22 बरस का उत्तराखंड पर चुनौतियां कम नहीं,कुर्सी की रार में सूबे की हार

2024 के चुनाव में अंकिता हत्या कांड और युवाओं की नाराजगी का दिखेगा असर
आलाकमान की बढ़ती नाराजगी के बीच भाजपा की थैंक टैंक जुटी जन समर्थन बढ़ाने में

अमर श्रीकांत, देहरादून।
उत्तरप्रदेश से अलग होने के बाद भी उत्तराखंड विकास के लिए तरस रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण राजनीतिक अस्थिरता और राजनेताओं के मन में पुष्पवित-पल्लवित होने वाले सपने हैं। इसी का परिणाम है कि राज्य गठन के बाद से हर साल करोड़ों रुपये की धनराशि इस प्रदेश को बतौर कर्ज लेने पड़ते हैं जो आज अरबों में पहुंच गया है।

मतलब साफ है कि सवा करोड़ की आबादी वाले इस राज्य में जहां तीर्थाटन और पर्यटन की जड़ें गहरी हैं, उसके बावजूद यहां हर इंसान कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि अर्थव्यवस्था इस कदर चौपट है कि यहां पैदा होने वाले हर शिशु पर एक हजार की धनराशि का कर्ज बच्चे के माथे पर है। इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था किस तरह से तेजी के साथ पटरी से उतर रही है।

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जब राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बढ़ेगा तो सरकारी कामकाज पर असर पड़ना लाजिमी है। ऐसे में विकास की कल्पना कदापि संभव नहीं है। विकास को गति प्रदान करने वाली नौकरशाही इसी राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाती है। ऐसे हालात में सतत विकास का खाका खींचा नहीं जा सकता। बदलाव होते ही नौकरशाही तो मलाईदार विभाग के जुगाड़ में लग जाती है। और अस्थिरता की स्थिति में अगला मुख्यमंत्री कौन बनेगा, इसी पर उनका फोकस रहता है।

अस्थिरता का ही फायदा हर तरह के माफिया भी उठाते हैं, चाहे भू माफिया हो या खनन माफिया। हां, यदि सरकार का मुखिया कमजोर होता है तो निश्चित रूप से अपराध भी बढ़ते हैं। हर सत्ता में ऐसा खेल होता है। जब सत्ता नहीं होती है तब राजनेता तरह-तरह के सब्जबाग दिखाते हैं। लेकिन सत्ता मिलते ही सारे आदर्श भूल जाते हैं। ठीक यही स्थिति देवभूमि उत्तराखंड की भी है। इस छोटे से प्रदेश में कम समय में मौसम की तरह मुख्यमंत्री बदलते रहे। यानी 22 साल में 12 मुख्यमंत्री इसे मिले हैं।
राज्य गठन के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहल पर पहला मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को बनाया गया। लेकिन ईमानदार प्रवृत्ति के नित्यानंद स्वामी लंबे समय तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं टिक सके। स्वामी को हटाने के लिए पार्टी के लोगों ने ही जबरदस्त मुहिम छेड़ दी। नतीजा यह हुआ कि स्वामी को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटना पड़ा। और भगत सिंह कोश्यारी सीएम बने।

जल्द ही उनकी भी विदाई कर दी गई। सत्ता की भूख काफी खतरनाक होती है। महत्वाकांक्षा भले ही कोई पाल ले लेकिन लंबे तक सत्तासुख किसी को नहीं मिलता। हां, सियासत में दांव पेंच जरूर चलता रहता है। सही बात तो यही है कि इसे ही राजनीति कहा जाता है। कौन कहां, कौन कब किसे पछाड़ देगा, किसी को भी नहीं पता है। कोश्यारी गए।

चुनाव हुआ जिसमें कांग्रेस जीती और विकास पुरुष नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बनाया गया। यहां बताना जरूरी है कि अब तक एनडी तिवारी ही उत्तराखंड के सबसे सफल मुख्यमंत्री जाने जाते हैं। उन्होंने पूरे पांच साल तक कांग्रेस की सरकार चलाई। तिवारी के पीछे भी उनके विरोधी लगे रहे लेकिन उनको पांच साल तक हिला नहीं सके।
एनडी तिवारी की सबसे महत्वपूर्ण काबिलियत यह थी कि वे हर गुट के अलावा विरोधी पार्टी के नेताओं को भी साधने में माहिर थे। यह निर्विवाद सत्य है कि तिवारी ने विकास की जो परिकल्पना की, उसकी तारीफ दूसरी पार्टी के लोग भी करते हैं। उस जमाने में जो निवेश इस पहाड़ी प्रदेश में हुए, वो आज तक नहीं हुए हैं। हां, निवेश के नाम पर तिवारी के बाद आए मुख्यमंत्रियों ने खूब ढोल बजाए।

पर हुआ कुछ भी नहीं। क्योंकि मुख्यमंत्रियों में विजन का अभाव रहा। साथ ही, पार्टी के अंदर इतनी ज्यादा उठापटक रही कि मुख्यमंत्री अपनी-अपनी कुर्सी बचाने में ही जुटे रहे। कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों में विजय बहुगुणा और हरीश रावत भी आए। विजय बहुगुणा भी अपनों के शिकार हुए। जून, 2013 में आई भीषण प्राकृतिक आपदा के बाद बेकाबू होते हालात को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान ने विजय बहुगुणा को हटा कर हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाया।

लेकिन उनके लिए भी राह आसान नहीं रही। उनका कार्यकाल भी काफी उठापटक वाला रहा। जैसे-तैसे खींचतान के बीच हरीश रावत का कार्यकाल बीता।
यहां बताना जरूरी है कि कड़क मिजाज के मेजर जनरल (अवकाश प्राप्त) भुवन चंद्र खंडूड़ी भी दो बार मुख्यमंत्री बने। मतलब यह वह दौर था जिसमें दो बार खंडूड़ी और एक बार डॉ रमेश पोखरियाल निशंक मुख्यमंत्री बने। खंडूड़ी का कार्यकाल शेष मुख्यमंत्रियों के मुकाबले बेहद साफ सुथरा रहा है। पर दुर्भाग्य यह है कि उन्हें भी मुख्यमंत्री के पद से हटाकर डॉ निशंक को मुख्यमंत्री बनाया गया। खास बात यह है कि फिर निशंक को हटाकर खंडूड़ी को उत्तराखंड की कमान सौंपी गई। मतलब पांच साल के अंदर दो बार खंडूड़ी और एक बार डॉ रमेश पोखरियाल निशंक को मुख्यमंत्री बनाया गया।

वैसे भी भाजपा में मुख्यमंत्री बदलने का खेल चलता रहता है। साफ-सुथरे छवि वाले त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन उन्हें भी चार साल पूरा होने के करीब 9 दिन पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटा दिया गया। उसके बाद पौड़ी गढवाल के सांसद तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन ईमानदार छवि वाले तीरथ सिंह रावत को भी 6 माह के अंदर ही हटा दिया गया। तीरथ की जगह खटीमा के विधायक पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया गया और उन्हीं की अगुआई में विधानसभा चुनाव हुए।

भाजपा विजयी हुई लेकिन धामी चुनाव हार गए। बावजूद भाजपा हाईकमान ने धामी पर विश्वास जताया और विधान सभा चुनाव हारने के बाद भी उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया। अभी फिर धामी पर संकट गहराता जा रहा है। अभी दो माह पहले तो उत्तराखंड की सियासत काफी गरमा गई थी।

हालांकि, चिंगारी कब शोला बन जाए, कहना काफी मुश्किल है। क्योंकि उत्तराखंड में पेपर लीक प्रकरण, विधान सभा में अवैध ढंग से हुई नियुक्तियां और अंकिता हत्या कांड की गूंज से पूरा देश हिल गया।
अंकिता हत्या कांड की जांच एसआईटी से सरकार करवा रही है लेकिन उसके पिता एसआईटी के जांच से संतुष्ट नहीं हैं। वे बार बार सीबीआई-सीबीआई की गुहार लगा रहे हैं। वे अपनी बिटिया को न्याय दिलाना चाहते हैं। हालांकि, कांग्रेस शुरू से ही सीबीआई द्वारा अंकिता हत्या कांड की जांच कराने की मांग कर रही है। राज्यपाल का भी दरवाजा सीबीआई से पड़ताल कराने को लेकर खटखटा चुकी है।

लेकिन सरकार खामोश है। सबसे अचरज की बात यह है कि अंकिता के परिजन सीबीआई द्वारा पड़ताल की मांग कर रहे हैं और सरकार एसआईटी पर पूरी ताकत लगाए हुए हैं। नवंबर के शुरू में एकाएक सरकार ने अंकिता हत्या कांड की जांच कर रहे अजय सिंह को एसआईटी से हटाकर हरिद्वार का पुलिस अधीक्षक बना दिया। इस घटना से हर कोई अचरज में है। क्या एसआईटी ठीक से जांच नहीं कर रही थी।

यदि वाकई एसआईटी की जांच सही दिशा में नहीं हो रही थी तो आखिर जांच कमांडर अजय सिंह को साइड करना चाहिए था लेकिन उन्हें तो हरिद्वार की तरह बड़ा महकमा सौंप दिया गया। यह बात समझ से परे है। दूसरी बात यह भी उभर कर सामने आई है कि एसआईटी की जांच सही दिशा में चल रही थी। वैसे अजय सिंह काफी सुलझे हुए सख्त पुलिस अधिकारों में शुमार हैं।

उन्होंने कई जटिल प्रकरणों को उजागर किया है। फिर आखिर उन्हें क्यों हटाया गया है। यह एक बड़ा सवाल उत्तराखण्ड के लोगों के जेहन में है।
बेवजह पुलिस अधिकारी को हटाने से कई तरह के सवाल तो खड़े होंगे ही। इतना ही नहीं, पौड़ी में श्वेता चौबे की तैनाती बतौर पुलिस अधीक्षक के रूप में किया गया। इससे भी लोग शंकित हैं कि आखिर सरकार की मंशा क्या है। शुरू में तो उस रिजार्ट पर बुलडोजर चला और अभी हाल में वह रिजार्ट आग के हवाले कर दिया गया। यह तो ऐसा रहस्य है जो समुद्र से भी अब ज्यादा गहरा हो गया है।

कहीं यह सब साक्ष्य मिटाने की साज़िश तो नहीं है। यहां बताना जरूरी है कि आरोपी का पूरा परिवार आरएसएस से जुड़ा हुआ है। आरएसएस की वजह से आरोपी के परिवार को सरकारी लाभ भी मिल रहा था। अंकिता हत्याकांड के बाद सरकारी लाभ फिलहाल बंद है। क्या सरकार अंकिता को इंसाफ दिलाना नहीं चाहती है। तो आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। पुख्ता सबूत नहीं होंगे तब कैसे आरोपी को फांसी के फंदे पर लटकाया जाएगा। इस मामले में कहीं न कहीं तो झोल है।

इस बात को समझाना होगा। खासकर, मुख्यमंत्री को। क्योंकि भाजपा हाईकमान को मुख्यमंत्री धामी पर भरोसा है। तभी तो उनकी ताजपोशी दूसरी बार बतौर मुख्यमंत्री के रूप में हुई है। मुख्यमंत्री भी चाहेंगे कि अंकिता हत्या कांड के आरोपियों को सख्त सजा दिला कर एक नजीर तो पेश की ही जा सकती है। ताकि, एक गरीब की बिटिया को इंसाफ मिल सके।
पेपर लीक प्रकरण की भी पड़ताल काफी सुस्त गति से चल रही है। सभी को पता है कि इसका मुख्य सरगना हाकम सिंह की पहुंच सत्ता तक रही है। इस मामले में सरकार का रवैया काफी ढुलमुल दिखा। कई आरोपियों को पुख्ता सबूत नहीं होने के कारण छोड़ना पड़ा है। इससे साबित हो रहा है कि जांच में कहीं न कहीं भटकाव है। तभी तो बंदी बनाए गए लोगों को छोड़ना पड़ा है। पेपर लीक मामला काफी गंभीर है।

पर सरकार कितनी सजग है। इस पर अब भी पर्दा है। विधान सभा में अवैध ढंग से हुई नियुक्तियों का क्या होगा। इस पर भी प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। कानून के जानकार यह मानकर चल रहे हैं कि हाईकोर्ट में सरकार की ओर से कमजोर पैरवी हुई है। पेपर लीक प्रकरण और विधान सभा में हुई नियुक्तियों ने यह साबित कर दिया है कि उत्तराखंड में नौकरियां बिकाऊ हैं।

धन-दौलत भेंट करके और उंची पहुंच रखने वाला कोई भी युवक मनचाहा नौकरी खरीद सकता है। मतलब साफ है कि उत्तराखंड में नौकरियां धड़ल्ले से बिक रही हैं। इतना बड़ा कांड हुआ है। बावजूद भाजपा हाईकमान खामोश है। प्रधानमंत्री भी आए। पर कुछ नहीं बोले।

हां, इतना जरूर है कि प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री प्रदेश सरकार की साख पर बट्टा लगाने वाले एक के बाद मामलों के उजागार होने के बाद हो रही थू-थू से काफी खफा हैं। क्योंकि उत्तराखंड के उक्त मामलों के साथ अंकिता हत्याकांड में लगातार की जा रही लीपापोती से अब पूरा देश वाकिफ हो चुका है।
भरोसेमंद सूत्रों का दावा है कि प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री को इस बात की भी चिंता है कि इन घटनाओं का असर कहीं वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव पर तो नहीं पड़ेगा।

चुनाव पर असर नहीं पड़े इसलिए भाजपा हाईकमान उत्तराखंड को लेकर अपनी रणनीति बना चुका है। हिमाचल प्रदेश और गुजरात चुनाव की वजह से गोपनीय रणनीति का खुलासा भाजपा का शीर्ष नेतृत्व नहीं कर पा रहा हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह शुरू से ही दूरगामी और परिपक्व निर्णय के लिए जाने जाते हैं। आज इन दोनों शीर्ष महारथियों की वजह से ही भाजपा विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है और पूरे देश पर शासन कर रही है।

इन दोनों ताकतवर नेताओं की वजह से ही कई राज्यों में भाजपा अपने बूते पर सरकार बनाने में कामयाब हुई है। मोदी और शाह कभी नहीं चाहेंगे कि पेपर लीक प्रकरण, विधान सभा में अवैध ढंग से हुई नियुक्तियां और अंकिता हत्या कांड की गूंज 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में पड़े। क्योंकि उत्तराखंड में हाल में जो भी घटनाएं हुईं है वे सीधे तौर पर बेरोजगार युवकों से जुड़ी हुई हैं। इसकी लौ केवल उत्तराखंड तक ही सिमट कर नहीं रहेगी, बल्कि पूरे देश में फैलेगी।
युवा पूरी ताकत और मेहनत के साथ काम्पीटिशन की तैयारी करते हैं। ताकि, अच्छी नौकरी मिल सकें। लेकिन उत्तराखण्ड में जिस तरह से नौकरियां बेची गईं, उससे न केवल उत्तराखंड का युवा भयभीत है, बल्कि पूरे देश का युवा चिंतित है।

भाजपा हाईकमान ने अपने गोपनीय सर्वे यह पाया है कि उत्तराखंड में हुए पेपर लीक प्रकरण और विधान सभा में अवैध ढंग से हुई नियुक्तियों देश का युवा नाराज है। युवाओं की नाराजगी किस तरह से दूर हो, इसे लेकर भाजपा का थैंक टैंक गोपनीय कसरत कर रहा है। इसके अलावा महिला सशक्तीकरण की बात करने वाली भाजपा भी अंकिता हत्याकांड से परेशान है। क्योंकि इस कांड से महिलाएं खासकर विश्वविद्यालय की छात्राओं में काफी नाराजगी है। इसका भी असर 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में पड़ सकता है।
बहरहाल, अब उत्तराखंड सरकार की नैतिक जिमेदारी है कि वह युवाओं को भरोसे में ले। युवाओं को विश्वास दिलाए कि युवाओं के सपने छीनने वालों को सरकार किसी भी हाल माफ नहीं करेगी। इसके अलावा अंकिता हत्या कांड की जांच भी शीर्ष एजेंसी से कराने की आवश्यकता है। क्योंकि अंकिता के परिजन सीबीआई द्वारा पड़ताल की मांग कर रहे हैं। तो इससे सरकार क्यों परेशान है।

सीबीआई की संस्तुति देने में इतना विलंब क्यों हो रहा है। पेपर लीक प्रकरण, विधान सभा में अवैध ढंग से हुई नियुक्तियां और अंकिता हत्या कांड सरकार की गले का फांस बन गए हैं। सरकार को समझना होगाअ और प्रदेश की बेहतरी और लगे धब्बे को मिटाने की दिशा में कार्य करने में तेजी लानी होगी। बस, ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत है। किसी के भी सपनों को दफन करने का अधिकार किसी को भी नहीं है।

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