रांची। मौसम के बदलाव से आर्कटिक के ग्लेशियरों के पिघलने से वैज्ञानिकों की चिंता और बढ़ रही है। यह तो पहले से ही पता है कि इन विशाल बर्फखंडों के पिघल जाने से समुद्री जलस्तर का बढ़ना तय है। समुद्री जलस्तर के बढ़ने से दुनिया के कई वैसे इलाके जलमग्न हो जाएंगे, जो समुद्री तटों के पास हैं।
लेकिन अब वैज्ञानिक इस बात को लेकर चिंतित है कि यहां पर लाखों साल से बर्फ के नीचे दबे और निष्क्रिय अवस्था में पड़े वायरस बाहर निकले तो क्या होगा। यह चिंता इसलिए भी स्वाभाविक है क्योंकि इन वायरसों की वैज्ञानिक पहचान भी नहीं हो पायी है।
वे इससे पहले कभी भी विज्ञान की आंखों में नहीं आये हैं। इसी वजह से वैज्ञानिक यह आशंका जता रहे हैं कि कोरोना के जैसी दूसरी महामारी इन वायरसों की वजह से आ सकती है। खतरा इस बात का ज्यादा है कि बर्फ के नीचे दबे ऐसे अज्ञात किस्म के वायरसों की मारक क्षमता के बारे में अभी कोई जानकारी नहीं है, जो और अधिक खतरनाक स्थिति है।
वैसे आर्कटिक के पहले सिक्किम और लद्दाख के इलाकों में भी वैज्ञानिक शोध के दौरान यह पता चला था कि बर्फ पिघलने से ऐसे वायरस बाहर निकलकर सक्रिय हो रहे हैं, जिनकी पहचान पहले नहीं की गयी थी। बर्फ मे दबे होने की वजह से वे निष्क्रिय अवस्था में थे।
सूर्य की रोशनी के संपर्क में आने की वजह से वे सक्रिय हो उठे हैं। अब वैश्विक तापमान के बढ़ने की वजह से मौसम के बदलाव को पूरी दुनिया में साफ साफ महसूस किया जा रहा है। इसी वजह से यह नये किस्म का खतरा सर पर मंडराता नजर आ रहा है।
अधिक चिंता इस बात की है कि ऐसे अज्ञात किस्म के वायरस हमारे वायुमंडल में सक्रिय होने की स्थिति में क्या कुछ कर सकते हैं, इसका कोई आकलन भी नहीं है।
वैसे चमगादड़ों का कोरोना वायरस हाल में इस खतरे का जीता जागता उदाहरण है। चमगादड़ों में पहले से ही मौजूद होने के बाद भी यह पहले इंसानों पर असर नहीं डालता था। अचानक से इस वायरस का हमला इंसानों पर होने का क्या नतीजा हुआ है, यह पूरी दुनिया देख और समझ चुकी है।
कनाडा के वैज्ञानिकों ने आर्कटिक इलाके के लेक हाजेन पर इसकी जांच भी की है। यह दुनिया के उत्तरी गोलार्ध की सबसे बड़ी झील है।
वहां से पिघले हुए ग्लेशियरों के नमूने एकत्रित कर उनकी जांच की गयी है। इसके लिए शोध दल ने दो मीटर की गहराई तक छेद कर ऐसे नमूने हासिल किये थे। वहां से मिले नमूनों की डीएनए और आरएनए जांच की गयी है।
यूनिवर्सिटी आफ ओटावा के जीव विज्ञान विभाग के प्रोफसर स्टीफेन एरिस ब्रोसोउ ने कहा कि इससे साफ हो जाता है कि अनुकूल माहौल में तथा वायरस को आगे बढ़ने में मदद करने वाला जीवन मौजूद होने से यह सारे तेजी से फैल सकते हैं।
वैसे वायरसों का पता चलने के बाद वे किस श्रेणी के हैं, इसकी जेनेटिक जांच अभी जारी है। शोध दल का मानना है कि इस इलाके के जमीन की ऊपरी पर्त के हट जाने से भी नये किस्म के वायरसों का बाहर आना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। ऐसे वायरस मच्छर से लेकर छोटे कीटों के जरिए भी आगे बढ़ सकते हैं। इस वजह से यह नये किस्म का खतरा है, जो बढ़ता ही जा रहा है।