पृथ्वी का संरक्षण


‌ ‌सोनल मंजू श्री ओमर

पृथ्वी इकलौता ऐसा ग्रह है, जहाँ जीवन सम्भव है। जहाँ का वातावरण अनुकूल और प्रकृति सुगम और मनोरम है। मेरा मानना है कि प्रकृति से बड़ा कोई कलाकार नहीं होता हैं। प्रकृति जैसी चित्रकारी कोई नही कर सकता है। हरियाली, नदी, झरने, नहर का कलकलाता स्वर और पंक्षियों का कलवर करना क्या खूब मन को भाता है।

बारिश में मानो जैसे बुँदे धरती से मिलाप करना चाहती है। दोनों की जो जुगलबंदी है वही एक भीनी-भीनी सी खुशबू जीवित करती है। ये सब वैसा ही सुकून देती हैं जो हमे ईश्वर या माँ के पास मिलता हैं। प्रकृति में हर जीव का जहाँ एक तरफ अपना महत्व है वहीं दूसरी तरफ प्रकृति में उपलब्ध पानी, मिट्टी, हवा सीमित रूप से ही जीवन को पाल सकती है।

जिस तरह से प्रकृति सबको स्वतंत्र रूप से सब कुछ देती है वो ही अपेक्षा उसकी हम सबसे है, लेकिन प्रकृति के इस संदेश को समझने में हम चूक गए! अन्य जीव-जन्तु निश्चित रूप से अपने हिस्से का योगदान इन्हें पनपाने और बनाने के लिए करते हैं सिवाय मनुष्य के। पक्षी हो या जीव, पेड़ हों या पौधे सब प्रकृति को बनाए रखने में योगदान करते हैं।

सिर्फ मनुष्य ही है जिसने पारिस्थितिकी तंत्र को छिन्न-भिन्न कर दिया, इसलिए मनुष्य ही इस दंड का सबसे बड़ा भागीदार बना। हमने प्रकृति व प्रभु में अंतर कर दिया जबकि वो एक ही थे। जैसे प्रभु सबको देते हैं वो ही व्यवहार प्रकृति का है पर इन दोनों से ही हम यह नही समझ सके कि इनके इस व्यवहार को हमें अपनाना है, ताकि हम इसके लिए सबके साथ मिलकर जीवन-यापन करें।

किन्तु मनुष्य है कि जो किसी भी अच्छी, स्वच्छ, निर्मल वस्तु को अच्छा नहीं रहने देता, उसपे परीक्षण करके कुछ नया कृत्य करने की चेष्टा करता है। वह पर्यावरण को अपने जरूरत के अनुसार बदलने का कार्य करता है, जो कि प्रकृति को बर्दाश्त नहीं है जिसका परिणाम पूरा विश्व भोगता है और ये परिणाम – दुनिया भर में वनों की कटाई, बढ़ता ग्लोबल वार्मिंग, अपव्यय और भोजन, प्रदूषण, जनसंख्या वृद्धि, चक्रवात, महामारी, भूकंप, ओजोन परत में छिद्र इत्यादि जैसे पर्यावरणीय समस्याओं के रूप में देखे जा सकते है।
इन्ही सब समस्याओं को देखते हुए 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने पर्यावरण और प्रदूषण पर स्टॉकहोम (स्वीडन) में एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया था, जिसमें करीब 119 देशों ने हिस्सा लिया था। और फिर तभी से हर साल 5 जून को वार्षिक कार्यक्रम के रूप में “विश्‍व पर्यावरण दिवस” मनाया जाने लगा, ताकि लोगों को इसके प्रति जागरूक किया जा सके। मानव जीवन में स्वस्थ और हरित पर्यावरण के महत्व को बढ़ाया जा सके, सरकार, संगठनों द्वारा कुछ सकारात्मक पर्यावरणीय क्रियाओं को लागू करके पर्यावरण के मुद्दों को हल किया जा सके। पर्यावरण दिवस की हर साल एक थीम रखी जाती है, और हर साल अलग-अलग देश इस कार्यक्रम की मेजबानी करते है। इस साल की थीम ‘Only one Earth’ है, जिसका अर्थ है- सिर्फ एक पृथ्वी। इसीलिए इस बार पृथ्वी के प्रति सद्भावना व संरक्षण के तहत विचार विमर्श किया जाएगा और इस साल स्वीडन देश विश्व पर्यावरण दिवस की वैश्विक मेजबानी करेंगे।
पृथ्वी एक ही है और हम सब की है। इसीलिए इसके संरक्षण का दायित्व हम सब का है। हमें ये समझना होगा कि जिस प्रकार पृथ्वी में प्रदूषण, महामारियाँ फैल रहीं हैं तथा ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन हो रहा है, यह कहना सही होगा कि पृथ्वी को अगर आज हम सब मिलकर बचाने की कोशिश नहीं करेंगें तो एक दिन इस पृथ्वी में हमारे लिए रहना बहुत मुश्किल होगा।
पर्यावरण संरक्षण के लिए वैज्ञानिकों ने माना है कि पेड़ लगाना पर्यावरण की देखभाल के सबसे आसान और सर्वोत्तम तरीकों में से एक है। ये वो पेड़ हैं जो छाया के साथ-साथ गाड़ियों से निकल रहे प्रदुषण को सोख सकते हैं। इन पेड़ों में खासतौर से बरगद, पीपल व गूलर आते हैं जो परम्परागत रूप में भी प्रयोग होते रहे हैं। ये पहल प्रकृति को समझते हुए नए विज्ञान और ज्ञान से जुड़ने की है। यह योजना नजदीक भविष्य में पर्यावरण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होगी और सड़क निर्माण के साथ ही इस तरह के वृक्षारोपण नए विकास के साथ प्राणों की भी रक्षा कर सकेंगे। इसमें बड़ी बात यह भी है कि पुराणों में इन्हीं वृक्षों का पर्यावरण पर योगदान भी दर्शाया गया है। पारिस्थितिक तंत्र को अनुकूलित और पुनर्स्थापित करने के लिए शहरी और ग्रामीण परिदृश्य में अलग-अलग तरीके हैं। लोगों को पर्यावरण पर दबाव को भी खत्म करने की जरूरत है।
प्रकृति के संदर्भ में देखे तो कोरोना महामारी एक बात स्पष्ट कर दी है कि ‘दुनिया एक है’, हम सब एक है, हमारी समस्याएं भी एक है। क्योंकि इस संकट की घड़ी में किस प्रकार सारी दुनिया एक साथ खड़ी होकर एक-दूसरे का साथ देने के लिए तैयार हो गई। तो फिर क्या यही जज़्बा, जोश और इच्छा शक्ति हम पर्यावरण बचाने के लिए ज़ाहिर नहीं कर सकते! देखा जाए तो यह महामारी मानव जाति के लिए तो त्रास किंतु प्रकृति के लिए कहीं-न-कहीं लाभकर ही सिद्ध हुई है।क्योंकि इसके चलते मानवीय क्रियाएं ठप्प पड़ गई और जिसका प्रत्यक्ष लाभ प्रकृति को मिला। वातावरण स्वच्छ और निर्मल हो गया। पानी, नदियाँ, हवा, जंगल, भूमि एवं पूरा पर्यावरण खिलखिला उठा। हवा शुद्ध होने से आसमान भी साफ हो गया। पक्षियों का कलरव दुबारा गूंजने लगा। सड़कें काफी हद तक प्रदूषण रहित हो गई, क्योकि वाहनों से निकलनेवाले धुएं और उनके हॉर्न में कमी आयी। इसीप्रकार हमें विश्वास है कि यदि हम सब प्रयास करें, प्रकृति के प्रति सद्भावना रखें तो इस क्षतिग्रस्त पर्यावरण के अंधकार को हम स्वच्छ और हरे-भरे वातारण से मिटा देंगे। आज जब हम घरों में बैठे हैं तो हमारे पास सलीके से सोच-विचार, चिंतन करने का पर्याप्त समय है। हमारे पास भावी पर्यावरण व पारिस्थितिकी तंत्रीय खतरों से निपटने के लिए, आज यह उपयुक्त समय है जब हमें प्रकृति के लिए कुछ करने की जरूरत है, नही तो हमें इसके खतरनाक परिणाम जरूर देखने को मिलेंगे।

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