सुशील उपाध्याय
उनकी सुदीर्घ काया, सीने पर लहराती सफेद दाढ़ी, मोटे फ्रेम का चश्मा, लंबे डग भरते पांव और रौबीली आवाज सुनकर पहली निगाह में किसी भी छात्र को डर का अहसास होने लगता था। उनका नाम भी भारी भरकम था-भोपाल सिंह शर्मा पौलत्स्य! सिंह, शर्मा और पौलत्स्य, वे तीनों एक साथ थे।
सुबह की प्रार्थना में जब वे सभा का संचालन करते तो कुछ देर के लिए सब कुछ ठहर जाता, केवल गुरुजी की आवाज गूंजती। सभा के तुरंत बाद वे कक्षा में चले जाते और इंटरवल की घंटी लगने के बाद ही कुछ देर के लिए बाहर दिखते। थानाभवन कसबे के इंटर कॉलेज में मुझे दो बरस उनसे पढ़ने का मौका मिला। उनसे जुड़ी स्मृतियों की लंबी श्रंखला कई दिन से मन में घुमड़ रही है।
हमारे पाठ्यक्रम में रामचरित मानस का कुछ हिस्सा भी लगा हुआ था। पढ़ाते वक्त गुरुजी इतने भावुक हो जाते कि ऐसा लगता जैसे भगवान राम को नहीं, बल्कि उन्हें वनवास दिया गया हो। उनकी आंखों में आंसू के मोती चमकने लगते। वे पढ़ाते जाते और रोते जाते। यह सिलसिला इतना लंबा चलता कि अगला पीरियड भी उन्हीं के नाम हो जाता है और फिजिक्स या केमेस्ट्री वाले सर दरवाजे के बाहर टहलते रहते।
कक्षा में 50 से ज्यादा बच्चे थे। जिस कमरे में पढ़ाई होती, उसमें दो दरवाजे थे। कुछ बच्चे इतने बदमाश थे कि जिस वक्त गुरुजी डूबकर पढ़ा रहे होते, उस वक्त ज्यादातर बच्चे पिछले दरवाजे से बाहर निकल चुके होते थे। कक्षा के शुरु होने के वकत बच्चों की संख्या लगभग 50 होती थी, जबकि गुरुजी कक्षा समाप्त करते तो कुल जमा 10-12 बच्चे बैठे होते। पर, मैंने उन्हें एक दिन भी उन्हें बच्चों पर नाराज होते नहीं देखा। यह सिलसिला दो साल तक ऐसे ही चलता रहा।
उनका पहनाव बड़ा क्रांतिकारी था। वे किसी दिन केवल धोती पहनकर आते, बदन का ऊपरी भाग खुला रहता। उनके सफेद बाल गर्दन तक लटके होते। ऐसा लगता जैसे उनके बालों और दाढ़ी के बीच प्रतिस्पर्धा चल रही हो। इस प्रतिस्पर्धा में आखिर में दाढ़ी की जीत हुईं।
सिर के बाल घटते गए और दाढ़ी लंबी होती गई। उस पहनावे में वे किसी संत की प्रतिमूर्ति लगते। ठीक अगले दिन वे फिर अपने सहकर्मियों को चैंका देते और बंद गले का सूट पहनकर कॉलेज आते। बाकी दिनों में खादी का लंबा कुर्ता और पतली मोहरी का पाजामा ही उनकी पहचान होती। एक बार भी ऐसा नहीं हुआ, जब उनके पाजामे का नाड़ा अपनी सही जगह पर रहा हो, उनका नाड़ा हमेशा ही घुटनों तक लटकता रहता।
बदमाश बच्चे इस बात की कल्पना करते कि यदि कोई गुरुजी का नाड़ा पकड़कर खींच दे तो क्या होगा! पर, बच्चों की यह कल्पना कभी साकार नहीं हुई। उनकी नाड़ा स्थायी पहचान की तरह हमेशा लटकता रहा।
वे अक्सर अपने खोये रहते। घर से साइकिल पर आते और वापस जाते वक्त यह भूल जाते कि सुबह साइकिल से आए थे। वे पैदल ही घर पहुंच जाते।
घर पर पहुंचने के बाद उनकी सहधर्मिणी, जो कि खुद भी शिक्षक थीं, उन्हें याद दिलाती और वे अगले दिन साइकिल लेकर आने का वादा करते। कई बार ऐसा भी होता कि साइकिल उनके हाथ में होती, लेकिन उन्हें याद नहीं रहता कि साइकिल पर सवार होकर जाना चाहिए।
बाजार से गुजरते हुए, कोई उन्हें याद दिलाता, गुरुजी! साइकिल में कोई खराबी आ गई है क्या ? फिर उनकी लौकिक चेतना जागती और वे साइकिल पर सवार हो जाते। कॉलेज से लेकर घर पहुंचने तक रास्ते में उन्हें इतने लोग प्रणाम करते कि मेरे जैसे देहाती बच्चे के लिए आश्चर्य करना भी मुश्किल हो जाता।
शुरु के दिनों में उन्हें देखकर डर लगा। वे गुस्सेवाले लगते थे। उनसे पास जाने, बात करने, अपनी बात कहने, समस्या बताने से घबराहट होती थी। लेकिन, वक्त के साथ मुझे लगने लगा कि मेरी नियति जिसे तलाश रही है, वे वही हैं। उस बचपने में कुछ कविताएं लिखी थी, एक दिन वे उन्हें दिखाई।
उन्होंने कविताएं देखी और अगले दिन अपने घर आने को कहा। उनका घर कसबे को पार करके सहारनपुर-दिल्ली हाइवे पर एक सुनसान-सी जगह पर था। घर में दो ही प्राणी थे, गुरुजी और उनकी सहधर्मिणी। उन्होंने एक लड़की गोद ली हुई थी, जो उन दिनों कहीं बाहर पढ़ती थी।
गुरुजी का घर किसी औसत आदमी की समझ और समझने के पैमानों से परे थे। घर का पहला हिस्सा उनका स्टूडियो था, जहां वे पेंटिंग बनाते थे। इसके अगले हिस्से में उनकी लाइब्रेरी थी। फिर एक और कमरा था, जो कमरा कम, मंदिर ज्यादा था।
घर के अलग-अलग हिस्सों पर देवताओं की बड़ी प्रतिमाएं मौजूद थीं। कुछ कलाकृतियां भी यहां-वहां दिख रही थी। पूरा घर किसी संग्रहालय से कम नहीं था। मैंने, पहली बार ऐसा घर देखा था। मैं, आंखे फाड़े गुरुजी के घर को देखता रहा।
उस दिन भी रोज की तरह ही मुझे रात होने से पहले गांव लौटना था, आखिरी बस का टाइम भी नजदीक था। मैंने, जाने के लिए पूछा तो उन्होंने कहा, तुम गद्य अच्छा लिख सकते हो, अभी कविताएं मत लिखना। मुझे आज भी नहीं पता कि गुरुजी ने ऐसा क्यों कहा होगा, पर ज्यादातर लोग ये ही मानते हैं कि कविता की तुलना में मेरा गद्य ठीक है।
बीतते वक्त के साथ कसबे का इंटर कॉलेज छूट गया। रोजी-रोटी की जद्दोजहद यहां-वहां भटकाती रही। एक दिन पत्रकार-मित्र भाई राजन शर्मा ने बताया कि गुरुजी संन्यासी हो गए हैं और देश-दुनिया में घूम रहे हैं। मैं, हमेशा उन्हें याद करता रहा, जब किसी परिचित से मिलते तो वे भी मुझे याद करते।
फिर, एक दिन गुरुजी ने अपनी लौकिक-यात्रा पूरी कर ली। लेकिन, मेरे मानस में वे आज भी जिंदा हैं। कई बार मुझे लगता कि वे ही महात्मा रावण हैं। गुरुजी ने जब रावण की विद्वता को केंद्र में रखकर महात्मा रावण उपन्यास लिखा तो कई लोगों को समझ ही नहीं आया कि उन्होंने क्या लिख डाला।
असल में, वे अपने समय से आगे की रचना लिख रहे थे। उन्होंने रावण के उस पक्ष को उभारा, जो हिंदी जनमानस की समझ से परे था। इसके बाद उन्होंने महर्षि व्यास पर कृष्ण द्वैपायन और परशुराम पर परसुधर राम नाम से उपन्यास लिखे। बाद के दौर में उनके बारे में सोचता तो कई बार वे मुझे ओशो रजनीश जैसे लगते और कुछ मामलों में उनकी समझ और तर्कणा उन्हें जे. कृष्णमूर्ति के बरअक्स खड़ा करती।
उनका हिंदी के अलावा अंग्रेजी और संस्कृत पर भी समान अधिकार था। वे उतने ही अधिकार से पंजाबी और कौरवी बोलते थे। वे उस पीढ़ी के शिक्षक थे, जिनकी प्रारंभिक शिक्षा उर्दू में हुई थी। लोग कहते थे, वे एक दर्जन भाषाएं जानते थे, लेकिन मैंने छह भाषाओं में उनकी सिद्धहस्तता देखी थी।
राष्ट्र के प्रति उनका प्रेम किसी गिरोह का बंधुआ नहीं था, जब वे अपनी धुन में गाते तो ह्यवंदे मातरमह्य के जरिये अलग ही दुनिया की रचना करते। उनसे सुना हुआ वंदे मातरम आज कानों में गूंजता है। अच्छी बात यह थी कि 30 साल पहले का वंदे मातरम आज की तरह सांप्रदायिक चश्मे की गिरफ्त में नहीं था।
अब, जब भी कभी सहारनपुर से दिल्ली की ओर जाना होता है तो थानाभवन कसबे में उनके घर को देखकर मन तरल हो जाता है। गुरुजी अब इस घर में नहीं रहते, घर पर ताला लगा है। संभवतः उनकी दत्तक पुत्री भी किसी दूसरी जगह रहती होंगी। घर के ऊपर के हिस्से में भगवान शिव अब भी मौजूद हैं।
अक्सर मन के भीतर एक बेचैनी रहती है कि काश, एक बार फिर गुरुजी से मिलना हो पाता और मैं अपने छात्र-छात्राओं को दिखा पाता कि पूरे कद के गुरु कैसे होते हैं।