गुब्बारा के जरिये कई देशों की जासूसी कर रहा चीन

चीन के जासूसी गुब्बारा को लेकर बड़ा खुलासा हुआ है। चीन के हैनान प्रांत में स्पाई बैलून के जरिये जासूसी का प्रयास चल रहा है और पिछले कई वर्षों से कई देशों में सैन्य संपत्तियों की जानकारी एकत्र कर रहा है। अमेरिका की उप सचिव वेंडी शर्मन ने भारत समेत दुनिया के 40 सहयोगी देशों के दूतावासों को इस मामले से जुड़ी जानकारी दी है।

अमेरिकी अधिकारियों का दावा है कि चीन ने केवल अमेरिका और भारत ही नहीं बल्कि कई अन्य देशों में भी अपने जासूसी गुब्बारे छोड़े थे। गौरतलब है कि शनिवार चार फरवरी को ही एक संदिग्ध जासूसी गुब्बारे को अमेरिका ने मार गिराया था। अमेरिका ने इसके लिए फाइटर जेट एफ-22 की मदद ली थी। चीन पिछले कई साल से गुब्बारे के जरिए जासूसी कर रहा है।

रक्षा और खुफिया अधिकारियों के हवाले से कहा गया है कि चीन गुब्बारे के जरिए कई साल से जापान, भारत, वियतनाम, ताइवान, फिलीपींस सहित उन तमाम देशों की जासूसी कर रहा है, जो तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और जिनका चीन से विवाद है। इसके जरिए चीन इन देशों की सैन्य संपत्ति की जानकारी जुटा रहा था।

रक्षा और खुफिया अधिकारियों का हवाला दिया गया है। एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) और एयरफोर्स इन जासूसी गुब्बारों का संचालन कर रही है। इन गुब्बारों को पांच महाद्वीपों में देखा गया है।

एक वरिष्ठ रक्षा अधिकारी के हवाले से कहा गया है,‘‘ये गुब्बारे पीआरसी के गुब्बारों के बेड़े का हिस्सा हैं, जिन्हें निगरानी अभियान चलाने के लिए विकसित किया गया है, जिसने अन्य देशों की संप्रभुता का भी उल्लंघन किया है।

पिछले कुछ वर्षों में हवाई, फ्लोरिडा, टेक्सास और गुआम में कम से कम चार गुब्बारे देखे गए हैं। इसके अलावा पिछले हफ्ते भी एक गुब्बारे को ट्रैक किया गया था। पिछले ट्रंप प्रशासन के दौरान चार में से तीन घटनाएं हुईं, लेकिन हाल ही में चीनी निगरानी एयरशिप के रूप में पहचान की गई थी। पेंटागन ने मंगलवार को उच्च ऊंचाई वाले निगरानी गुब्बारे की तस्वीरों की एक श्रृंखला जारी की।

अमेरिका के डिफेंस एक्सपर्ट एचआई सटन के हवाले से कई मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया है कि दिसंबर-2021 से जनवरी 2022 के बीच चीन के जासूसी गुब्बारे ने भारत के सैन्य बेस की जासूसी की थी। इस दौरान चीन के जासूसी गुब्बारे ने अंडमान निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्ट ब्लेयर के ऊपर से उड़ान भरी थी। उस दौरान सोशल मीडिया पर इसकी तस्वीर भी वायरल हुई थी।

चिंता की बात ये है कि दिसंबर 2021 के अंतिम हफ्ते में ही भारतीय सेना की तीनों विंग के जवान अंडमान निकोबार में एक साथ ड्रिल करने के लिए जुटे थे। ट्राई सर्विस कमांड के दौरान ही चीन के इस जासूसी गुब्बारे को अंडमान निकोबार में देखा गया था। हालांकि, उस वक्त भारत सरकार की तरफ से इस पर कोई आधिकारिक बयान नहीं आया था।

उस दौरान कुछ स्थानीय वेबसाइट्स में इसको लेकर खबर भी चलाई गई थी। जो तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हुईं थीं, वो काफी हद तक अमेरिका में मिले चीन के जासूसी गुब्बारे की तरह थे। भारत और अमेरिका में जिस जासूसी गुब्बारे के होने का दावा किया जा रहा है, उसका इतिहास दूसरे विश्व युद्ध से जुड़ा है। दरअसल, कैप्सूल के आकार के यह बैलून कई वर्ग फीट बड़े होते हैं।

यह आमतौर पर जमीन से काफी ऊंचाई पर उड़ने की क्षमता रखते हैं, जिसकी वजह से ज्यादातर इनका इस्तेमाल मौसम से जुड़ी जानकारी जुटाने के लिए किया जाता रहा है। खासकर किसी एक तय क्षेत्र के मौसम को जानने के लिए। आसमान में हालांकि, जबरदस्त ऊंचाई पर उड़ने की अपनी इन्हीं क्षमताओं की वजह से इनका इस्तेमाल जासूसी के लिए भी किया जाने लगा।

यह गुब्बारे जमीन से 24 हजार से 37 हजार फीट की ऊंचाई पर आसानी से उड़ सकते हैं, जबकि चीन का यह गुब्बारा अमेरिका के ऊपर 60 हजार फीट की ऊंचाई पर उड़ रहा था। इसके चलते जमीन से इनकी निगरानी कर पाना काफी मुश्किल है। इनके उड़ने की यह रेंज कमर्शियल विमानों से काफी ज्यादा है। अधिकतर वाणिज्यिक एयरक्राफ्ट्स 40 हजार फीट की ऊंचाई तक नहीं जाते।

इतनी रेंज पर उड़ान भरने की क्षमता फाइटर जेट्स की ही होती है, जो कि 65 हजार फीट तक जा सकते हैं। हालांकि, यू-2 जैसे कुछ और जासूसी विमान 80 हजार फीट की ऊंचाई तक उड़ान भर सकते हैं। अमेरिकी वायुसेना के एयर कमांड और स्टाफ कॉलेज की एक रिपोर्ट के मुताबिक, यह जासूसी गुब्बारे कई बार सैटेलाइट्स से भी ज्यादा बेहतर खुफिया यंत्र साबित होते हैं।

दरअसल, यह सैटेलाइट के मुकाबले ज्यादा आसानी से और समय लेकर किसी क्षेत्र को स्कैन कर सकते हैं। इनके जरिए इन्हें भेजने वाले देश दुश्मन के खिलाफ ऐसी संवेदनशील खुफिया जानकारी जुटा सकते हैं, जो कि सैटेलाइट्स की दूरी की वजह से स्कैन करना मुश्किल है। इतना ही नहीं सैटेलाइट्स के जरिए किसी एक क्षेत्र पर नजर रखना काफी महंगा भी साबित हो सकता है, क्योंकि इसके लिए काफी कीमत वाले स्पेस लॉन्चर्स की जरूरत होती है।

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