22 वर्षों में कितना बदला ‘अपणु उत्तराखंड’

वो जो ख्वाब थे...

  • तमाम चुनौतियों के बीच भी कई विकास कार्य जमीन पर दिख रहे
  • अस्थिर राजनीतिक माहौल के बीच विकास की रफ्तार बनाए रखना चुनौतीपूर्ण

मोहम्मद शाहनजर, देहरादून।

वो जो ख्वाब थे मेरे ज़ेहन में, न मैं कह सका न मैं लिख सका
कि ज़बाँ मिली तो कटी हुई जो कलम मिला तो बिका हुआ
मशहूर शायर इक़बाल अशहर ने शेर किन हालातों की अक्कासी के लिए कहा होगा, यह कहना तो मुश्किल है। हां, मगर इक़बाल अशहर के दिल का दर्द आज हर उत्तराखंडी के दिल का दर्द महसूस जैसा प्रतीत होता है। आप अपने आप को उत्तराखंड आंदोलन के शुरूआती दौर में ले चलें और फिर इस शेर (वो जो ख्वाब थे मेरे जेहन में) को पढ़ कर विचार कीजियेगा, कि क्या जो सपने उस दौर में आपकी आंखों में थे, उनको साकार करने की दिशा में हमारी सरकारें बढ़ सकी हैं?

जिनके हाथों में हमने राज्य की कमान सौंपी क्या उन्होंने राज्य आंदोलनकारियों के सपनों का उत्तराखंड बनाने की दिशा में काम किया या फिर अपनी दशा और दिशा को परवान चढ़ाया। अब अपना उत्तराखंड युवा प्रदेश हो चुका है, राज्य किन संघर्षों-शहादतों के बाद मिला पहले उन पर नजर डालते हैं, फिर बात होगी कि आखिर 22 सालों बाद पहुंचे कहा।

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उत्तराखंडवासियों के लिए नवंबर माह का विशेष महत्व है। क्योंकि पृथक उत्तराखंड की मांग को लेकर कई वर्षों तक चले आंदोलन के बाद आखिरकार 9 नवंबर 2000 को उत्तराखण्ड को सत्ताइसवें राज्य के रूप में भारत गणराज्य में शामिल किया गया था।

वर्ष 2000 से 2006 तक इसे उत्तरांचल के नाम से पुकारा जाता था, लेकिन जनवरी 2007 में स्थानीय लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए इसका आधिकारिक नाम बदल कर उत्तराखण्ड कर दिया गया। हालांकि, उत्तराखंड 23वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है और इस अवधि में तमाम चुनौतियों के बीच उसने विकास के नए सोपान तय किए लेकिन अभी बहुत कुछ हासिल किया जाना बाकी है। छोटा राज्य होने के बावजूद उत्तराखंड में अस्थिर राजनीतिक माहौल किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है।

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देवभूमि उत्तराखंड हर मामले में परिपूर्ण है, बशर्ते यहां के राजनेता और अधिकारीगण बहुत समृद्ध प्राकृतिक संसाधन हैं जिनमें ग्लेशियर, नदियां, घने जंगल और बर्फ से ढकी पर्वत चोटियां शामिल हैं। इसमें चार सबसे पवित्र और श्रद्धेय हिंदू मंदिर भी हैं जिन्हें उत्तराखंड के चार धाम के रूप में भी जाना जाता है। बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री राज्य की राजधानी देहरादून है।
वैसे तो उत्तराखंड गठन के लिए 1988 में सोबन सिंह चीमा की अध्यक्षता में उत्तरांचल उत्थान परिषद का गठन किया गया, लेकिन अलग राज्य निर्माण की मांग 1940 से चली आ रही है। साल 1940 में हल्द्वानी के एक सम्मेलन में बद्री दत्त पाण्डेय ने पर्वतीय क्षेत्र को विशेष दर्जा देने और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने कुमाऊं-गढ़वाल को पृथक इकाई के रूप में गठन करने की मांग रखी थी, 1954 में विधान परिषद के सदस्य इन्द्र सिंह नयाल ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत से पर्वतीय क्षेत्र के लिए पृथक विकास योजना बनाने का आग्रह किया था, उसी जमाने में वर्ष 1955 में फ़ज़ल अली आयोग ने पर्वतीय क्षेत्र को अलग राज्य के रूप में गठित करने की संस्तुति की थी।
देश को आजादी मिलने के बाद 22 दिसम्बर 1953 में न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया गया। इसके तीन सदस्य-न्यायमूर्ति फजल अली, हृदयनाथ कुंजरू और केएम पाणिक्कर ने 30 दिसंबर 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस आयोग ने राष्ट्रीय एकता, प्रशासनिक और वित्तीय व्यवहार्यता, आर्थिक विकास, अल्पसंख्यक हितों की रक्षा और भाषा को राज्यों के पुनर्गठन का आधार बनाया। सरकार ने इसकी संस्तुतियों को कुछ सुधार के साथ मंजूर करते हुए 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम को संसद में पास किया। इसके तहत 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए। फिर 1960 में पुनर्गठन का दूसरा दौर चला। 1960 में बम्बई राज्य को विभाजित करके महाराष्ट्र और गुजरात का गठन हुआ। 1963 में नगालैंड गठित हुआ। 1966 में पंजाब का पुनर्गठन हुआ और उसे पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में तोड़ दिया गया।
1972 में मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा बनाए गए। 1987 में मिजोरम का गठन किया गया और केन्द्र शासित राज्य अरूणाचल प्रदेश और गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। वर्ष 2000 में उत्तराखण्ड, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ अस्तित्व में आए व इसके बाद 2 जून 2014 को तेलंगाना 2 वां राज्य बना जो आन्ध्रप्रदेश राज्य से अलग हो गया।

अगर यूं कहा जाए कि पृथक राज्य गठन की मुराद 60 साल के लंबे संघर्ष के बाद पूरी हुई थी तो गलत न होगा। फ़ज़ल अली आयोग की संस्तुति के बाद 1957 में उत्तरांचल को अलग राज्य की मान्यता देने को लेकर आन्दोलन प्रारंभ हुआ। हालांकि, उत्तराखंड राज्य बनाये जाने के टिहरी के पूर्व नरेश मानवेन्द्र शाह के 1957 के आन्दोलन से पूर्व ही 1952 में कम्युनिस्ट नेता पीसी जोशी ने पर्वतीय क्षेत्र को स्वायता देने की सर्वप्रथम मांग रखी थी।

उत्तराखंड का सामरिक महत्व

उत्तराखंड हिमालय पर्वत क्षेत्र के एक बड़े भाग में स्थित है। इस क्षेत्र की सीमायें चीन, तिब्बत एवं नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को छूती हैं। उत्तर प्रदेश की सभी छोटी-बड़ी नदियों का उद्गम इसी क्षेत्र से हुआ है। उत्तराखंड क्षेत्र में छोटी-छोटी पहाड़ियों से लेकर ऊंची पर्वत श्रृंखलाएं तक विद्यमान हैं। इनमें अधिकांश समय तक बर्फ से ढकी रहने वाली नन्दा देवी, त्रिशूल, केदारनाथ, नीलकंठ तथा चौखंभा पर्वत चोटियां हैं।

पारिस्थितिकीय विभिन्नताओं के कारण इस क्षेत्र में भिन्न-भिन्न वनस्पतियां व जीव-जन्तु विद्यमान हैं। अलग राज्य की मान्यता देने को लेकर आंदोलन की शुरुआत साल 1957 से हो गई थी। क्षेत्रवासियों की मांग थी कि कई राज्य ऐसे हैं जिनका क्षेत्रफल और जनसंख्या प्रस्तावित उत्तरांचल राज्य से काफी कम है। इसके अतिरिक्त पहाड़ों का दुर्गम जीवन और पिछड़े होने की वजह से इस क्षेत्र का संपूर्ण विकास नहीं हो पा रहा है। उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग करके उसे सम्पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना चाहिए।

उक्रांद का गठन

1957 से शुरू हुआ आंदोलन 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय राष्ट्रहित में स्थगित कर दिया गया था। बाद में 1979 में उत्तरांचल क्रान्ति दल (उक्रांद) का गठन हुआ। 12 वर्ष के आन्दोलन के बाद 12 अगस्त 1991 को उत्तर प्रदेश की विधान सभा ने उत्तरांचल राज्य का प्रस्ताव पास कर केन्द्र सरकार की स्वीकृति के लिए भेजा। 24 अगस्त 1994 को उत्तर प्रदेश विधान सभा में एक बार पुनः उत्तराखंड राज्य का प्रस्ताव पास करके केन्द्र सरकार को मंजूरी के लिए भेजा गया।

वहीं, यह भी कहा जाता है कि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के समय से ही उत्तराखंड गठन की मांग शुरू हो गई थी। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की एक इकाई के रूप में उत्तराखंड में स्वाधीनता संग्राम के दौरान 1913 के कांग्रेस अधिवेशन में उत्तराखंड के अधिकांश प्रतिनिधि शामिल हुए थे, इसी वर्ष उत्तराखंड की अनुसूचित जातियों के उत्थान के लिए गठित टम्टा सुधारिणी सभा का रूपान्तरण एक व्यापक शिल्पकार महासभा के रूप में हुआ।
1916 के सितम्बर माह में गोविन्द बल्लभ पंत, हरगोबिन्द पंत, बद्री दत्त पाण्डेय, इन्द्र लाल शाह, मोहन सिंह दड़मवाल, चन्द्र लाल शाह, प्रेम बल्लभ पाण्डेय, भोला दत्त पाण्डेय और लक्ष्मी दत्त शास्त्री आदि उत्साही युवकों की ओर से कुमाऊं परिषद की स्थापना की गई जिसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन उत्तराखंड की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं का समाधान खोजना था।

1926 तक इस संगठन ने उत्तराखंड में स्थानीय सामान्य सुधारों की दिशा के अतिरिक्त निश्चित राजनीतिक उद्देश्य के रूप में संगठनात्मक गतिविधियां संपादित कीं। 1923 व 1926 के प्रान्तीय षरिषद के चुनाव में गोविन्द बल्लभ पंत हरगोविन्द पंत, मुकुन्दी लाल व बद्री दत्त पाण्डेय ने विपक्षियों को बुरी तरह पराजित किया।
मई 1938 में तत्कालीन ब्रिटिश शासन में गढ़वाल के श्रीनगर में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी परिस्थितियों के अनुसार स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करने के आंदोलन का समर्थन किया।

वर्ष 1957 में योजना आयोग के उपाध्यक्ष टीटी कृष्णमाचारी ने पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं के निदान के लिए विशेष ध्यान देने का सुझाव दिया। 12 मई, 1970 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं का निदान, राज्य व केन्द्र सरकार का दायित्व होने की घोषणा की गई और 24 जुलाई, 1979 को पृथक राज्य के गठन के लिये मसूरी में उत्तराखंड क्रान्ति दल की स्थापना की गई। जून 1987 में कर्णप्रयाग के सर्वदलीय सम्मेलन में उत्तराखंड राज्य गठन के लिए संघर्ष का आह्वान किया और नवंबर 1987 में पृथक उत्तराखंड राज्य के गठन के लिए नई दिल्ली में प्रदर्शन और राष्ट्रपति को ज्ञापन और हरिद्वार को भी प्रस्तावित राज्य में सम्मिलित करने की मांग की गई।

कर्मठ आंदोलनकारियों के बूते मिला पृथक राज्य

1994 में उत्तराखंड राज्य एवं आरक्षण को लेकर छात्रों ने सामूहिक रूप से आंदोलन किया। मुलायम सिंह यादव के उत्तराखंड विरोधी वक्तव्य से क्षेत्र में आंदोलन तेज़ हो गया। उत्तराखंड क्रान्ति दल के नेताओं ने अनशन किया। उत्तराखंड में सरकारी कर्मचारी पृथक राज्य की मांग के समर्थन में लगातार तीन महीने तक हड़ताल पर रहे।

इस दौरान उत्तराखंड में चक्काजाम और पुलिस फ़ायरिंग की घटनाएं हुईं। उत्तराखंड आंदोलनकारियों पर मसूरी व खटीमा में पुलिस की ओर से गोलियां चलाईं गईं। संयुक्त मोर्चा के तत्वावधान में 2 अक्टूबर, 1994 को दिल्ली में भारी प्रदर्शन किया गया।

इस संघर्ष में भाग लेने के लिए उत्तराखंड से हज़ारों लोगों की भागीदारी हुई। प्रदर्शन में भाग लेने जा रहे आंदोलनकारियों को मुजफ्फरनगर में प्रताड़ित किया गया और उन पर पुलिस ने गोलीबारी की और लाठियां बरसाईं तथा महिलाओं के साथ दुराचार और अभद्रता की गयी। इसमें अनेक लोग हताहत और घायल हुए।
उक्त घटना ने उत्तराखंड आन्दोलन की आग में घी का काम किया। अगले दिन तीन अक्टूबर को इस घटना के विरोध में उत्तराखंड बंद का आह्वान किया गया जिसमें तोड़फोड़, गोलीबारी व अनेक मौतें हुईं। 7 अक्टूबर 1994 को देहरादून में एक महिला आंदोलनकारी की मृत्यु हो गई। इसके विरोध में आंदोलनकारियों ने पुलिस चौकी पर जमकर बवाल किया। 15 अक्टूबर 1994 को देहरादून में कर्फ़्यू लगा दिया गया और उसी दिन एक आंदोलनकारी शहीद हो गया।

27 अक्टूबर 1994 को देश के तत्कालीन गृहमंत्री राजेश पायलट की आंदोलनकारियों से वार्ता हुई। इसी बीच श्रीनगर में श्रीयन्त्र टापू में अनशनकारियों पर पुलिस ने बर्बरतापूर्वक प्रहार किया जिसमें अनेक आंदोलनकारी शहीद हो गए। 15 अगस्त 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एच. डी. देवेगौड़ा ने उत्तराखंड को अलग राज्य की बनाने की घोषणा लाल क़िले से की।
1998 में केन्द्र की भाजपा गठबन्धन सरकार ने पहली बार राष्ट्रपति के माध्यम से उ.प्र. विधानसभा को उत्तरांचल विधेयक भेजा। तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने 26 संशोधनों के साथ उत्तरांचल राज्य विधेयक विधान सभा में पारित करवा कर केन्द्र सरकार को भेजा। केन्द्र सरकार ने 27 जुलाई 2000 को उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक 2000 को लोकसभा में प्रस्तुत किया जो एक अगस्त 2000 को लोकसभा में व 10 अगस्त 2000 अगस्त को राज्यसभा में पारित किया गया।

भारत के राष्ट्रपति ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक को 28 अगस्त 2000 को अपनी स्वीकृति दे दी और इसके बाद यह विधेयक अधिनियम में बदल गया और इसके साथ ही 9 नवम्बर 2000 को उत्तरांचल राज्य अस्तित्व में आया जो अब उत्तराखंड नाम से अपनी पहचान स्थापित करने को संघर्षरत है। यह तो थी राज्य गठन के संघर्ष की गाथा। अब इस संघर्ष को परवान चढ़ाने और अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीर आंदोलनकारियों और राज्य निर्माण के आंदोलन में शहीद होने वाले बलिदानियों की कुरबानियों पर एक नजर डाली जाए।
राज्य आन्दोलन के दौरान बहुत सी घटनाएं हुईं जिनमें हजारों लोगों को पुलिस की बर्बरता का शिकार होना पड़ा। एक सितम्बर 1994 को उत्तराखंड राज्य आन्दोलन का काला दिवस माना जाता है, क्योंकि इस दिन जैसी पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्यवाही इससे पहले कहीं और देखने को नहीं मिली थी। पुलिस की ओर से बिना चेतावनी दिए ही आंदोलनकारियों के ऊपर अंधाधुंध फ़ायरिंग की गई, जिसके परिणामस्वरूप सात आंदोलनकारी शहीद हो गये। खटीमा गोलीकाण्ड में शहीद हुए आंदोलनकारियों में शहीद स्व. भगवान सिंह सिरौला, ग्राम श्रीपुर बिछुवा, खटीमा।

शहीद स्व. प्रताप सिंह, खटीमा। शहीद स्व. सलीम अहमद, खटीमा। शहीद स्व. गोपीचन्द, ग्राम रतनपुर फुलैया, खटीमा। शहीद स्व. धर्मानन्द भट्ट, ग्राम अमरकलां, खटीमा। शहीद स्व. परमजीत सिंह, राजीवनगर, खटीमा। शहीद स्व. रामपाल, बरेली आदि शामिल है। 2 सितम्बर 1994 को मसूरी में खटीमा गोलीकाण्ड के विरोध में मौन जुलूस निकाल रहे लोगों पर एक बार फिर पुलिसिया क़हर टूटा था, प्रशासन से बातचीत करने गईं दो सगी बहनों को पुलिस ने झूलाघर स्थित आंदोलनकारियों के कार्यालय में गोली मार दी।

इसका विरोध करने पर पुलिस की ओर से अंधाधुंध फ़ायरिंग कर दी गई, जिसमें लगभग 21 लोगों को गोली लगी और इसमें से चार आंदोलनकारियों की अस्पताल में मृत्यु हो गई।
मसूरी गोलीकाण्ड में शहीद स्व. बेलमती चौहान पत्नी धर्म सिंह चौहान, ग्राम खलोन, पट्टी घाट, अकोदया, टिहरी। शहीद स्व. हंसा धनई पत्नी भगवान सिंह धनई, ग्राम बंगधार, पट्टी धारमण्डल, टिहरी। शहीद स्व. बलबीर सिंह नेगी पुत्र भगवान सिंह नेगी, लक्ष्मी मिष्ठान्न भण्डार, लाइब्रेरी, मसूरी। शहीद स्व. धनपत सिंह ग्राम गंगवाड़ा, पट्टी गंगवाड़स्यूँ, टिहरी।

शहीद स्व. मदन मोहन ममगाईं ग्राम नागजली, पट्टी कुलड़ी, मसूरी। शहीद स्व. राय सिंह बंगारी ग्राम तोडेरा, पट्टी पूर्वी भरदार, टिहरी ने अपनी जान देकर आंदोलन को परवान चढ़ाया। इसके बाद रामपुर तिराहा (मुज़फ़्फ़रनगर) गोलीकाण्ड का दर्दनाक वाक्या पेश आया।
2 अक्टूबर 1994 की रात्रि को दिल्ली रैली में जा रहे आंदोलनकारियों का रामपुर तिराहा, मुज़फ्फ़रनगर में पुलिस-प्रशासन ने जैसा दमन किया, उसका उदाहरण किसी भी लोकतान्त्रिक देश तो क्या किसी तानाशाह ने भी आज तक दुनिया में नहीं दिया होगा।

निहत्थे आंदोलनकारियों को रात के अन्धेरे में चारों ओर से घेरकर गोलियां बरसाई गईं और महिलाओं के साथ दुष्कर्म तक किया गया। इस गोलीकाण्ड में राज्य के 7 आंदोलनकारी शहीद हो गए थे। इस गोलीकाण्ड के दोषी आठ पुलिसवालों पर, जिनमें तीन पुलिस अधिकारी भी हैं, पर मामला अब भी चल रहा है।

टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ रामपुर तिराहा गोलीकांड

रामपुर तिराहा गोलीकाण्ड में मारे गए शहीदों में शहीद स्व. सूर्यप्रकाश थपलियाल पुत्र चिन्तामणि थपलियाल, चौदह बीघा, मुनि की रेती, ऋषिकेश। शहीद स्व. राजेश लखेड़ा पुत्र दर्शन सिंह लखेड़ा, अजबपुर कलाँ, देहरादून। शहीद स्व. रवीन्द्र सिंह रावत पुत्र कुन्दन सिंह रावत, बी-20, नेहरू कॉलोनी, देहरादून। शहीद स्व. राजेश नेगी पुत्र महावीर सिंह नेगी, भानियावाला, देहरादून। शहीद स्व. सतेन्द्र चौहान पुत्र जोध सिंह चौहान, ग्राम हरिपुर, सेलाक़ुईं, देहरादून।

शहीद स्व. गिरीश भद्री पुत्र वाचस्पति भद्री, अजबपुर ख़ुर्द, देहरादून। शहीद स्व. अशोक कुमार कैशिव, पुत्र शिव प्रसाद कैशिव, मन्दिर मार्ग, ऊखीमठ, रुद्रप्रयाग आदि शामिल हैं। 3 अक्टूबर 1994 को रामपुर तिराहा गोलीकाण्ड की सूचना देहरादून में पहुँचते ही लोगों का उग्र होना स्वाभाविक था।

इसी बीच इस काण्ड में शहीद स्व. रवीन्द्र सिंह रावत की शवयात्रा पर पुलिस के लाठीचार्ज के बाद स्थिति और उग्र हो गई और लोगों ने पूरे देहरादून में इसके विरोध में प्रदर्शन किया, जिसमें पहले से ही जनाक्रोश को किसी भी हालत में दबाने के लिये तैयार पुलिस ने फ़ायरिंग कर दी, जिसने तीन और लोगों को इस आन्दोलन में शहीद कर दिया।
देहरादून गोलीकाण्ड में मारे गए शहीदों में शहीद स्व. बलवन्त सिंह जगवाण पुत्र भगवान सिंह जगवाण ग्राम मल्हाण, नयागाँव, देहरादून। शहीद स्व. दीपक वालिया पुत्र ओम प्रकाश वालिया, ग्राम बद्रीपुर, देहरादून। शहीद स्व. राजेश रावत पुत्र श्रीमती आनन्दी देवी, 27-चंद्र रोड, नई बस्ती, देहरादून व स्व. राजेश रावत की मृत्यु तत्कालीन समाजवादी पार्टी के नेता रहे सूर्यकान्त धस्माना के घर से हुई फ़ायरिंग में हुई थी।

3 अक्टूबर 1994 को पूरा उत्तराखंड रामपुर तिराहा काण्ड के विरोध में उबला हुआ था और पुलिस-प्रशासन किसी भी प्रकार से इसके दमन के लिये तैयार था। इसी कड़ी में कोटद्वार में भी आन्दोलन हुआ, जिसमें दो आंदोलनकारियों को पुलिसकर्मियों ने राइफ़ल के बटों व डण्डों से पीट-पीटकर मार डाला। शहीद स्व. राकेश देवरानी व शहीद स्व. पृथ्वी सिंह बिष्ट, मानपुर ख़ुर्द, कोटद्वार की मौत पुलिस की पिटाई से हुई।

प्रदेश का कोना-कोना उबल रहा था, हर तरफ पुलिस-प्रशासन की बर्बरता दिखाई दे रही थी, नैनीताल में भी विरोध चरम पर था, लेकिन इसका नेतृत्व बुद्धिजीवियों के हाथ में होने के कारण पुलिस कुछ कर नहीं पाई, लेकिन इसकी भड़ास उन्होंने निकाली होटल प्रशान्त में काम करने वाले प्रताप सिंह के ऊपर। आरएएफ के सिपाहियों ने इन्हें होटल से खींचा और जब ये बचने के लिये होटल मेघदूत की तरफ़ भागे, तो इनकी गर्दन में गोली मारकर हत्या कर दी गई।
गढ़वाल के श्रीनगर शहर से 2 किमी दूर स्थित श्रीयन्त्र टापू पर आंदोलनकारियों ने 7 नवम्बर 1994 से इन सभी दमनकारी घटनाओं के विरोध और पृथक उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिये आमरण अनशन आरम्भ किया। 10 नवम्बर 1994 को पुलिस ने इस टापू में पहुँचकर अपना क़हर बरपाया, जिसमें कई लोगों को गम्भीर चोटें भी आई, इसी क्रम में पुलिस ने दो युवकों को राइफ़लों के बट और लाठी-डण्डों से मारकर अलकनन्दा नदी में फेंक दिया और उनके ऊपर पत्थरों की बरसात कर दी, जिससे इन दोनों की मृत्यु हो गई। श्रीयन्त्र टापू में शहीद स्व. राजेश रावत व शहीद स्व. यशोधर बेंजवाल को बलिदान देना पड़ा।

इन दोनों शहीदों के शव 14 नवम्बर 1994 को बागवान के समीप अलकनन्दा नदी में तैरते हुए पाए गए थे। उत्तराखंड राज्य का गठन बहुत लम्बे संघर्ष और बलिदानों के फलस्वरूप हुआ। उत्तराखंड राज्य की मांग सर्वप्रथम 1897 में उठी और धीरे-धीरे यह मांग अनेकों समय उठती रही। 1994 में इस मांग ने जनांदोलन का रूप ले लिया और अन्ततः नियत तिथि पर यह देश का 27वां राज्य बना।

बलिदानियों के ख्वाब कब होंगे पूरे

उत्तरराखंड आंदोलन के इतिहास ओर आंदोलनकारियों के संघर्ष ओर बलिदान की कहानी से रूबरू होने के बाद अब संघर्ष से उपजे राज्य की जनआकंशाओं पर हमारे नेता कितना खरा उतर सके हैं, इस पर गौर करने का समय है। अपने सीनों पर गोलियां खाते वक्त आंदोलनकारियों ने जो ख्वाब देखे थे, उनको साकार करने के लिए सियासी जमाअतों-सरकारों और प्रदेश के लिए नीति-रीति बनाने वाले अफसरों, जल-जंगल, जमीन के संघर्ष की अलख जलाने वालों ने क्या किया? हमारे नौजवानों को कितना रोजगार मिला, कृषि क्षेत्र में क्या प्रगति हुई, प्रदेश की आय के संसाधनों में कितना इजाफा किया।

राज्य लगातार कर्ज के मर्ज में डूबता चला जा रहा है। पहले बात बजट की। पिछले वित्तीय वर्ष में राज्य का कुल बजट 57400 करोड़ था। जिसे इस बार बढ़ाकर 65571.49 करोड़ कर दिया गया है। एक साल के अंतराल पर बजट में आठ हजार करोड़ से अधिक का इजाफा हुआ है जो करीब 12 प्रतिशत बैठता है। स्पीकर से वित्त मंत्री बने प्रेमचंद अग्रवाल ने बजट को तैयार करते समय कहा था, कि समाज के हर वर्ग की जरूरत को ध्यान में रख कर बजट तैयार किया गया है।

कृषि, रोजगार, पलायन, पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि मुद्दों पर विशेषतौर से फोकस किया गया। वित्त मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल ने अपने बजट भाषण में कहा था, कि केंद्र और राज्य सरकार के सामूहिक प्रयासों से राज्य की अर्थव्यवस्था कोरोना के प्रभावों से उभर गई है

राज्य की धामी सरकार ने बजट में यूनिफॉर्म सिविल कोड के लिए भी पांच करोड़ रुपयों का प्रावधान किया था, प्रदेश में किसी ने भी समान नागरिक संहिता की मांग नही की, मगर सरकार ने फिर भी 5 करोड का बजट रख दिया, जिन योजनाओं का सीधे जनता को लाभ मिलता है, उनके बजट में कटोती भले ही करनी पड़े मगर, सियासत चमकाने को बजट में प्राविधान करने से सरकार परहेज नही कर रही, जिस तरह से केंद्र सरकार ने 3 कृषि बिल पास किये ओर उनका फायदा गिनाने को सरकार, संघ ओर मीडिया का एक तबका आस्तीने चढ़ा कर मैदान में उतरा था, ठीक उसी तरह उत्तराखंड में भी अब तक तो यही हाल यूसीसी का है। वहीं, नौकरियों के नाम पर एक के बाद भर्ती घोटलों ने आम जनता के विश्वास पर चोट पहुंचाई है। क्योंकि एक तरफ नौकरी की बाट जोह रहे युवा तंगहाली में जीवन जी रहे हैं, अन्यथा सरकार पर भरोसा करने के बजाय पलायन को भी इलाज समझ रहे हैं।

बेरोजगारों का दम घुट रहा

सरकार को प्रदेश में यूसीसी लागू करने की जितनी जिद है यदि सच में ऐसा होता तो आज उत्तराखंड में बेरोजगारी के हालात आज ऐसे न होते। उत्तराखंड की बेरोजगारी दर हालात ठीक होने के बाद भी काबू में नहीं आ पा रही है। आलम ये है कि इस साल अप्रैल में राज्य की बेरोजगारी दर 5.33 फीसद दर्ज की गई थी जो कि, 5 माह बाद 0.62 फीसद की मामूली गिरावट के साथ 4.71 फीसद पर कायम है। इतना ही नहीं, ग्रामीण क्षेत्रों की बेरोजगारी दर प्रदेश की कुल दर से ऊपर है।

गांवों में 5 फीसद बेरोजगारी दर अगस्त में रिकॉर्ड की गई है। दो साल लगातार कोरोना संक्रमण ने उत्तराखंड की कमर तोड़ कर रखी। 2022 में कोरोना से तो राहत मिली है लेकिन, बेरोजगारी दर में खास राहत नहीं मिल पा रही है।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की मई में जारी रिपोर्ट के अनुसार, जनवरी में उत्तराखंड की बेरोजगारी दर 4.01 फीसद थी, जो कि फरवरी में बढ़कर 4.58 फीसद तक पहुंच गई। हालांकि, मार्च में इसमें करीब 1 फीसद की कमी आई और बेरोजगारी दर 3.51 फीसद पर आ गई। लेकिन, अप्रैल में 1.82 फीसद की बढ़ोतरी के साथ बेरोजगारी दर पहली बार 5.33 फीसद तक पहुंच गई।

यही वो समय था जब प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों की बेरोजगारी में बड़ी बढ़ोतरी देखने को मिली थी। तब गांवों में बेरोजगारी दर 5.5 फीसद से भी ऊपर चली गई। इधर, सितंबर में जारी सीएमआईई की इस साल की दूसरी रिपोर्ट में मई से अगस्त तक की बेरोजगारी दर का आंकड़ा दिया गया है।

क्यों नहीं बढ़ रहा विकास दर का ग्राफ

प्रदेश में वित्तीय वर्ष 2020-21 में राज्य की विकास दर गिरी ही नहीं, बल्कि ऋणात्मक हो गई। सीमित संसाधनों और पर्यावरणीय बंदिशों से जूझते राज्य में निर्माण और विकास के पहिए थमने का सीधा प्रभाव आम जनजीवन की खुशहाली पर पड़ा। परिवहन, होटल, ढाबे, पर्यटन जैसे सेवा के क्षेत्र में रोजगार का संकट तो बढ़ा ही, आजीविका के भी लाले पड़े गए थे।

दरअसल, प्रदेश की अर्थव्यवस्था कृषि, बागवानी, पशुपालन, वन, खनन, विनिर्माण, निर्माण, व्यापार, होटल, रेस्टोरेंट और अन्य सेवा क्षेत्र पर निर्भर है। इन क्षेत्रों में उतार-चढ़ाव का अर्थव्यवस्था पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।
आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में आर्थिकी के आंकड़े यह स्पष्ट कर रहे हैं कि प्रदेश सरकार की ओर से कोरोना से बीमार आर्थिक स्वास्थ्य को सुधारने के लिए उठाए गए कदम कारगर रहे हैं। 2020-21 में प्रचलित भावों पर राज्य सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) 2,34,660 करोड़ आंका गया था। इसकी तुलना में 2021-22 में यह 253,832 करोड़ रहने का अनुमान है।

जीएसडीपी की वृद्धि दर में निर्माण क्षेत्र की 11.61 प्रतिशत, परिवहन, भंडारण, संचार व प्रसारण सेवाओं की 11.60 प्रतिशत भागीदारी है। वहीं, स्थावर संपदा, आवास का स्वामित्व व व्यावसायिक सेवाओं की 10.50 प्रतिशत, अन्य क्षेत्र की 10.13 प्रतिशत, व्यापार, होटल व जलपान गृह में 8.63 प्रतिशत की उच्च वृद्धि दर रही है। यद्यपि वित्तीय क्षेत्र में चार प्रतिशत, बिजली, गैस, पानी और अन्य उपयोगी सेवाओं में 2.98 प्रतिशत की निम्न वृद्धि दर आंकी गई है।
अर्थव्यवस्था में प्राथमिक क्षेत्र का 12.11 प्रतिशत, द्वितीयक क्षेत्र का 44.97 प्रतिशत और तृतीयक क्षेत्र का 42.92 प्रतिशत योगदान है। राज्य की प्रति व्यक्ति आय में भी वृद्धि हुई है। 2020-21 में प्रति व्यक्ति आय 1,82,698 रुपये आंकी गई थी। वर्ष 2021-22 में यह 1,96,282 रुपये अनुमानित है। राजस्व प्राप्तियों में भी 19.29 प्रतिशत अधिक वृद्धि रहने से सरकार का उत्साह बढ़ा है।

2020-21 में राजस्व प्राप्ति 37011 करोड़ थीं, जबकि 2021-22 में यह 44151 करोड़ रहने का अनुमान है। केंद्रीय करों में राज्य का भाग 7440.98 करोड़ आंका गया। इस सबके बावजूद पलायन के कारण गांव खाली हो रहे हैं। उत्तराखंड राज्य गठन से पहले देहरादून जिले में 2321 सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग स्थापित थे।

जिसमें कुल 88 करोड़ का पूंजी निवेश हुआ था। इन उद्योगों में 7232 लोगों को रोजगार मिला था। वर्तमान में कुल उद्योगों की संख्या 8889 हो गई है। जिसमें लगभग 1416 करोड़ का पूंजी निवेश हुआ है और 55 हजार से अधिक लोगों को रोजगार मिला है।
वर्ष 2016-17 में उत्तराखंड पर 44,583 करोड़ का कर्ज था, जो वर्ष 2021 में 73,751 करोड़ तक पहुंच चुका है। यानी इस अवधि में सरकार 29,168 करोड़ का कर्ज रिजर्व बैंक के जरिए उधार ले चुकी है। सरकार को अपने कुल कर्ज व ब्याज चुकाने के लिए भी उधार लेना पड़ रहा है और इस रकम से 70.90 फीसदी इस एवज में जमा करना पड़ रहा है। यानी लगभग 29 फीसदी बजट उसके वेतन, भत्ते, पेंशन व अन्य कार्यों के काम आ रहा है। उत्तराखंड पर सबसे ज्यादा बाजारी ऋण है।

बढ़ती उधारी चिंता का विषय

रिजर्व बैंक के जरिए राज्य सरकार यह कर्ज उठाती है। इसकी कुल राशि 53,302 करोड़ है जबकि भारत सरकार की देनदारी 3813 करोड़ की है। राज्य सरकार कर्मचारियों के जीपीएफ, ईपीएफ, राष्ट्रीय बचत स्कीम आदि से भी 16,636 तक करोड़ की उधारी है। सरकार को जब कर्ज और उस पर लगने वाले ब्याज को ही चुकाने के लिए उधार लेना पड़ रहा हो तो इससे विकास कार्य कैसे शुरू हो पाएंगे।

ऐसे में तो राज्य सरकार अपने संसाधनों से कोई बड़े प्रोजेक्ट बनाने की सोच भी नहीं सकती। इस तरह सरकार लगातार कर्ज तो ले रही है, लेकिन इसे चुकाया कैसे जाएगा, इस पर कोई कुछ नहीं कह रहा।
बहरहाल, किसी भी राज्य को विकास की ऊंचाईयों तक ले जाने के लिए 22 साल का सफर कम नहीं होता। इस दृष्टिकोण से देखें तो उत्तराखंड 23वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है और इस अवधि में तमाम चुनौतियों के बीच उसने विकास के नए सोपान तय किए, लेकिन अभी बहुत कुछ हासिल किया जाना बाकी है।

छोटा राज्य होने के बावजूद उत्तराखंड में अस्थिर राजनीतिक माहौल एक चुनौती के रूप में रहा है। हालांकि, यह सरकार में नेतृत्व परिवर्तन तक ही सीमित रहा, लेकिन इसका कहीं न कहीं असर तो पड़ता ही है। इसे महज इस तथ्य से ही समझा जा सकता है कि 22वीं वर्षगांठ पर उत्तराखंड में 12वें मुख्यमंत्री सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं।

खैर, अब जबकि उत्तराखंड को पुष्कर सिंह धामी के रूप में सबसे युवा मुख्यमंत्री मिला है तो चहुंमुखी विकास को लेकर राज्यवासियों की उम्मीदें भी जवां हुई हुई हैं। लेकिन अंकिता कांड, विधानसभा में भर्ती प्रकरण समेत कई अन्य बड़े मामलों के भ्रष्टाचार के मामले उजागर होने के बाद बदली परिस्थितियों में यह कह पाना मुश्किल है कि उत्तराखंड राजनीतिक अस्थिरता के अभिशाप से मुक्त हो जाएगा। लिहाजा, यह शोचनीय प्रश्न है कि क्या इन्हीं हालातों का सामना करने के लिए ही प्रदेश का गठन किया गया था, क्या वो ख्वाब जो राज्य आंदोलनकारियों ने देखे थे क्या वो साकार हो पाए हैं?

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