वादों की रेवड़ियों के बीच जनता के सवाल नदारत

शाहिद नकवी

आजादी के सात दशकों में चाहे कितने बदलाव हो गये हों,सोशल मीडिया का बड़ा वैचारिक, प्रचारक और तेज़ सूचना प्रसारित करने वाला मंच भी उपलब्ध हो गया।दौड़ती भागती ज़िन्दगी रोज़ बदल रही है। लेकिन कुछ बदला नही तो वह राजनीति का मैदान है। साल दर साल सरकारें दोहराने वाले राजनीतिक भी विकास के मुद्दों या अपने कार्यों को लेकर जनता के बीच नहीं जाते हैं।हर चुनाव में यही सवाल खड़ा होता है कि आखिर कब विकास मुद्दा बनेगा या चुनावी नारे के रूप में उछलेगा।लोकतंत्र, राजशाही में तब बदलता है जब लोग सरकारों से सवाल पूछना बंद कर देते हैं।इसी के बाद सरकार जनता के मुद्दों पर बात नहीं करती।लगता है कि जनता रूपी मतदाताओं ने भी कभी इस बारे में नही सोचा।इसी लिए शलभ श्रीराम सिंह की ये कविता आज भी प्रसांगिक लगती है,तसल्लियों के इतने साल बाद अपने हाल पर निगाह डाल,सोच और सोच कर सवाल कर किधर गये वो वायदे? सुखों के ख्वाब क्या हुए? तुझे था जिनका इंतजार वो जवाब क्या हुए? तू झूठी बात पर न और एतबार कर कि तुझको सांस-सांस का सही हिसाब चाहिए घिरें हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए।लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों से पांच साल का लेखा जोखा लिया जाना चाहिए।उन वादों के बारे मे सवाल पूछा जाना चाहिए,जो नेता या राजनीतिक दल चुनाव के समय करते हैं।आज कल तो देश में चुनावी वादों की बाढ़ सी आ गई है।पहले अब पुल,सड़क, स्कूल नहीं फ्री वाईफाई, तेज़ इंटरनेट और आदमकद कटआउट्स लगाने जैसे वादे होते हैं। जनता सवाल नहीं करती,इस लिए हर जीत के बाद नेता और राजनीतिक दल चुनाव में नये वादे गढ़ कर नये कलेवर में मंचों पर पेश हो जाते हैं। जबकि हालात ये हैं कि जनता के पास आज भी केवल सवाल ही हैं,जिनका जवाब वह पांच साल तलाशती रहती है।ऐसा नहीं है कि राजनीतिक दलों में जनता के सवालों को लेकर चुनावों में बेचैनी नहीं रहती है।चूंकि जनता खुद से सवाल नहीं करती और न अपने मतों के जरिए जनप्रतिनिधियों के कामकाज पर प्रश्न चिन्ह लगाती है,सो नेता को क्या पड़ी है कि वह जनहित के मुद्दों को लेकर चुनावों में ताल ठोंकेगें। मतदाता सबसे पहले अपना हित जाति -ब्रादरी में तलाशता है।फिर धर्म में वह गोता लगाना चाहता है।राज्य और देश उसके एजेंडा में कभी रहते ही नहीं। बेतहाशा बढ़ती मंहगाई, उच्च शिक्षा की बेकाबू फीस,इतनी बेकाबू की आम आदमी की पहुंच से बाहर है।सरकारी चिकित्सा व्यवस्था की बदहाली के बीच प्राइवेट अस्पतालों की मनमानी, हालात ऐसे भी बनते हैं कि इलाज के अभाव में ज़िंदगी दम तोड़ देती है,कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनती है।कुछ साल पहले पेट्रोल और रसोई गैस सिलेंडर में मामूली बढ़ोतरी पर भी जनांदोलन खड़ा हो जाता था।आज पेट भरने के लिए जरूरी गेंहू के आटे की कीमत दस रुपए किलो तक बढ़ जाती है तो भी सामान्य बात लगती है।विपक्षी दल भी जनता के रुख के अनुरूप ही जाति -ब्रादरी और धर्म के हिसाब से अपनी फील्डिंग सजाते हैं।आटा जैसी जरूरी वस्तु के दाम भी व्यापारी हर सप्ताह बढ़ाते हैं, लेकिन उनसे इसकी वजह को लेकर कोई सवाल नही होता।बाजार में सरकार की मूल्य नीति कहीं दिखाई नहीं देती है ‌।कभी लाल किले की प्राचीर से तो कभी राज्यों की राजधानी के खूबसूरत मंचों से लाखों नहीं करोड़ों रोजगार की घोषणा होती है।लेकिन ये रोजगार कब और कैसे मिलेंगे इस पर कोई सवाल नही होता।इसी लिए मनरेगा के आंकड़े भी रोजगार के आंकड़ों में शामिल होकर उसकी की शान बढ़ाते हैं।
 मतदाता ने ईवीएम का बटन दबाने से पहले कभी खुद से सवाल नहीं पूंछा इस लिए पिछले कई सालों से चुनाव दर चुनाव नेताओं और राजनीतिक दलों की नहीं जनता की कड़ी परीक्षा होती आ रही है।जन के मुद्दों से इतर राजनीति ने अपना रास्ता मंदिर – मस्जिद और धार्मिक मुद्दों को चुन लिया है।ये गलती जनता की ही तो है कि विकास मार्का राजनीति को लेकर सियासत के मैदान में उतरने वाले अरविंद केजरीवाल को भी अब हिंदुत्व मार्का राजनीति के रास्ते पर उतरना पड़ रहा है। चुनाव में जनता को सरकार की ओर से मुफ्त धार्मिक यात्रा कराने की घोषणा करनी पड़ रही है।नोट पर देवताओं की फोटो छापने का शिगूफा छोड़ना पड़ रहा है।सेक्युलर राजनीति का दम भरने वाली कांग्रेस को भी ये लबादा लगने लगा,सो उसके कमलनाथ जैसे नेता भगवा वस्त्र में मंदिर में पूजा करने की फोटो शौक से वायरल करते हैं ‌।मुसलमानों का नाम आते ही उनकी तरफ से आस्तीन चढ़ाने वाले दिग्विजय सिंह भी किसी प्रसिद्ध मंदिर में जाने से पहले मीडिया को सूचित करना नहीं भूलते हैं।अपनी धार्मिक यात्राओं का मीडिया में खूब प्रचार करतें हैं।
                    कांग्रेस नेत्री प्रियंका गांधी भी अपने को बड़ा हिंदू साबित करने के लिए कभी अपने चुनावी अभियान की शुरुआत से पहले शंकराचार्य से आशीर्वाद लेती हैं,तो कभी मां काली के मंदिर जाने से पहले गेरुआ वस्त्र पहन कर माथे पर तिलक और रूद्राक्ष की माला धारण किए नजर आती हैं।राहुल गांधी अपनी यात्रा को भारत जोड़ो यात्रा नाम देते हैं। लेकिन रास्ते के किसी प्रसिद्ध मंदिर में जाना और उसमें पूजा करने की फोटो मीडिया में जारी करना नहीं भूलते हैं।समाजवादी रथ पर सवार अखिलेश यादव भी कभी जाली दार टोपी पहन कर गले में गमछा डाले नजर आते हैं और कभी भगवा रंग में घर को सजा कर साधुओं का सम्मेलन करते दिख जाते हैं।जनता विकास पर सवाल नहीं करती तभी तो ओवैसी कभी हिजाब के नाम पर और कभी दूसरे मुद्दों पर मुसलमानों को बहलाने में कामयाब हो जाते हैं। इसी लिए हर संवेदनशील मुद्दे पर मीडिया भी उनको बहुत सुर्खीयों में बनाए रखता है।
बरसों से ये चलन बन गया है कि उम्मीदवार उसी जाति -ब्रादरी का होगा जिसकी उस विधानसभा क्षेत्र में बड़ी आबादी होती है। ताज़ा उदाहरण गुजरात चुनाव का ही लें।गुजरात में जातिगत समीकरणों के आधार पर सत्ता का रास्ता कितना आसान और कठिन होता है वह भाजपा के घोषित प्रत्याशियों की सूची से पता चलता है। भाजपा ने अब तक घोषित 160 प्रत्याशियों की सूची में एक चौथाई प्रत्याशी, तो सिर्फ एक जाति विशेष समुदाय के ही दिए हैं। इस समुदाय का गुजरात की राजनीति में जबरदस्त हस्तक्षेप है। हालांकि यह बात अलग है कि इनकी संख्या गुजरात में उतनी नहीं है, लेकिन प्रभाव इनकी संख्या बल से कहीं ज्यादा ही है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि भाजपा ने जिस तरीके से पिछले साल पूरी कैबिनेट को बदलकर नई कैबिनेट सजाई थी, उससे जातिगत समीकरणों के साथ हुई छेड़छाड़ के बाद तमाम तरह की आशंकाएं जताई जा रही थीं। लेकिन भाजपा ने अपने प्रत्याशियों की घोषणा के साथ चुनावी बिसात पर जातिगत मोहरे तो सजा ही दिए हैं।सौराष्ट्र इलाके में होने वाले विधानसभा के पहले चरण के चुनाव में भाजपा ने जातियों की बिसात पर राजनीतिक गुणा गणित से पूरा खाका तैयार कर दिया है। पार्टी ने सौराष्ट्र के सबसे मजबूत पाटीदार समुदाय को ढंग से साधा है। भाजपा ने अपने अब तक के घोषित 160 प्रत्याशियों में से एक चौथाई टिकट पाटीदार समुदाय से जुड़े नेताओं को दिए हैं। भाजपा ने तकरीबन 42 पाटीदार समुदाय से जुड़े युवा और पुराने नेताओं को चुनावी मैदान में उतारा है। जबकि, इसके अलावा 13 प्रत्याशी ब्राह्मण, 13 कोली समुदाय और 14 क्षत्रिय समेत 14 ठाकोर समाज के नेताओं को चुनावी समर में हाथ आजमाने के लिए मौका दिया है। राजनीतिक हलके में कहा जा रहा है कि भाजपा ने बहुत सधे हुए तरीके से गुजरात के चुनाव में प्रत्याशियों का चयन किया है।जातिगत समीकरणों के आधार पर भाजपा ने अच्छी फील्डिंग सजाई है। खासतौर से सौराष्ट्र इलाके में पाटीदार कोली समुदाय के लोगों को ठीकठाक टिकट दिए गए हैं।भाजपा ने पिछले साल जब मुख्यमंत्री से लेकर उपमुख्यमंत्री और तमाम बड़े नेताओं को अपनी कैबिनेट से बाहर का रास्ता दिखाया, तो गुजरात के राजनीतिक हल्के में बड़ा तूफान उठा।दरअसल भाजपा आलाकमान को गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनावों के परिणाम की आहट का आभास होने लगा था। यहीं नहीं पार्टी के बड़े नेताओं को अहसास था कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। यही वजह रही कि तमाम जातिगत समीकरणों को दरकिनार करते हुए पूरी की पूरी कैबिनेट को बदल दिया गया।सियासी जानकारों का कहना है कि इतने बड़े कदम के बाद भाजपा नेतृत्व ने गुजरात में जब अपनी दूसरी कैबिनेट दी, तो जातिगत समीकरणों को बेहतर तरीके से साधा। लेकिन तब तक चुनाव का वक्त भी नजदीक आ गया था। ऐसे में नई कैबिनेट में जातिगत समीकरणों के आधार पर बनाए गए मंत्रियों और अन्य नेताओं की जनता के बीच पकड़ का टेस्ट एंड ट्रायल उतना मजबूती से हो पाएगा या नहीं, इसे लेकर सियासी गलियारों में तमाम तरह की शंकाएं जताई जा रही थीं।भाजपा ने जातिगत समीकरणों को देखते हुए जो बिसात बिछाई है,निश्चित तौर पर उनका अपना किया हुआ होमवर्क है।हालांकि कांग्रेस की अब तक जो लिस्ट आई है और आम आदमी पार्टी ने जिस तरीके से प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है, वह पूरे गुजरात में त्रिकोणात्मक लड़ाई का संकेत दे रहे हैं।अगर कामकाज और विकास पर जनता सवाल करती तो शायद  भाजपा करीब 20 साल बाद भी नरोदा पाटिया विधानसभा क्षेत्र से मनोज कुकरानी की बेटी पायल को अपना उम्मीदवार न बनाती।ये मनोज कुकरानी वही हैं जिन पर 2002 के गुजरात दंगों के आरोप में सजा हुई है और फिलहाल पैरोल पर हैं।यहां भी जातिगत समीकरण का ही खेला है।हालांकि पायल पेशे से डाक्टर हैं और भाजपा से जुड़ी हुई हैं।जदयू का गुजरात में कोई वजूद नहीं है लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी वहां अपनी जाति के लोगों को साधने जा रहे हैं।अगर सवाल उठता तो मोरबी केबल ब्रिज हादसे के असली गुनाहगार कौन,पर भी बात होती।चुनाव के दौरान भी हादसा चर्चा में उतना नहीं है जितना होना चाहिए।जिन्होंने अपनों को खोया है वो ही इस हादसे का असली दर्द समझते हैं।

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