसपैठ बढ़ी और मिजोरम में तो खुलेआम सरकार ने मानवता की दुहाई देते हुए इन्हें अपने यहां करीब 170 से अधिक शिविरों में बसा दिया। इनकी आधिकारिक संख्या 50 हजार से ज्यादा बताई जा रही है लेकिन खुफिया सूत्रों की मानें तो यह संख्या इससे कहीं ज्यादा है। केवल, इतना ही नहीं, इनके बच्चों की पढ़ाई बाधित न हो, इसके भी इंतजाम किए गए हैं।
सत्तारूढ़ मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) के राज्यसभा सदस्य के. वनलालवेना ने सितम्बर 2022 में मीडिया को बताया था कि फरवरी 2021 में पड़ोसी देश म्यांमार में हुए सैन्य तख्तापलट के बाद से 40,000 से अधिक शरणार्थियों ने मिजोरम में शरण ली है। उन्होंने कहा कि शरणार्थियों को किसी भी तरह का काम या रोजगार करने की मनाही है, हालांकि राज्य सरकार उन्हें शिविरों में बुनियादी सुविधाएं मुहैया करा रही है। इसके अलावा बांग्लादेश से भी प्रताड़ित कुकी चिन और कुछ अन्य जनजातियों के करीब 10 हजार शरणार्थी उनके राज्य में हैं। कुछ समय पहले ही राज्य के विधान सभा में इस बात की जानकारी भी साझा की गई कि म्यांमार के शरणार्थियों के लिए करीब 4 करोड़ और बांग्लादेश के शरणार्थियों के लिए सरकार करीब 35 लाख रुपए खर्च कर चुकी है। वैसे मिजोरम सरकार की उक्त गतिविधियों से केंद्र उससे पहले ही नाराज है। उपर से साल के अंत तक यहां विधानसभा चुनाव भी होने हैं लेकिन सरकार और अन्य ताकतवर संगठनों का पूरा फोकस अपने विदेशी भाई-बहनों पर हैं। परंतु, वे मणिपुर से आए विस्थापितों को बिना केंद्रीय मदद को रखने के मूड में नहीं हैं, यह बात समझ से परे है।
यह बात भी चौंकाने वाली है कि गृह मंत्रालय लगातार नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश सरकार को स्पष्ट चेतावनी देती रही है कि म्यांमार से भारत में घुसपैठ को रोकने के लिए कानून के अनुसार उचित कार्रवाई की जाए। उसी का नतीजा है कि मणिपुर, नागालैंड, अरूणाचल सरकारों ने कड़े अभियान चलाए लेकिन मिजोरम सरकार इतने गंभीर मसले में भी मानवीय नजरिया अपनाती रही। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि अक्टूबर 1997 में मिजोरम के शक्तिशाली संगठनों और वहां की सरकार ने मिलकर राज्य के ही मूल निवासी ब्रू -रियांग जनजातीय लोगों को राज्य से बाहर खदेड़ दिया था। उनकी गलती केवल यह रही कि उन्होंने अपने लिए संविधान की छठी अनुसूची के तहत अन्य जनजातीय लोगों की ही तरह स्वायत्तशासी जिला परिषद की मांग कर दी। नतीजा यह हुआ कि करीब 50 हजार की आबादी को असम, बांग्लादेश और त्रिपुरा की तरफ पलायन करना पड़ा। भारत के नागरिक होकर भी त्रिपुरा के सात शिविरों में करीब 40 हजार ब्रू -रियांग समुदाय ने करीब 22 साल विस्थापन की पीड़ा झेली और कई समझौतों के बाद भी मिजोरम सरकार का दिल उनके लिए नहीं पसीजा। और इस जटिल हो चुकी समस्या का समाधान 16 जनवरी 2020 में हुआ। आज उस घटना के करीब 26 साल बाद उन्हें अपनी पहचान मिल पाई और भारत सरकार ने उन्हें त्रिपुरा राज्य का निवासी मान लिया है। यानी मिजोरम के अतीत के उक्त अमानवीय निर्णय के बाद अब अपने सजातीय विदेशी भाई-बहनों को अपने क्षेत्र में पूर्ण संरक्षण देना और मणिपुर के मामले में भी अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष बयान बताते हैं कि आने वाले समय में ‘कुकीलैंड’ की परिकल्पना कहीं ‘ग्रेटर मिजोरम’ की ओर न शिफ्ट हो जाए, क्योंकि भाजपा के 5-6 विधायक भी लगातार वहीं बैठकें कर बयान जारी कर रहे हैं।
बहरहाल, मिजोरम के मुख्यमंत्री की केंद्र से मुआवजे की मांग से साफ है कि पहले ही बिना केंद्रीय मंजूरी या मदद के अपने सजातीय विदेशी भाई-बहनों को शरण देने की वजह से राज्य की अर्थव्यवस्था बदतर हो चुकी है। हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक इस पूरे घटनाक्रम को मिजोरम की केंद्र पर दबाव की रणनीति के तहत देख रहे हैं। अब केंद्र कहां तक मिजोरम सरकार की मांग पर गौर करेगा, यह तो समय ही बताएगा। क्योंकि अन्य राज्य जहां विस्थापितों ने शरण ले ली रखी है उन्होंने ऐसी किसी फौरी मदद की मांग केंद्र से नहीं की है। मिजोरम की इस मांग से कई सवाल भी खड़े हो रहे हैं कि क्या वाकई मिजोरम विस्थापितों की मदद करना चाहता है या मिजोरम सरकार को और कोई गेम प्लान है।

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