सुशील उपाध्याय
बस में बमुश्किल सात-आठ सवारी थीं। मेरे सवार होने से एक नंबर और बढ़ गया। खिड़की पर पांव रखा ही था कि ड्राइवर ने लगभग चेतावनी भरे अंदाज में कहा, जल्दी वाले न बैठें। बस अपनी रफ्तार से चलेगी। हालांकि, मेरे दिमाग में ये सवाल था ही नहीं, फिर भी ड्राइवर ने अग्रिम चेतावनी देकर मेरी उस उद्विग्नता को शुरू होने से पहले ही खत्म कर दिया जो बाद में पैदा हो सकती थी।
ड्राइवर के सिर के सामने शीशे के ऊपर भी साफ-साफ लिखा हुआ था कि ‘जिन्हें जल्दी है, वे चले गए हैं। इस दार्शनिक किस्म के वाक्य के साथ ही ये भी दर्ज था, ‘देर से आप आए हैं, हम समय पर चल रहे हैं, जल्दी न करें, घर सुरिक्षत पहुंचेंगे। चूंकि, मुझे काॅलेज से घर ही जाना था इसलिए कोई खास जल्दी नहीं थी।
ड्राइवर के मिजाज और उसके आसपस लिखे ‘आप्त-वचनों’ के बाद ये बात भी मेरी समझ में ठीक से आ गई थी कि इस टूरिस्ट सीजन में जब हरिद्वार-देहरादून के बीच दौड़ने वाली बसों में पांव रखने की जगह नहीं है, तब इस बस में सवारियों की संख्या गिनी-चुनी क्यों है!
ड्राइवर के अंदाज-ए-बयां के अलावा उनका हाव-भाव भी ध्यान खींच रहा था। उनके सिर ऊपर ब्रह्मकुमारीज संप्रदाय की सफेद रंग की टोपी सजी हुई थी जिस पर बड़े-बड़े शब्दों में ‘ओम शांति’ लिखा हुआ था। ड्राइवर की मूंछ जरूरत से ज्यादा बड़ी थी, बल्कि ये कहना चाहिए कि दाढ़ी को इस तरह सेट करवाया हुआ था कि मूंछों का आकार सामान्य से अधिक लगे।
इस तरह की मूंछ पुलिस विभाग में अक्सर मिलती हैं क्योंकि वहां मूंछ रखने के लिए अलग से 50 रुपये माहवार भत्ता भी मिलता है, लेकिन परिवहन विभाग में ऐसी कोई व्यवस्था है, इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है।
ड्राइवर की मूछों की तुलना डाकू वीरप्पन से करना भी ठीक नहीं है क्योंकि ड्राइवर असामाजिक आदमी नहीं था, अपनी ड्यूटी के प्रति अतिरिक्त रूप से सचेत था और उनके भक्ति-मार्गी होने का भी साफ पता चल रहा था।
बस की साफ-सफाई भी सामान्य से ज्यादा थी। ये मोर्चा कंडक्टर ने संभाला हुआ था। जैसे ही कोई नई सवारी आती, कंडक्टर ताकीद करता, बस में कोई कूड़ा नहीं डालेगा। खाने-पीने के बाद के कचरे को अपने पास संभालकर रखें, बाहर जाकर डाल दें। बसों में घूम-घूम के खाने-पीने और दूसरे सामान बेचने वालों की तो मजाल ही नहीं थी कि वे अंदर घुस सकें।
कंडक्टर भगवे रंग की टी-शर्ट पहनी हुई थी, आजकल इसी रंग का फैशन है, जिस पर कई तरह के निशान दिख रहे थे। संभवतः बस को साफ-सुथरा रखने की कोशिश के दौरान उनका इस तरफ ध्यान ही नहीं गया होगा। टी-शर्ट लगभग शर्मिंदा लग रही थी क्योंकि वो कंडक्टर के पेट को ठीक से ढक नहीं पा रही थी। नाभि से थोड़ा ही नीचे तक ठिठकी हुई थी।
उसके नीचे सफेद बनियान अपनी पूरी क्षमता के साथ पेट को उघड़ने से बचाने की कोशिश में लगा था। पेट इतना बड़ा था कि पैंट इस बात से डरी हुई थी कि कहीं वो अपनी जगह से डिग न जाए।
बेतरतीब बढ़ी खिचड़ी दाढ़ी, उलझे हुए बाल और टीशर्ट से पूरह तरह मिस-मैच गमछा एक ऐसी छवि पेश कर रहा था कि उसके लिए कोई ठीक उपमा ढूंढना मुश्किल था। कंडक्टर ने जैसे ही सवारियों से संवाद शुरू किया था तो आवाज की मिठास और सलीके ने मुझे फिर हैरत में डाल दिया। उन्होंने एक-एक सवारी के पास जाकर पूरे इत्मीनान से टिकट बनाने का उपक्रम पूरा किया।
ये सब कार्यक्रम गाड़ी के रवाना होने से पहले पूरा हुआ। फिर ड्राइवर की आवाज गूंजी-
‘चलैं, रामपाल!’
‘जी, भाई जी, चलो।‘
ड्राइवर ने पुर-बुलंद आवाज में ‘ओम शांति’ का उच्चाकरण किया और बस चल पड़ी। ऐसा लगा, जैसे ये बस 50 किलोमीटर की बजाय कई हजार किलोमीटर की दूरी के लिए रवाना हुई है। इसके बाद रास्ते में यदि किसी ने अपने घर के बाहर खडे़ होकर भी बस को हाथ दे दिया तो ड्राइवर ने वहीं बस रोक ली। सवारियों का कुढ़ना अपनी जगह जायज था, लेकिन दोनों इतने भले थे कि जिसने जहां कहा, वहीं बस रोकी। चाहे सवारी बैठानी हों या उतारनी हों। हालांकि, दोनों के मूल वाक्य नहीं बदले कि जल्दबाजी न करें और बस को गंदा न करें।
ड्राइवर के ठीक पीछे बैठे एक दंपति इस बात से नाखुश थे कि जो दूरी लगभग एक घंटे में तय होनी थी उसमें दो घंटे से ज्यादा वक्त लगने की स्थितियां बन रही थीं। दंपति ने जैसे ही बस की गति के बारे में कुछ कहा, ड्राइवर ने बस रोकी और दो से तीन मिनट तक उन्हें समझाया कि बस तेज गति से क्यों नहीं चलाई जाएगी। इस उलझन में दंपति उस जगह से काफी आगे आ गया, जहां उन्हें उतरना था। वे नाराज होते इससे पहले ड्राइवर ने बस को सड़क किनारे रोककर कंडक्टर को संबोधित किया-
‘अरे, रामपाल! जा साहब को टेंपो पकड़ा दे। ज्यादा आगे नहीं आए, पांच मिनट में पहुंच जाएंगे।‘‘
जी, भाई जी, कहकर कंडक्टर ने दंपति का सामान उतरवाया और टेंपो बुलाकर उन्हें पीछे की ओर रवाना किया ताकि उस जगह पहुंच सकें, जहां उन्हें उतरना था। कंडक्टर और ड्राइवर के बीच फिर संवाद हुआ-‘सवारी भी एक से एक बावली आवे रामपाल। उतरना कहां था, उतरे कहां!
‘‘यू तो रोज का ही काम है भाई जी!‘ कंडक्टर ने जवाब दिया। फिर दोनों हंस पड़े।
आखिरकार बस देहरादून शहर में प्रवेश कर गई। सवारियों में मंजिल पर पहुंचने की खुशी रही होगी, ऐसा मुझे लगा।
जब मैं उतर रहा था तो कंडक्टर ने चेताया-‘जल्दी न करो। बस कहीं उड़ी नहीं जा रही है। गिर जाओगे, चोट लग जाएगी।‘एक पल के लिए गुस्सा आया, लेकिन फिर मैंने दोनों को देखा और गुस्सा हवा हो गया। और लगा, पात्र ढूंढने के लिए कहीं बाहर नहीं जाना होता, वे हमारे आसपास ही होते हैं। लगभग बगल में बैठे हुए।