मसूरी कब आएगा!

सुशील उपाध्याय।
कह पाना मुश्किल है कि हम अपने परिवेश और आसपास को देखना बंद कर देते हैं या वो दिखना बंद हो जाता है। वो सब भी नजर नहीं आता जो दूसरों की निगाह में बहुत खास और अनूठा है। फिर, अचानक कोई पुतलियों पर जमा गर्द को पौंछ देता है और आंखें फैलकर बड़ी हो जाती हैं। सब कुछ इतने पास और इतना साफ नजर आने लगता है, जैसा पहले कभी देखा ही नहीं था। वो सब दिख जाता है जो केवल बाहर ही नहीं, भीतर भी मौजूद था। बस, गर्द हटने की इंतजार कर रहा था। दिखने लायक चीजों, परिस्थितियों और वस्तुओं की सूची अचानक ही बहुत दीर्घ हो जाती है। जैसे, पहाड़, नदी, कोई विशाल प्रतिमा या फिर जंगली जानवरों से सावधान रहने का कोई बोर्ड!
हरिद्वार से देहरादून जा रही बस में राजस्थान के जोधपुर से आई सवारियां बैठी हुई हैं। ज्यादातर बड़ी उम्र की महिलाएं हैं। उनके साथ कुछ बच्चे हैं जो सीटों पर बैठने की बजाए उन पर खड़े होकर आसपास उचक-उचक कर देख रहे हैं। हर पल उल्लासपूर्ण है। उनके लिए हर चीज नई है। बच्चे एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं कि किसने सबसे पहले पहाड़ देखा और किसने सबसे पहले गंगा देखी। वे एक दूसरे का नाम लेकर ध्यान खींच रहे हैं, वो देखो कितना बड़ा पहाड़ है! वो देखो कितना सारा पानी! वो देखो इस तरफ भी गंगा है, उस तरफ भी गंगा है! हर तरफ पेड़ ही पेड़ हैं। सारे बच्चे पहाड़ और पानी को देखकर बेहद खुश हैं। केवल बच्चे ही नहीं, उनके साथ मौजूद औरतें भी सामने दिख रहे पहाड़ों की ऊंचाई का अनुमान लगा रही है।
बस में बैठकर देखने पर ज्यादातर पहाड़ ऊपर की तरफ से गोल दिखाई दे रहे हैं। महिलाएं इन्हें गोल ही मानकर बात कर रही हैं। दूर पहाड़ पर एक छोटा-सा घर दिखाई देता है। फिर उनकी बातों के केंद्र में वह घर और उस घर तक पहुंचने का रास्ता आ जाता है। वे उस कठिन रास्ते और फिर वहां तक जाने में लगने वाली मेहनत के बारे में बात करने लगती हैं। उनकी बातों में मरूभूमि की जिंदगी स्वतः ही शामिल हो जाती है। देखो, यहां कितनी हरियाली है! गाय-भैंस तो खूब चैन से रहती होंगी, हमारे यहां के पशुओं को तो उनकी सारी जिंदगी में इतना पानी कभी नसीब नहीं होगा। उनकी बातचीत में यह पता लगाना मुश्किल है कि वे खुद से बातें कर रही हैं या साथ बैठी हुई अपनी साथी महिला से। बातचीत में लोक भाषा का पुट है इसलिए कुछ हिस्से मुझे भी समझ नहीं आते, लेकिन भाव का अनुमान सहज रूप से हो पा रहा है।
मैं, साक्षी भाव से उनकी बातें सुन रहा हूं और एक अजीब से द्वंद्व का शिकार हो गया हूं। हरिद्वार से देहरादून आते-जाते हुए रोज इन पहाड़ों को देखता हूं। पर, सच ये है कि कभी इन पहाड़ों को देखा ही नहीं, कभी निगाह ही नहीं पड़ी। बरसों बीत गए, कभी नजर ही नहीं आए। हर की पौड़ी के सामने से गुजरते हुए कभी एहसास ही नहीं हुआ कि सड़क के दोनों तरफ गंगा में इतना सारा पानी बह रहा है। इन दिनों साफ और लगभग गहरे नीले रंग का पानी। कहीं स्थिर, कहीं सलिल और कहीं भंवर में फंसकर गोल-गोल घूमता हुआ गंगा का पानी। एक तट से दूसरे तट तक फैला हुआ। जहां तक निगाह डालो, गंगा ही मौजूद है। गंगा का ये पानी बहुत सारे लोगों को एक अलग तरह की खुशी और गहरी अनुभूति दे रहा है।
कुछ देर के लिए मुझे अपने ऊपर अफसोस हुआ। मैं क्यों नहीं देख पाया! फिर महसूस हुआ कि मेरे जैसे हजारों-लाखों लोग अपने आसपास से बेखबर, मशीन की तरह अपने काम में लगे रहते हैं। वक्त के साथ आंखें देखना बंद कर देती हैं, कान सुनते नहीं और महसूस करने की क्षमता कुंद हो जाती है। बस, हम होते हैं, जबकि कहीं होते ही नहीं हैं। इन लोगों की बातों से जैसे मेरी चेतना को धक्का लगा। (हालांकि, चेतना थी ही नहीं, होती तो सब कुछ देख और महसूस कर रहा होता।) हरिद्वार पार करने के बाद मैंने बहुत वर्षों बाद राजाजी नेशनल पार्क के घने जंगल को इतनी गौर से देखा। केवल देखा ही नहीं, बल्कि शहर की सीमा खत्म होने पर हवा के भीतर मौजूद हल्की ठंडक को भी महसूस किया। इस एहसास के पीछे भी बस में सवार मेरे राजस्थानी सहयात्री ही मूल कारण थे क्योंकि उनमें से एक महिला अपनी सीट के बराबर का शीशा बंद करने को तैयार नहीं थी। उसे हवा की ठंडक भा रही थी। वैसे, अप्रैल के आखिरी दिनों में हवा इतनी ठंडी नहीं होती, लेकिन जोधपुर की तुलना में तो ठंडी ही रही होगी।
मैं उन लोगों में से एक हूं जो अक्सर बस में बैठते ही सो जाते हैं और अपने गंतव्य पर पहुंचने से कुछ मिनट पहले ही जगते हैं। लंबे समय बाद पूरे रास्ते जगा रहा। जगने की इस प्रक्रिया में रास्ते के दोनों तरफ मौजूद हरियाली, जगह-जगह से गंगा में आकर मिलने वाली छोटी नदियां, राजमार्ग के दोनों तरफ वन्य पशुओं के बारे में सूचना देने वाले बोर्ड पहली बार इतने ध्यान से देखे। जंगल के एक हिस्से को दूसरे को जोड़ने वाला एलीफेंट कोरीडोर शायद पहली बार खूबसूरत लगा। हालांकि यात्रा सीजन के कारण वाहनों की संख्या इतनी ज्यादा है कि फोरलेन राजमार्ग भी छोटा साबित हो रहा है। खूबसूरत दृश्यावलियों के बीच में चैं-चिल्लपों चुभने लगती है।
ये यात्री देहरादून में टपकेश्वर महादेव मंदिर, सहस्रधारा और तिब्बती बौद्ध मंदिर जाएंगे। इसके बाद इनका मसूरी जाने का कार्यक्रम है। बच्चों की उत्सुकता इतनी ज्यादा है कि वे बार-बार मसूरी का जिक्र करते हैं और उनके साथ मौजूद महिलाएं उन्हें वहां की ठंड के बारे में लगातार ताकीद कर रही हैं। बच्चों ने शायद कई महीने पहले ठंड देखी होगी। वे अपने घरों में गर्मी छोड़कर आए हैं इसलिए ठंड के बारे में भी उनकी उत्कंठा अपने चरम पर है।
मैं अपने भीतर पैदा हुए उस सवाल से दो-चार हूं कि हम अपने परिवेश और वहां मौजूद चीजों के बारे में इतने बेखबर क्यों हो जाते हैं! हवा, हरियाली, खूबसूरती, पानी, नदी सब कुछ दिखाई देना बंद क्यों हो जाता है! बीते बरसों में लगातार देहरादून-हरिद्वार के बीच यात्रा करते रहने, कभी हरिद्वार और कभी देहरादून में रहने का ठिकाना बनाने या बदलते रहने के बीच बहुत कुछ ऐसा रहा जो आंखों ने देखा तो है लेकिन भीतर कभी महसूस नहीं हुआ। आज अचानक ही पुराने कनखल में वे सारी धर्मशालाएं, आश्रम और मंदिर याद आ गए जिनके नामपट्ट किसी एक या दो भाषा में नहीं, बल्कि आधा दर्जन भाषाओं में लिखे हैं। जब शंकराचार्य चैक हरिद्वार की तरफ से कनखल में घुसते हैं तो अचानक ही किसी मंदिर-आश्रम के बाहर संस्कृत, हिंदी, उर्दू, पंजाबी, बांग्ला और गुजराती जैसी कई भाषाओं में सूचनाएं लिखी मिलेंगी।
सोचिए, इन सूचनापटों को तैयार करवाने, लिखवाने वाले लोग वास्तव में कितने समावेशी और सुलझे हुए होंगे। उन्हें आश्रम, मंदिर या धर्मशाला पर स्थान और भगवान का नाम उर्दू में लिखे जाने पर भी कभी कोई दिक्कत नहीं रही होगी। हां, यह बात जरूर है कि जिनके यहां जिस इलाके के लोग ज्यादा आते रहे होंगे, वे उसी भाषा में लिखवाने को प्राथमिकता देते थे। जैसे कई जगह गुजराती में नाम लिखे दिखाई देंगे और कई इलाकों में बांग्ला और पंजाबी में नाम लिखे मिल जाएंगे। शहर का यह चरित्र इतना सामान्य लगने लगता है कि कभी इसकी तरफ ध्यान ही नहीं जाता। बीते दिन दशक में शहर कितना कुछ बदल गया, कभी नोटिस ही नहीं किया।
अचानक सोचता हूं कि मेरी और बस के कंडक्टर की स्थिति में कुछ खास अंतर नहीं है। वो भी उतना ही बेध्यान है, जितना कि मैं या मैं भी उतना ही बेध्यान हूं जितना की कंडक्टर। वो हर रोज कई बार इस रास्ते से गुजरता है, लेकिन इन पहाड़ों, हरे भरे रास्तों, आसमान छूती शिव की प्रतिमा और गंगा को शायद ही कभी देख पाता होगा। वो बस में इन सवारियों और बच्चों की अतिरिक्त सक्रियता से कुछ खिन्न है। उन्हें बार-बार बैठने को कहता है। बस का ड्राइवर ब्रह्मकुमारीज संस्था का भक्त लग रहा है। उसने ॐ शांति लिखी टोपी पहनी हुई है। बस में शीशे के ऊपर भी ॐ शांति का प्रतीक चिह्न लगा हुआ है। वो कुछ गुनगुनाता हुआ बस चला रहा है। बीच में कंडक्टर को टोकता है कि बच्चों को गंगा और पहाड़ देखने दो। बाल जिज्ञासा अपने चरम पर है। वे हर चीज को संजोने और आत्मसात करने को आतुर हैं। वे बार बार पूछ रहे हैं, देहरादून कितनी देर में पहुंचेंगे, मसूरी कब आएगा! उन्हें एक ही जवाब मिलता है-जल्दी पहुंचने वाले हैं।

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