देहरादून। वैली ऑफ़ वर्ड्स के पुरस्कृत किताब सत्र में उपन्यासकार निलाक्षी सिंह ने कहा कि स्त्री की आजादी किसी और के प्रयास से संभव नहीं है, उसे खुद ही अपनी आजादी के लिए पहल और प्रयास करने होंगे।
इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ पेट्रोलियम के निदेशक डॉ. रंजन रेट की अध्यक्षता में हुए इस सत्र में मॉडरेटर डॉ अंजुम शर्मा ने निलाक्षी सिंह से उनकी रचना प्रक्रिया, कथानक के चयन के आधार और प्रस्तुति के तरीके पर विस्तृत बात की।
इस चर्चा के केंद्र में उनका नया उपन्यास “खेला” रहा जो कच्चे तेल पर केंद्रित वैश्विक राजनीति पर केंद्रित है, लेकिन मूलत यह स्त्री के आंतरिक और बाह्य संघर्ष की कहानी है।
बातचीत क्रम में उपन्यासकार निलाक्षी सिंह ने कहा कि वे मानती है कि किसी भी स्त्री और पुरुष की पहचान उसके जेंडर के आधार पर नहीं, बल्कि इंसान के रूप में होनी चाहिए उन्होंने अपने इस उपन्यास में इस बात पर खास जोर दिया है कि स्त्री की मुक्ति किसी बाहरी सहारे के आधार पर संभव नहीं है, इसके लिए उसे खुद ही पहल करनी होगी और साहस दिखाना होगा।
उन्होंने कहा कि इस उपन्यास को लिखते वक्त वे कथावस्तु को लेकर तो स्पष्ट थी, लेकिन पात्रों का विस्तार किस तरह से होगा, यह उन्होंने लेखन की तात्कालिक परिस्थितियों पर छोड़ दिया था। भले ही यह उपन्यास कच्चे तेल की राजनीति के आसपास बुना गया है, लेकिन इसके मूल में स्त्री की अस्मिता, उसकी पीड़ा, अनुभूति और छटपटाहट मौजूद हुई है।
उन्होंने कहा कि खेला लिखते वक्त उनके जेहन में कोई खास सैद्धांतिक विचार मौजूद नहीं था। इसीलिए पाठकों ने इसमें कई स्थानों पर यथार्थवाद को और कुछ स्थानों पर जादुई यथार्थवाद को भी चिन्हित किया है इसी तरह इसकी भाषा के बारे में कहा गया कि यह उपन्यास की बजाय काव्य की भाषा है और पाठक से अतिरिक्त धैर्य की मांग करती है।
निलाक्षी सिंह ने कहा कि वे अपने लेखन में कल्पना से ज्यादा उन चीजों को जगह देती हैं जो आसपास की दुनिया में समानांतर रूप से घटित हो रही है अथवा जिसकी अनुभूति खुद उनके भीतर मौजूद है। खेला उपन्यास में आत्म भी मौजूद है और कथ्य भी,लेकिन यह आत्मकथ्य नहीं है। विभिन्न अध्यायों में विभाजित इस उपन्यास में अध्यायों के नामों का निर्धारण भले ही आकस्मिक तौर पर किया गया है।
लेकिन ये अपने भीतर एक विशिष्ट अर्थ की ध्वनि रखते हैं उपन्यास का समापन एक चिड़िया के खुले में उड़ जाने की कामना के साथ होता है और वस्तुतः यह चिड़िया बंधनों और द्वंद्वों में पड़ी हुई स्त्री ही है उन्होंने इस बात को मानने से इनकार किया कि अपनी पसंद से विवाह करने अथवा न करने का अर्थ ही स्त्री की आजादी या मुक्ति है, बल्कि स्वयं को अपने पैमानों पर खड़े रखने के लिए संघर्ष करना ही मुक्ति है लेखिका ने इस बात को विशेष रूप से रेखांकित किया कि इस उपन्यास में पाठकों के लिए ऐसा स्पेस मौजूद है जिसके आधार पर वे एक से अधिक अर्थ ग्रहण कर सकते हैं इसी कारण इसके बारे में पाठकों की राय और उनकी अनुभूति अलग तरह की हो सकती है।
इस सत्र में आईएएस अकैडमी मसूरी के पूर्व निदेशक डॉ. संजीव चोपड़ा, हिंदी की वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया, तद्भव पत्रिका के संपादक अखिलेश, डॉ सुशील उपाध्याय, सोमेश्वर पांडेय, डॉ. राखी उपाध्याय, गीता गैरीला आदि समेत अनेक विशिष्ट लोग उपस्थित थे।