आशीष सिंह
मुलायम सिंह यादव को गर्म मिजाज और आक्रामक राजनीति करने वाला व्यक्ति माना जाता था। इसके बाद भी अपने लंबे राजनीतिक जीवन के दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण अवसरों पर अपने अंदर की मानवीय भावना को तरजीह दी। भले ही इसकी वह से उन्हें राजनीतिक नुकसान भी हुआ।
इसलिए यह स्वीकारा जाना चाहिए कि मुलायम सिंह यादव से नेताजी तक पहुंचने वाले नेता की पहचान दूसरे किस्म की थी। उत्तर प्रदेश की राजनीति के केंद्र में रहने वाले और बाद में भारतीय राजनीति में अपनी अहम छाप छोड़ने वाले मुलायम सिंह यादव के निधन से पैदा हुई शून्यता को कोई भी नेता नहीं भर सकता है।
यह वही व्यक्ति थे जिन्होंने 20 करोड़ से अधिक आबादी वाले भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सरकार चलाई। लोकसभा की 545 सीट में से 80 सीट देने वाले इस राज्य के लिए यह बात सर्वविदित है कि प्रधानमंत्री बनने का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है।
उन्हें राजनीति विरासत में नहीं मिली थी और उन्होंने अपनी जगह अपने दम पर बनाई। मुलायम के पास जो कुछ भी था वह काफी हद तक मान्यताओं (काफी हद तक लचीली) का ही मिला-जुला स्वरूप था। वह पहली बार वर्ष 1967 में भारत के मशहूर समाजवादियों में से एक डॉ राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) के टिकट पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए थे।
वर्ष 1968 में लोहिया की मृत्यु के बाद वह चरण सिंह के नेतृत्व वाली पार्टी भारतीय क्रांति दल (बीकेडी) में शामिल हो गए। वर्ष 1974 में एसएसपी और बीकेडी का विलय हो गया। अब यह पार्टी भारतीय लोकदल (बीएलडी) बन गई और उन्हें टिकट दिया गया।
इंदिरा गांधी सरकार ने जब 1975 में आपातकाल की घोषणा की तब मुलायम सिंह यादव 19 महीने तक इटावा जेल में रहे। अन्य नेताओं की तरह ही उन्होंने जेल से बाहर आने बीएलडी उम्मीदवार के रूप में विधानसभा चुनाव लड़ा और जीते। अपने जीवन में पहली बार सहकारिता प्रभार के साथ मंत्री बने।
भ्रष्टाचार के खिलाफ वीपी सिंह का अभियान रंग लाया। जब देवीलाल ने वीपी सिंह को प्रधानमंत्री घोषित किया तब उनके पास चंद्रशेखर को निराश करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था और चंद्रशेखर अपमानित महसूस करते हुए केंद्रीय कक्ष से निकल आए थे। मुलायम 1990 में मुख्यमंत्री थे जब रामजन्मभूमि से जुड़े कारसेवक मंदिर वहीं बनाएंगे के नारे के साथ उत्तर प्रदेश का दौरा कर रहे थे।
उन्होंने पुलिस को कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस बहुसंख्यकों के इसी गुस्से का सीधा परिणाम था। 1992 में कांग्रेस विरोधी पार्टी, पिछड़े वर्गों के सशक्तिकरण और धर्मनिरपेक्षता की स्पष्ट पहचान के साथ समाजवादी पार्टी का गठन किया गया।
वर्ष 1998-99 में उन्होंने कांग्रेस सहित वामपंथी धर्मनिरपेक्ष गठबंधन का हिस्सा बनना स्वीकार कर लिया, लेकिन उन्होंने सोनिया गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं किया। हालांकि बाद में, उन्होंने विपक्ष को एक साथ सोनिया गांधी के नेतृत्व में स्वीकार कर लिया और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) में शामिल हो गए। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा को 403 में से 224 सीटें मिली थीं।
लेकिन अब मुलायम के बेटे अखिलेश उनके उत्तराधिकारी के रूप में खड़े थे। अखिलेश जब मुख्यमंत्री बने तब उनके पिता सार्वजनिक जीवन से दूर होते चले गए,जिनके साथ उनका कभी पारंपरिक रिश्ता नहीं था। सपा में गहरी दिलचस्पी रखने वाले परिवार के सदस्यों और समर्थकों ने मुलायम को उकसाया।
अखिलेश अपने पिता के घर से बाहर निकल गए और सार्वजनिक रूप से मुलायम से अपील की कि वह अपने विवेक से यह तय करें कि सपा के लिए सबसे अच्छा रास्ता क्या है। मुलायम ने सार्वजनिक रूप से अपने बेटे को फटकार लगाई। इसके बाद पिता और बेटे ने आगामी विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों की अलग-अलग सूची जारी की। मामला चुनाव आयोग के पास गया और फंड पर रोक लगा दी गई।
उस वक्त डरे हुए सपा समर्थकों को वह सब देखना पड़ा जैसा कि पहले उन्होंने ऐसा कुछ कभी नहीं देखा था। वर्ष 2017 में विधानसभा चुनाव से कुछ हफ्ते पहले चुनाव आयोग ने अखिलेश के पक्ष में फैसला सुनाया था। लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी।
मुलायम के जाने की प्रक्रिया धीमी लेकिन अपरिहार्य साबित हुई। वर्ष 2021-22 के बजट भाषण के दौरान मुलायम लोकसभा में प्रवेश करते और निकलते दिखे। धीमे-धीमे कदमों से एक सहायक की सहायता से, मुलायम ने डगमगाते कदमों के साथ अपना रास्ता तय किया।
अब उनके गुजर जाने से भारतीय राजनीति के एक अध्याय का अंत हो गया जो अंदर से समाजवादी सोच का व्यक्ति था और अंतिम समय तक अपने इसी रास्ते पर चलता रहा। इसी वजह से उन्हें नेताजी के नाम से ज्यादा पुकारा भी गया।