ऊर्जा संकट की वजह से महंगाई और बेलगाम हो रही
बाजार का रुख फेडरल बैंक के किसी हद तक ब्याज दरें बढ़ाने पर टिका
आलोक भदौरिया, नई दिल्ली।
यह महीना दुनिया की अनेक अर्थव्यवस्थाओं के लिए खासा चुनौतियां भरा होने वाला है। इसकी शुरुआत यूरोपीय सेंट्रल बैंक द्वारा ब्याज दरों में अभूतपूर्व बढ़ोतरी से हुई है। अब अमेरिकी फेडरल बैंक की बारी है। महंगाई ने दुनिया में आफत बरपा रखी है। यूरोप में तो यह पांच दशकों का रिकॉर्ड बना चुकी है। लेकिन, भारत के लिए क्या अब इतना बड़ा मुद्दा बचा है? क्या महंगाई वास्तव में इस स्तर पर आ चुकी है कि सरकार को ज्यादा चिंता की जरूरत नहीं है?
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल में ‘इंडिया आईडियाज समिट’ में साफ कहा है कि सरकार का ज्यादा ध्यान अब रोजगार सृजन और आर्थिक वृद्धि पर है। महंगाई धीरे-धीरे घट रही है। बीते कुछ महीनों में इसे उस स्तर तक लाया जा चुका है, जहां से इसे आसानी से संभाला जा सकता है। जुलाई में तो यह 6.71 फीसद तक हो चुकी है। लिहाजा, अब यह प्राथमिकता में सबसे ऊपर नहीं है। उन्होंने आशा जताई कि रिजर्व बैंक इससे आसानी से निपट लेगा।
दुआ करें कि ऐसा ही हो। लेकिन, यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने ब्याज दरों में 75 बेसिस प्वाइंट की वृद्धि की है। वहां महंगाई 9.1 फीसद पर पहुंच गई है। आशंका है कि यह दहाई के आंकड़े तक पहुंच सकती है। रूस और यूक्रेन युद्ध के जारी रहने के कारण लगे अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते दुनिया में हालात गंभीर हो रहे हैं। वैसे भी ऊर्जा के मामले में यूरोपीय देशों की निर्भरता काफी हद तक रूस पर है
। उनकी जरूरत के अधिकांश तेल और प्राकृतिक गैस की सप्लाई रूस से ही होती है। सर्दियों का मौसम आ रहा है। घरों को गर्म रखने के लिए यूरोप को ज्यादा प्राकृतिक गैस की जरूरत होगी। यही वजह है कि क्रूड में अभी से तेजी दिखने लगी है। कोई दो फीसद का इजाफा हो चुका है। अमेरिकी डब्ल्यूटीआई में कोई दो फीसद डॉलर प्रति बैरल की बढ़ोतरी हो गई है। यह लगभग 84 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गया है।
दिक्कत यह है कि सर्दियों में जब सबसे ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होगी, तब यूरोप को इसके संकट से जूझना पडे़गा। ऐसा हो सकता है कि इसके लिए राशन व्यवस्था लागू हो जाए।
याद करें कि ऐसा हाल दूसरे विश्व युद्ध के दौर की किल्लत भरी जिंदगी की यादें ताजा कर सकता है। प्रतिबंधों का असर पूरी तरह दिसंबर में दिखने लगेगा। ऊर्जा संकट का एक प्रतिकूल असर महंगाई के और बेलगाम होने की तरफ बढ़ रहा है। यही वजह है कि यूरोपीय सेंट्रल बैंक की मुखिया क्रिस्टीन लैगार्ड ने महंगाई के दहाई का आंकड़ा पार करने की आशंका जता दी है।
यूरोप ही नहीं, बल्कि अमेरिका में भी महंगाई नए रिकॉर्ड छू रही है। फेडरल बैंक के प्रमुख जीरोम पॉअल ने तो पहले ही संकेत दे दिए हैं। 20-21 सितंबर में होने वाली बैंक की बैठक में ब्याज दरों में तेज वृद्धि की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। पिछली दफा की तरह यह 75 बेसिस प्वाइंट की हुई तो डॉलर की अमेरिकी बाजारों की तरफ वापसी तय मानी जा रही है। दो दफा फेडरल बैंक ब्याज दरें बढ़ा भी चुका है। साल की पहली छमाही में 2.3 लाख करोड़ विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक (एफपीआई) भारतीय शेयर बाजार से निकाल चुके हैं।
यह स्थिति भारतीय ही नहीं, सभी विकासशील देशों के लिए चिंता का सबब होती आई है। इतिहास तो यही बताता है। तो इस बार क्या होगा? डॉलर के जाने के कारण रिजर्व बैंक बाजार में डॉलर की अतिरिक्त सप्लाई कर रुपए को स्थिर रखने का प्रयास करता है। पिछली दफा रुपए के 80 पार जाने पर रिजर्व बैंक ने इसे और गिरने से रोक दिया था। तब रिजर्व बैंक ने कहा था कि रुपए का अवमूल्यन एक सीमा से अधिक नहीं होने दिया जाएगा।
केंद्रीय बैंक की चिंता जायज है। देश में जरूरत का कोई 85 फीसद तेल आयात होता है। रुपए के अवमूल्यन के चलते तेल के आयात पर ज्यादा भुगतान करना पड़ता है। कितना ज्यादा? इसका एक अनुमान हाल में जारी कॉमर्स मंत्रालय के आंकड़ों से मिलता है। अगस्त में आयात में कोई 37 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसमें गैर तेल की हिस्सेदारी महज 32 प्रतिशत है। यानी तेल के दाम हमारे लिए परेशानी का सबब बने रहेंगे। इस दौरान निर्यात कोई 1.2 प्रतिशत घटा है।
दरअसल, असली वजह निर्यात घटना है। यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। पिछले नौ महीने से आयात के मुकाबले निर्यात में कमी बनी हुई है। आंकड़ों की नजर से देखें तो अगस्त में व्यापार घाटा 28.7 अरब डॉलर रहा। कुल निर्यात 33 अरब डॉलर और आयात 61.7 अरब डॉलर रहा।
जबकि, जुलाई में व्यापार घाटा तीस अरब डॉलर था। इसका खामियाजा विदेशी मुद्रा भंडार के लगातार घटने के रूप में सामने आ रहा है। माह की शुरुआत में यह घटकर 553.1 अरब डॉलर हो गया। जबकि 26 अगस्त को 561 अरब डॉलर था। वैसे पिछले साल यह रिकॉर्ड स्तर 641 अरब डॉलर पर था।
तो असली चुनौती निर्यात बढ़ाने की बनी हुई है। तभी व्यापार घाटा पर अंकुश लगाया जा सकता है। सवाल उठता है कि अमेरिका और यूरोप में महंगाई चरम पर है। कहीं तीन दशक तो कहीं पांच दशक का उच्चतम स्तर छू रही है। तो इस मोर्चे पर दुश्वारियां जल्द खत्म होने के आसार हाल फिलहाल तो नजर नहीं आ रहे हैं।
सरकार के प्रयास में भी ज्यादा गंभीरता नजर नहीं आ रही है।
काबिलेगौर है कि कुछ समय पहले दुनिया को खाना खिलाने के दावे किए जा रहे थे। गेहूं निर्यात की तैयारियां जोर-शोर से शुरू की गईं। वित्त मंत्री तो विश्व व्यापार संगठन के मुखिया से मिल कर गेहूं निर्यात की बंदिशें हटाने की मांग कर रही थी। लेकिन, नौकरशाहों को गेहूं के भंडार की असलियत नहीं मालूम थी। नतीजतन, कुछ ही समय बाद गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया। हालात यह हो गए थे कि मुफ्त गेहूं का बंटना तक बंद गया। इसके स्थान पर चावल बांटना शुरू हुआ।
ऐसी ही स्थिति इस बार चावल को लेकर हुई। टूटे बासमती चावल के निर्यात पर नौ सितंबर से रोक लगा दी गई। वजह इस साल इन चावल का अप्रत्याशित निर्यात हुआ। पिछले वित्त वर्ष में कुल चावल का निर्यात 212 लाख मीट्रिक टन हुआ। हैरत की बात है कि चीन सबसे बड़ा खरीदार पाया गया। उसने 16.34 लाख मीट्रिक टन खरीदा। वैसे भी चावल के उत्पादन में एक करोड़ टन की कमी का अंदेशा है।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की रिपोर्ट के मुताबिक भोजन, उर्वरक और ईंधन की कमी का दुनिया को सामना करना पडेगा। विश्व की अर्थव्यवस्था पर 13.8 ट्रिलियन डॉलर का असर पड़ने के आसार हैं। गरीबी की दलदल में और सात करोड़ लोग शामिल हो सकते हैं। युद्ध के कारण गेहूं की उपलब्धता में कमी आई है। हालांकि, यूक्रेन से गेहूं की सप्लाई की एक खेप को रूस ने मंजूरी दे दी है। फिर भी खाद्यान्न संकट जल्द खत्म होने के आसार नहीं हैं।
ऐसे हालात में गेहूं और चावल के निर्यात में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी लेना और थोड़े ही समय में इस पर रोक का फैसला क्या दर्शाता है? एक फैसले का असर किन क्षेत्रों पर पड़ता है। मसलन, एथेनॉल के उत्पादन में टूटे और खराब चावल, गेहूं का इस्तेमाल होता है।
उत्पादन घटने और ज्यादा निर्यात की स्थिति में एथेनॉल की मात्रा ईंधन में बढ़ाने के फैसले के क्रियान्वयन पर भी असर से इनकार नहीं किया जा सकता है।
बहरहाल, बाजार का रुख फेडरल बैंक के किसी हद तक ब्याज दरें बढ़ाने पर टिका हुआ है। महंगाई थामना उसके लिए तो प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर है। लेकिन क्या यह चुनौती हमारे लिए प्राथमिकता सूची में ऊपर नहीं आ सकती ?
बढ़ती बेरोजगारी
पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था
2014 में भारत का स्थान दसवां होता था। पांच पायदान की छलांग महत्वपूर्ण उपलब्धि है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की हालिया जारी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की जीडीपी में इस समय भारत की भागेदारी कोई साढ़े तीन फीसद है। रिपोर्ट के मुताबिक, यह 2027 तक चार फीसद हो जाने की उम्मीद है। ऐसा होने पर यह जर्मनी को पछाड़ सकता है। इससे पहले 2016 में भी भारत ने इसी आधार पर ब्रिटेन को पीछे छोड़ दिया था। तब डॉलर के विनिमय के आधार पर भारत की अर्थव्यवस्था का आकार नकदी के आधार पर 2.30 ट्रिलियन डॉलर आंका गया था। ब्रिटेन का 2.29 ट्रिलियन डॉलर था।
यह गौरव की बात जरूर है। लेकिन, इसके आधार पर लोगों की खुशहाली या उनके बेहतर जीवन स्तर के निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है। सबसे बड़ी चुनौती प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाना है। ब्रिटेन में प्रति व्यक्ति आय 4700 डॉलर है। भारत में यह कोई 2500 डॉलर है। दरअसल, मानवीय विकास सूचकांक (ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स) ही लोगों की बेहतरी को सही संदर्भों में दर्शाता है। यह स्वास्थ्य और शिक्षा की स्थिति भी दर्शाता है। इस सूचकांक में हमारा प्रदर्शन पिछले साल के मुकाबले खराब हुआ है। एक पायदान नीचे खिसक गए हैं। वैसे भारत को पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य कोरोना महामारी के चलते थोड़ा आगे खिसकने के आसार हैं। चीन की अर्थव्यवस्था आकार में हमसे कोई तीन गुना बड़ी है।
भारत की स्थिति
प्रति व्यक्ति आय-122वें स्थान पर
मानवीय विकास सूचकांक-132 वां स्थान
जीडीपी प्रति व्यक्ति-2500 डॉलर
प्रति व्यक्ति आय रु. में
2021-22 91,481
2020-21 1.27 लाख
2019-20 1.32 लाख