डा सुशील उपाध्याय
इस सवालनुमा शीर्षक का जवाब ये है कि मैं हरि जायसवाल को नहीं जानता। न जानने की वजह भी है क्योंकि आज से पहले उनसे कभी मुलाकात ही नहीं हुई। एक दोस्त से मिलने के लिए लोक निर्माण विभाग गया हुआ था। देहरादून में लोक निर्माण विभाग के पास ही जिला कचहरी है। मुलाकात के बाद बाहर आया तो गेट पर ही एक सज्जन खड़े थे। करीब छह फीट लंबे, लेकिन कमर झुकी हुई और वाॅकर को थामकर खड़े हुए। कमजोर और बीमार लग रहे थे। उम्र करीब 75-80 के बीच होगी, मूंछें लगभग जनरल मानेक शाॅ जैसी। गोरा रंग, लंबी नाक और चेहरे की उभरी हड्डियां उनके बारे में काफी कुछ बता रही थीं। पुरानी जैकेट में लिपटे उस आदमी ने अपने वाॅकर के साथ ही कागजों भरा एक बैग भी थामा हुआ था। उन्होंने बेहद लाचारी के भाव में मुझे रोका और अंग्रेजी में पूछा कि क्या मैं उन्हें ऐसी जगह तक ड्राॅप कर सकता हूं, जहां से कोई ऑटो मिल सके। इस जगह काफी देर से कोई ऑटो नहीं मिल पा रहा है।
आवाज रौबदार थी, थोड़ी घिसी हुई, लेकिन अतीत के अच्छे दिनों का साफ संकेत थी। मैं रुक तो गया, लेकिन समझ नहीं आया कि वे इस स्थिति में एक्टिवा पर कैसे बैठ सकेंगे! मेरे रुकने पर उन्होंने वाॅकर को समेटना शुरू किया और बराबर में खड़े एक दूसरे वाहन का सहारा लेकर बैठने की कोशिश की, शायद पैरों और कमर में तकलीफ के कारण वे बैठने में सफल नहीं हो पा रहे थे। पास से गुजर रहे एक भले वकील ने उन्हें बैठाने में मदद की। जैसे-तैसे वे बैठ गए और मैं उन्हें मेन रोड तक छोड़ने के लिए चल पड़ा। हालांकि संतुलन बनाना काफी मुश्किल साबित हो रहा था। आगे-पीछे लगातार बज रहे हॉर्न उन्हें परेशान कर रहे थे। उनकी प्रतिक्रिया बड़बड़ाने के रूप में सामने आ रही थी।
उनकी स्थिति वाले आदमी को किसी क्लीनिक या अस्पताल के बाहर तो देखा जा सकता है, लेकिन उनका कचहरी में होना और ऐसी स्थिति में अकेला होना, कई सवालों को न्यौता देता है। मैंने सहज तौर पर पूछा, सर कोई खास वजह कि आपको इस हालत में कचहरी आना पड़ा है। उन्होंने अंग्रेजी में ही जवाब दिया, जिसका सार ये है कि वे कुछ महीने पहले घर में गिर गए थे। कई हड्डियां टूट गई थी, अब हड्डियां तो जुड़ गईं, लेकिन दर्द और कमजोरी बहुत ज्यादा है। वाॅकर के साथ चल पाना भी मुश्किल होता है। अकेले रहते हैं इसलिए कोई मदद करने के लिए साथ नहीं हैं। पत्नी की मौत हो चुकी है। वे बताते गए और मैं सुनता गया। उन्होंने करीब 26 साल रोडेशिया (जिम्बाबवे) में काम किया। इससे पहले ओएनजीसी में इंजीनियर थे। एक बेटा आस्ट्रेलिया में और दूसरा अमेरिका में अपने परिवार के साथ रहता है। बेटी भी इन्फोसिस में बड़े पद पर है और बेंगलुरू में काम करती है। जीवन में उपलब्धियां ही उपलब्धियां हैं। (या कहिए कि उपलब्धियां थी) लेकिन, बढ़ती उम्र उन्हें घर वापस लौट आने को प्रेरित कर रही थी।
फिर मामला ये हुआ कि उन्होंने कुछ साल पहले देहरादून में एक जगह खरीदी थी। वे रजिस्ट्री कराकर निश्चिंत थे, लेकिन पीछे एक दलाल ने उनकी जमीन किसी ओर को बेच डाली। कुल मिलाकर बात ये कि अब उनकी जमीन का मालिक कोई और है और वे कागजों का पुलिंदा थामे कचहरी के चक्कर लगा रहे हैं ताकि खुद को असली मालिक साबित कर सकें। उनके विवरण में बेबसी, बेचैनी और सिस्टम के सामने सुनिश्चित हार की पीड़ा साफ झलक रही थी। वे उस घड़ी पर भी नाखुश थे, जब उन्होंने वतन लौट आने का निर्णय लिया था। लेकिन, उनकी इस नाखुशी से बीते दिनों के किसी खास पल को बदल पाना संभव नहीं है।
मेन रोड पर आने के बाद उन्हें एक्टिवा से सकुशल उतारना आसान नहीं लग रहा था। उन्होंने सुझाव दिया कि जहां पुलिस वाले चेकिंग के लिए खड़े हों, वहां छोड़ दें। प्रिंस चौक के थोड़ा पास पुलिस की टीम वाहनों की चेकिंग कर रही। वहां पास में उन्हें उतारने की कोशिश की तो एक सब इंस्पेक्टर और दो सिपाही मदद को आगे आ गए। उन्हें सुरक्षित घर पहुंचाने की मंशा से सब इंस्पेक्टर ने ऑटो रुकवाया, उन्हें बैठवाया और फिर उनसे एक ऐसा सवाल पूछा, जिसकी मुझे दूर तक कोई उम्मीद नहीं थी, ‘‘बच्चे विदेश में रहते हैं क्या अंकल! खैर, इस सवाल का उत्तर मुझे पहले से ही पता था। उनके जाने के बाद मैंने उत्सुकतावश सब इंस्पेक्टर से पूछा कि आपने कैसे अनुमान लगाया कि इनके बच्चे विदेश में रहते होंगे। उन्होंने जवाब दिया कि हर दिन चौराहों पर इस तरह के दसियों संभ्रांत बुजुर्ग मिलते हैं। अतीत में बड़े पदों पर रहे, बच्चों को विदेश में पढ़ाया, बड़ी कंपनियों में नौकरी दिलवाई और फिर खुद के बुढ़ापे के लिए अपने शहर लौटकर घर या जमीन खरीदी। और आखिर में बुढ़ापे में उस जगह आ गए, जहां विदेश में बसे बच्चों की अपनी दुनिया है और पीछे मां-बाप या तो गुमनामी की जिंदगी काट रहे हैं या करोड़ों की संपत्ति के चौकीदार बनकर रह गए हैं। इक्का-दुक्का इनके जैसे भी हैं, जिनकी जमीन किसी गिरोह ने हड़प ली है। अब पुलिस को ही ख्याल रखना पड़ता है कि इनके जीने, मरने की खबर मिलती रहे।
सब इंस्पेक्टर ने जो कुछ बताया, यकीनन वो सच्चाई तो है, लेकिन असली उत्तर नहीं है। हरि जायसवाल अपने घर को रवाना हो गए और सब इंस्पैक्टर ट्रैफिक को व्यवस्थित करने में जुट गए, लेकिन मैं बहुत देर तक उनके बारे में सोचता रहा, उत्तर के बारे में सोचता रहा। उनकी डिग्रियों, उनके बड़े पद, रूतबे, विदेश में बसे बच्चे, सोशल स्टेटस! वे सब सच था, और वर्तमान का सच ये है कि अतीत का कोई तमगा उनके आज के सच को किसी राहत में परिवर्तित नहीं करता। चीजों का सरलीकरण करना चाहें तो कह सकते हैं कि हरि जायसवाल के फैसले सही नहीं थे, लेकिन बदलता दौर, उससे उपजे सामाजिक-आर्थिक दबाव, बुढ़ाती पीढ़ी के एकाकी होने का दंश, ये सब कुछ इतना जटिल है कि कोई नहीं बता सकता, अगले 20-25 साल में कितने हरि जायसवाल किसी कचहरी के गेट पर या किसी चौराहे पर अनजान लोगों की मदद से घर पहुंचने की जद्दोजहद कर रहे होंगे।
(नोट: हरि जायसवाल वास्तविक नाम नहीं है। नाम परिवर्तित किया है।)