ड्रग्स का ”गेट वे” बना मणिपुर

एक्सक्लूसिव स्टोरी

  • राज्य की साढ़े 28 लाख की आबादी में डेढ़ लाख युवा नशे की गिरफ्त में
  • जातीय हिंसा को भड़काने में ड्रग्स के खिलाफ सरकारी मुहिम भी एक वजह!

ममता सिंह, नार्थ ईस्ट एक्सपर्ट।
नई दिल्ली/इंफाल।

‘मेरा राज्य जल रहा है!’ बॉक्सर मैरी कॉम की इस पोस्ट के बाद देश का ध्यान मणिपुर की हिंसा की तरफ गया। सच, भारत में वर्ष 1949 में शामिल हुए मणिपुर की दास्तां भी शुरू से ही अजीबोगरीब रही है।

इस राज्य में विद्रोही संगठनों का आतंक किस कदर गंभीर है इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पूर्वोत्तर के इस राज्य से 42 साल बाद भी केंद्र सरकार सेना को स्पेशल पावर देने वाला कानून सशस्त्र बल ( विशेष शक्ति ) अधिनियम यानी अफस्पा हटाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई है। पुराने जख्म अभी भरे ही नहीं थे कि यहां मैतई और कुकी समुदाय के बीच हिंसक टकरावों ने यहां का सामाजिक ताना-बाना ही बिगाड़ कर रख दिया है।

इससे दोनों पक्षों का भरोसा टूटा है । शायद उन जख्मों को भरने में सालों-साल लग जाएं। यह बात भी सर्वविदित है कि जब भी हिंसा सांप्रदायिक रूप ले लेती है तो उसको हवा देने के लिए कई आंतरिक और बाह्य कारक भी दोनों ओर से शामिल हो जाते हैं। जानकारों की मानें तो मणिपुर में भी कुछ ऐसा ही हुआ है। यहां जातीय हिंसा को भड़काने में ड्रग्स के खिलाफ सरकारी मुहिम को भी एक बड़ी वजह माना जा रहा है। सरकार ने खुद इस बात को स्वीकार किया है कि मणिपुर ड्रग्स का गेटवे बनता जा रहा है और यहां की साढ़े 28 लाख की आबादी में डेढ़ लाख से ज्यादा युवा नशे की गिरफ्त में हैं और इसे यदि अभी न रोका गया तो यह भविष्य में हमारे देश के लिए घातक हो जाएगा !
दोनों ओर से जब स्थानीय भूमिगत और सशस्त्र विद्रोही संगठन एकजुट हो जाएं तो फिर उसमें से किसी एक को दोषी या निर्दोष कैसे माना जाए! हां, शासन-प्रशासन की कोशिश होनी चाहिए कि सांप्रदायिक ताकतों के मंसूबों को कैसे पूरा होने से रोकें और अंदरूनी शांति-व्यवस्था पहले की भांति हो जाए। क्योंकि दशकों से यहां की जाति और जनजातीय समाज में कई ऐसे पेचीदा मसले रहे हैं जिसका सीधा साधा कोई समाधान किसी के पास फिलहाल तो नहीं है। जैसे बहुसंख्यक आबादी वाला सुशिक्षित और सांस्कृतिक रूप से संपन्न मैतई समाज जो राज्य का नागरिक होने के बावजूद महज 10 फीसद भूखंड जो घाटी क्षेत्र में पड़ता है, में ही जमीन खरीद-फरोख्त कर सकता है। यानी 16 में से केवल पांच जिलों में ही ये सिमटे हुए हैं। जबकि 11 जिले जो पहाड़ी क्षेत्र हैं वहां कुकी, नागा समेत कुल 34 जनजातियां अपने असीमित अधिकारों के साथ निवास करती हैं। हालांकि, वहां भी मैतेई लोग रहते हैं लेकिन अपने सीमित अधिकारों के साथ। इन्हें ही हालिया हिंसा में निशाना बनाया गया। हालांकि, सेना ने इन्हें रेस्क्यू कर शिविरों तक पहुंचाया है और कुछ लोगों ने आसपास के राज्यों में शरण ले रखा है। यानी सरकार के सामने अब शीघ्र इनके पुनर्वास की भी जिम्मेदारी है। हालांकि, सांप्रदायिक तनाव को कम करने के लिए मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार के प्रयासों पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए। कारण चाहे जो रहे हों लेकिन हिंसा तो हुई ही है। दोनों ही हमारे देश के नागरिक हैं इसलिए एक सर्वसम्मत समाधान तो निकाला ही जाना चाहिए, ताकि फिर से अमन-चैन कायम हो सके।

अब मणिपुर के उन पहलुओं पर भी गौर करने की जरूरत है जो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और नशे के बढ़ते कारोबार से जुड़े हैं। यानी आज की समस्या भले ही मणिपुर राज्य तक ही सीमित हो लेकिन यदि अन्य उभरते मसलों के बारे में अभी न सोचा गया तो कल हम सब के सामने मुश्किलें खड़ी होने वाली हैं।

सीएम के कुछ बयानों से भड़के कुकी!

बीते 3 मई को भड़की हिंसा से एक दिन पहले ही मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह का एक बयान काफी सुर्खियों में रहा। उन्होंने कहा था कि मणिपुर म्यांमार से बड़े पैमाने पर अवैध अप्रवासन ( घुसपैठ ) के खतरे का सामना कर रहा है। उन्होंने यह भी स्वीकारा कि अवैध अप्रवासियों की जांच के लिए गठित समिति ने दो हजार से अधिक म्यांमार के लोगों की पहचान की है, जो अपने देश में संघर्ष के कारण मणिपुर में शरण लिए हुए हैं। उन्होंने बिना उचित दस्तावेजों के राज्य में रह रहे कथित म्यांमार के 410 लोगों को हिरासत में लेने की बात भी कही थी। मुख्यमंत्री की ओर से खुलकर कही गई उक्त बातें कुकी समुदाय के कुछ लोगों को नागवार गुजरी।

समुदाय के कुछ संगठनों ने मांग शुरू कर दी है कि कुकी विद्रोहियों के साथ साल 2008 से जारी शांति समझौते यानी सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन ( एसओएस ) को तत्काल प्रभाव से निलंबित किया जाए क्योंकि हालिया हिंसा में उक्त विद्रोही संगठनों के लोगों की भी संलिप्तता रही है। उनका आरोप है कि कुकी संगठनों ने अपने क्षेत्रों में बंकर भी बनाने शुरू कर दिए हैं। इसलिए समझौते को तत्काल सस्पेंड किया जाना चाहिए।

आइए अब विस्तार से जानते हैं कि आखिर क्या वजहें हैं जिसकी वजह से म्यांमार से पलायन जारी है

विद्रोहियों को खदेड़ रही म्यांमार की सेना

तख्तापलट के बाद म्यांमार में सिविल वार यानी गृहयुद्ध जारी है। इसी क्रम में वहां के जुंटा सेना के एक धड़े ने सत्ता विरोधी विद्रोहियों के खिलाफ ‘ एक्ट्स आफ टेरर ’ अभियान छेड़ रखा है। इसी क्रम में बीते 12 अप्रैल को उत्तर-पश्चिमी सागैंग क्षेत्र के कुकी बहुल गांव ‘ पा जी गी ’ गांव में एयर स्ट्राइक की घटना को देखा जा सकता है जिसमें स्थानीय ग्रामीण समेत 100 से अधिक लोग मारे गए। इतना ही नहीं, घटना के बाद जुंटा सेना के प्रवक्ता जनरल जॉ मिन तुन ने सरकारी टेलीविजन से बयान जारी कर हमले की जिम्मेदारी ली थी। क्योंकि वह क्षेत्र पीपुल्स डिफेंस फोर्सेज या पीडीएफएस का है, जो म्यांमार के विभिन्न हिस्सों में सेना के खिलाफ एक सशस्त्र अभियान चला रहा है। बताया जाता है कि उक्त संगठन वहां बसे कुकी समुदाय से जुड़ा है। जिसका संबंध बांग्लादेश और मणिपुर-मिजोरम में बसे कुकी समुदाय से भी है!

म्यांमार से कुकी कनेक्शन

म्यांमार का सशस्त्र विद्रोही संगठन पीपुल्स डिफेंस फोर्सेज यानी पीडीएफएस को मणिपुर के विद्रोही कुकी रिवोल्यूशनरी आर्मी (केएनए) और ज़ोमी रिवोल्यूशनरी आर्मी (जेडआरए) का लीडर माना जाता है। हालांकि, ये संगठन साल 2008 से ही शांति समझौते के तहत जुड़े हुए हैं। इनके अपने राजनीतिक संगठन कुकी नेशनल ऑर्गेनाइजेशन (केएनओ) और ज़ोमी रिवोल्यूशनरी आर्गेनाइजेशन (जेडआरओ) हैं। मौजूदा समय में मणिपुर में कुकी और ज़ोमी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले करीब 30 उग्रवादी समूह हैं। खुफिया सूचनाओं पर गौर करें तो केएनओ और जेडआरओ संगठन फ्रंट लाइन में हैं। और लगातार अपने संगठन को मजबूत कर भविष्य में कुकीलैंड के मिशन पर काम कर रहे हैं।

मिजो-कुकी भाई-भाई

कुकी एक बहु-जनजातीय समूह है। म्यांमार की चिन और मिजोरम की मिजो और ज़ो यानी ज़ोमी जनजातियों को इनका सजातीय माना जाता है। जो मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर, असम, त्रिपुरा, पश्चिमी म्यांमार, दक्षिण-पूर्व बांग्लादेश में चटगांव पहाड़ी इलाकों में बिखरे हुए हैं। यही वजह है कि मणिपुर की हालिया घटना पर मिजोरम के शक्तिशाली संगठन मिजो जिरलोई पाॅल यानी एमजेडपी ने भी कड़ी निंदा की है।

कुकियों की जनसंख्या में 10 हजार फीसद तक का उछाल!

द एशियाटिक सोसाइटी ऑफ इंडिया के मुताबिक, वर्ष 1881 में कुकियों की कुल जनसंख्या 8000 हजार थी। जो वर्तमान में करीब 8.5 लाख तक पहुंच गई है। वहीं, वर्ष 1881 में 1.20 लाख मैतई थे जो वर्तमान में करीब 15 लाख हैं। जहां तक सवाल नागा जनजाति का है। वर्ष 1881 में 77000 थे जो वर्तमान में 6.8 लाख है। कुल मिलाकर सरकारी आंकड़ों पर गौर किया जाए तो स्थिति यह है कि मैतई और नागा की जनसंख्या में 1000 फीसद तक की वृद्धि हुई है। वहीं, कुकी जनजाति में 10 हजार फीसद तक की वृद्धि देखी जा रही है। यानी जनसंख्या में एकाएक 10 हजार फीसद तक का उछाल कोई सामान्य बात तो हो ही नहीं सकती। ऐसे में एकाएक कुकी जनजाति की जनसंख्या में एकाएक उछाल देख कर शासन-प्रशासन की नींद उड़ना लाजिमी है।

वहीं,मैतेई समुदाय से जुड़े संगठनों नेइसके अलावा सीमापार से हो रही घुसपैठ रोकने के लिए असम की तर्ज पर नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी एनआरसी की मांग भी शुरू कर दी है।

वन क्षेत्र में घनी बसावट के कुछ सेटेलाइट चित्र

 

 

यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि म्यांमार में सिविल वार के बाद जुंटा सेना ने वहां के सीमावर्ती क्षेत्रां से विद्रोहियों को खदेड़ने के लिए अभियान चला रही है। जिससे वहां रह रहे कुकी जनजातीय लोगों में भी दहशत है। इसलिए वे मेघालय, मिजोरम, बांग्लादेश की तरफ शरण ले रहे हैं। अंदेशा यह जताया जा रहा है कि हो न हो इसी क्रम में वे मणिपुर में भी अपने नाते-रिश्तेदारों के शरण ले रहे हों। फिर सेटेलाइट चित्र भी कुछ ऐसी ही कहानी बयां कर रहे हैं जिसकी खुफिया जानकारी सरकार के पास होगी। तभी वो सार्वजनिक तौर पर घुसपैठ पर चिंता जता रहे हैं।
क्योंकि सवाल तो जायज है कि आखिर कुछ ही सालों में वन क्षेत्र कैसे साफ हो गए? और वहां घनी आबादी किस तरह से बस गई है? यदि इस बात को सही माना जाए तो यह देश की सुरक्षा में सेंध से जुड़ा अत्यंत संवेदनशील मामला है। दूसरी ओर, सरकार और मैतेई समुदाय से जुड़े संगठनों का कहना है कि म्यांमार से विपरीत परिस्थितियों में भागकर आए लोग भले ही कुकी जनजाति के रिश्तेदार हो सकते हैं, लेकिन उन्हें राज्य में बसने नहीं दिया जा सकता।
वहीं, मिजोरम के संगठन एमजेडपी कह रही है कि मणिपुर सरकार हमारे भाइयों और बहनों, जो पूर्वोत्तर के लोग हैं, को उनके ही गांवों से निकालने का प्रयास कर रही है और हम इसे स्वीकार नहीं करेंगे।

Leave a Reply