जै, जै बोला जै भगोती नंदा, नंदा उंचा कैलाश की…

गोपेश्वर। नंदा सिद्धपीठ कुरुड़ मंदिर से लोकजात यात्रा को गर्भगृह से मां नंदा की उत्सव डोलियां बाहर निकली तो नंदा भक्तों ने जै, जै बोला जै भगोती नंदा, नंदा उंचा कैलाश की जै, जै बोला… की धुन पर लोग नंदा के रहस्य लोक में डूब गए।

इस दौरान घौरे रौ घौरै रौ राणी बलंपा, तेरू  छ बालो जडीलो जी… के जागरों पर भी लोग अभिभूत हो उठे।
हिमालय वासियों के लिए नंदा लोकजात (छोटी जाति) और नंदा राजजात (बड़ी जात) का अपना विशिष्ट धार्मिक महत्व है। नंदा लोकजात हर साल आयोजित होती है तो राजजात 12 वर्ष और उससे अधिक समय के अंतराल में ।

इस तरह नंदा लोकजात यात्रा के चलते हर साल लोग अपनी आराध्या लाडली मां नंदा की कैलाश विदाई में खो जाते हैं तो कतिपय लोग नंदा को कैलाश से मायके लाकर खुशियों के रंग में रंग जाते हैं। नंदा लोकजात से जुड़े क्षेत्रों के लोग नंदा के रहस्यलोक में अब पूरी तरह डूब जाएंगे। पैनखंडा तथा दशोली के क्षेत्रों के लोग अपनी लाडली के मायके आने पर खुशियों संग उत्सव की परंपरा में उमंग व उल्लास में डूब जाते हैं।

इसके चलते जन—जन की आस्था की प्रतीक नंदा देवी लोगों के दिलों में एक लाडली बेटी की तरह है तो एक आराध्या भी। शनिवार को नंदा लोकजात यात्रा के निमित नंदा सिद्धपीठ कुरूड़ से बधाण तथा दशोली की उत्सव डोलियां गर्भगृह से कैलाश जाने को बाहर निकली तो लोगों की आंखें छलछला उठी।

नंदा के प्रति आस्था का ही द्योतक है कि सदियों से लोगों ने अपनी आस्था और परंपरा को लोकजात के बहाने जीवंत रखा है। वैसे भी दशोली, घाट, थराली, देवाल विकास खंडों के साथ ही बागेश्वर जनपद के लोगों का नंदा लोकजात से वर्षों से जुुुड़ाव रहा है। यानी लोकजात यात्रा के चलते चमोली का एक बड़ा हिस्सा लोकजात यात्रा का संवाहक बना रहता है।

नंदा लोकजात यात्रा के औपचारिक आगाज से ही गढ़वाल के लोग नंदा की सुध में खोने लगे हैं। अब जबकि सोमवार से लोकजात यात्रा का आगाज होने जा रहा है तो इससे पहले ही चमोली जिले के तमाम गांवों में गढ़वाल के प्रख्यात लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के नंदा पर आधारित गीतों की धुन भी सुनाई देने लगी है।

लोकजात यात्रा की औपचारिक शुरू आत होते ही गांव गांव जै, जै बोला जै भगोती नंदा, नंदा ऊं चा कैलाश की जै, जै बोला.., जै बोला….. के गीतों की धुन में रमने लगे हैं। नंदा लोकजात शुरू  होने जा रही है कि तेरू  चौसिंग्या खाडू…, तेरि छंतोली रिंगाल की जै….काली कुलसारी की, देवी उफरांई की… नंदा राज राजेश्वरी के गीतों की धुन पर नंदा के रंग में रंगने की शुरू आत होने लगी है।

नंदा की डोलियां जिन जिन गांवों से गुजरेंगी वहां देवी की मनौती में घौरे रौ घौरे रौ राणी बलंपा, तेरू  छ बालो जडीलो जी, बालो जडीलो संगैमा ली जौलु, मीं स्वामी संगैमा औलो जी…. के जागरों की प्रस्तुति से लोग भावविह्वल होकर रह जाएंगे। तब नंदा गौरा न मां की एक नी सुणी, पैटी गैन वापिस वींका नेजा निशाण… तथा तब बौड़क एगै नंदा अपणा कविलास कांठा, शंकर जी न देख्याल वींकी उमली घुमली मुखडी, तब पूछदा शंकर, क्या ह्वै गौरा झट्ट बौडी गै तू, मिन सोचे कुजाणी तू कथुगा दिन लगौंदी… जैसे जागरों से लोग खुदेड़ धुन में डूब जाएंगे।

इसी तरह नंदा की कैलाश यात्रा के तहत एक गांव से दूसरे गांव तक विदाई के जागरों की तैयारियों में भी महिलाएं जुट गई हैं। कन कैकि रैली नंदा तु तै कैलास, जब म्हार बि नी रिंगदा, मैत छोडिकि जाण ल्यैगे नंदा कैलास, पौछिक बख हमुतैं बिसरी ना.. आदि मार्मिक जागरों की प्रस्तुति से महिलाएं नंदा की विदाई के जागरों से अपने आंसुओं को नहीं रोक पाएंगी। इस तरह रहस्य व रोमांच तथा आस्था की यह लोक जात यात्रा समूचे हिमालय वासियों के लिए किसी कौतुहल से कम नहीं है। अब लोकजात यात्रा के आगाज से हिमालयवासी एक बार नंदा के आस्था पथ पर निकल पड़ेंगे।

इस तरह साल भर में आयोजित होने वाली छोटी जात अथवा नंदा लोकजात के कार्यक्रम को लेकर प्रवासी भी गांवों को पहुंचने लगे हैं। ध्याणियां (विवाहिता बहिने) भी अपने ससुराल से मायके आकर नंदा की कैलाश विदाई का गवाह बनेंगी। इस तरह आस्था और रोमांच की यह यात्रा हिमालय वासियों की सदियों पुरानी परंपरा को जीवंत रखने में मददगार भी बनेगी।

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