- जोर लगाने के बावजूद संक्रमण काल से उबर नहीं पा रही पार्टी
- पार्टी के अंदर स्यापा, विद्रोह, शोक काल का माहौल
वीरेंद्र सेंगर
नई दिल्ली। देश की सबसे बड़ी राष्ट्रीय विपक्षी पार्टी कांग्रेस पूरा जोर लगाने के बावजूद संक्रमण काल से उबर नहीं पा रही है। वह बार-बार सियासी भंवर में गोता लगाने लगती है। पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव से इस पार्टी की तमाम उम्मीदों को जोर का झटका लगा है। दस मार्च को ही चुनाव परिणाम आए थे। इसके बाद से पार्टी के अंदर स्यापा, विद्रोह, शोक काल का माहौल बना हुआ है।
पार्टी के प्रथम यानी नेहरू-गांधी परिवार की क्षमताओं पर भीतर-बाहर तमाम सवाल है। संघ परिवार को भी बढ़िया अवसर मिला है। इसके तमाम बहुरूपिया घटक भी जमकर सियासी विष वमन कर रहे हैं। वे निराश हो चुके कांग्रेसियों को परिवार के खिलाफ भड़का भी रहे हैं। पार्टी के अंदर साफ्ट हिंदुत्व की पक्षधर लॉबी भी नए सिरे से तोड़क अभियान के लिए सक्रिय है। लेकिन इस चुनौती से पार पाने के लिए प्रथम परिवार ने जुझारू तेवर दिखाए हैं। खासतौर पर सोनिया गांधी ने संवाद थैरेपी की पहल करके पार्टी में संभावित बिखराव को रोकने की जोरदार पहल जरूर की है।
अब ये देखना है कि इस पहल से पार्टी हालिया संकट से किस हद तक उबरती है? उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, गोवा में विधानसभा के चुनाव संपन्न हुए हैं। कांग्रेस नेतृत्व को पक्का विश्वास था कि पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में सरकार बनाने लायक बहुमत जरूर मिल जाएगा। उत्तरप्रदेश में उसे ज्यादा सीटें तो नहीं मिलेंगी, लेकिन वोट शेयर में हिस्सेदारी कम से कम 15 फीसदी की हो जाएगी। क्योंकि पूरे चुनाव अभियान की कमान यहां प्रियंका गांधी वाड्रा ने बड़े प्रभावशाली ढंग से संभाल रखी थी।
सीमित कैडर के बावजूद उनकी रैलियों में खासी भीड़ जुटती थी। प्रियंका लगातार जुझारू तेवर में रहीं। उन्होंने अपनी जबरदस्त वाकपटुता से पार्टी के पक्ष में माहौल जरूर तैयार किया था। लेकिन उनकी सारी मेहनत लगभग परिणाम हीन रही। पार्टी को 403 में से महज दो सीटें मिल पायीं। वोट शेयर लुढ़क कर ढाई प्रतिशत के करीब रह गया। यह पार्टी की अब तक की सबसे रिकॉर्ड शिकस्त रही। बाकी चार राज्यों में भी वह विफल रही। तमाम उम्मीद के बाद भी पंजाब में सत्ता वापसी नहीं कर सकी।जबकि, पंजाब को छोड़ कर बाकी सभी राज्यों में भाजपा की जीत का परचम एक बार फिर लहरा गया।
खासतौर पर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में उसे आशातीत सफलता मिल गई। इस तरह उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में वह दोबारा सत्ता में लौट आयी। इस परिणाम से भाजपा के शिखर पुरुष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सियासी चमक और बढ़ गई है। दबंग छवि वाले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और मजबूत हो गए हैं। उत्तरप्रदेश के दोबारा मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यनाथ पूरे तौर पर बम-बम हो गए हैं। वे पार्टी में हिंदुत्व ब्रांडमाने जाते हैं। अब उनका सियासी कद और बढ़ा है।
उनके चहेते योगी जी को गर्व से बुलडोजर बाबा कहने लगे हैं। बाबा का बुलडोजर यानी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का भगवा एटीएम।संघ के लोग कई मायनों में मोदी जी से ज्यादा योगी जी को पसंद करते हैं। संघ की मजबूत लॉबी यह जन अवधारणा बनवा रही है कि मोदी के बाद योगी ही दिल्ली की गद्दी संभालेंगे। राजनीतिक हलकों में कयास लगाए जा रहे हैं कि योगी जी की ये महत्वाकांक्षा अमित शाह की महत्वाकांक्षा से जरूर टकरायेगी। इससे शायद विपक्ष को कुछ फायदा मिले।
फिलहाल, ऐसे कोई संकेत नहीं हैं। क्योंकि योगी भी अब तक पक्के उस्ताद बन गए हैं। शाह तो पहले से ही पार्टी और सरकार में घाघ लौहपुरुष माने जाते हैं। वे शपथ समारोह काल में योगी की जमकर सराहना करते नजर आए। दो साल बाद यानी 2024 में लोकसभा का चुनावी रण होना है। तब तक भाजपा की रामगंगा में भी बहुत पानी बहना है। फिलहाल, कांग्रेस की बात पर लौटते हैं।
करारी ताजा हार के बाद कांग्रेस में एक बार फिर अंदरूनी रार बढ़ गई है। सालों से रूठा कुनबा जिसे जी-23 के नाम से जाना जाता है, वो फिर जोश में आया है। अपनी इस मांग पर जोर देने लगा है कि शीर्ष स्तर पर पार्टी का ढांचा दुरुस्त किया जाए, वरना मोदी, मिशन कांग्रेस मुक्त भारत में सचमुच सफल हो सकता है। कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आजाद, मनीष तिवारी जैसे सितारे जी-23 का विद्रोही झंडा उठाए रहे हैं। अब इसमें केरल से चर्चित सांसद शशि थरूर जैसे नए किरदार भी शामिल हो गए हैं। उन्होंने प्रथम परिवार पर तीखे कटाक्ष वाले कई ट्वीट भी किए। शीर्ष नेतृत्व पर तंज कसा।
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा मजबूत जाट नेता हैं। एक दौर में प्रथम परिवार के एक खास वफादार नेता रहे हैं। उनके सांसद पुत्र दीपेंद्र हुड्डा यद्यपि राहुल गांधी की टोली में हैं। लेकिन उनके पिताश्री जी-23 में सक्रिय रहे हैं। यह अलग बात है ये दोनों नावों में पैर रखे रहते हैं। पिछले दिनों वे गुलाम नबी आजाद के निवास में हुई जी-23 की बैठक में भी थे। जहां कपिल सिब्बल जैसे नेता खुलकर विमर्श करते रहे कि समय आ गया है कि पार्टी गांधी-नेहरू परिवार के नेतृत्व से मुक्त हो। वर्ना डूब तय हैं।
मजेदार बात है कि इस बैठक के अगले दिन ही हुड्डा दस जनपथ में आशीर्वाद लेने पहुंच गए।
सोनिया गांधी से उनका विमर्श हुआ। सोनिया गांधी ही पार्टी की लंबे समय से अंतरिम अध्यक्ष हैं। बीमारी और बुजुर्गियत के चलते वे ज्यादा सक्रिय नहीं रह पातीं। वे काम चलाऊ भूमिका में हैं। लेकिन वंशवादी परंपरा में वे दस जनपथ वाली महारानी ही हैं। लंबे समय से चर्चा चलती रही है कि राहुल गांधी फिर से पूर्णकालिक अध्यक्ष पद संभाल लें। वैसे वे बगैर पद के लगभग इसी भूमिका में माने जाते हैं। उल्लेखनीय है कि 2019 में मोदी की प्रचंड सत्ता वापसी के बाद, उन्होंने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। एलान भी किया था कि अब उनके परिवार से कोई सदस्य यह जिम्मेदारी नहीं लेगा।
पार्टी नया अध्यक्ष बाहर से चुन ले। महीनों तक राहुल की मान-मनौव्वल का स्यापा होता रहा। चिरौरी होती रही। अंतत: सोनिया गांधी ने अंतरिम अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी ली, ताकि पार्टी बिखरने से बची रहे। संकेत यही दिए गए थे कि यह निहायत अस्थाई व्यवस्था महज कुछ महीनों के लिए है। लेकिन ऊहापोह जारी रहा। राहुल गांधी हिम्मत नहीं जुटा पाए। वे पूर्व अध्यक्ष की औपचारिक हैसियत से ही काम करते आए।
यानी बगैर अध्यक्ष बने वे बॉस बने रहे। तीन साल होने को आए हैं, यही स्थिति कायम है। इस बीच उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा जरूर राष्ट्रीय महासचिव बन कर खासी सक्रिय हो गई हैं। उत्तरप्रदेश की प्रभारी के रूप में वे खूब संघर्षरत रहीं। उनके चमकदार और दमदार नेतृत्व से पार्टी को तमाम उम्मीदें रही हैं। फिलहाल, उत्तरप्रदेश में उनको सफलता नहीं मिली। इसके बावजूद उनकी मोहिनी शैली से खासी उम्मीद की जा रही है।
पार्टी के अंदर फिर से जी-23 की सक्रियता बढ़ने के बाद दस जनपथ भी सक्रिय हुआ है। वहां अनौपचारिक संवाद के दौर शुरू हुए हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ सूत्रों ने जानकारी दी है कि प्रथम परिवार ताजा चुनावी झटके के बाद कुछ ज्यादा समझदारी दिखा रहा है। विद्रोही कुनबे के प्रति उसका रुख अब टकराव का नहीं है। संवाद की प्रक्रिया शुरू की गई है। सोनिया गांधी संवाद कर रही हैं।
पार्टी के संकट काल की दुहाई दे रही हैं। भरोसा दे रही है कि सितंबर-अक्टूबर तक पार्टी को पूर्णकालिक अध्यक्ष मिल जाएगा। पार्टी अपनी सेकुलर नीतियों पर ज्यादा अडिग होगी। देश को संघ परिवार के सांप्रदायिक जहर से बचाने के लिए जो कुबार्नी जरूरी होगी उस पर सब मिल बैठकर तय करेंगे।
पिछले महीने सोनिया गांधी दो बार गुलाम नबी आजाद से मुलाकात कर चुकी हैं। इन मुलाकातों के बाद आजाद भी उदार हुए हैं। उन्होंने कह दिया है कि नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व पर सवाल ही नहीं है। इस परिवार का बलिदान पार्टी की थाती है। एक दौर ऐसा आया था, कि जब कयास लगने लगे थे कि आजाद शायद भगवा हो जाएं। क्योंकि राज्यसभा में विदाई के वक्त प्रधानमंत्री मोदी ने आजाद की तारीफ के पुल बांध दिए थे। उसके जवाब में आजाद ने प्रधानमंत्री की बेमिसाल लोकप्रियता की जमकर दुहाई दी थी।
यह भी कहा कि था कि उनके नेतृत्व में देश ने प्रगति की रफ्तार पकड़ी है। इसके बाद कयासों के दौर शुरू हो गए थे। बाद में आजाद को पदम-भूषण सम्मान का एलान हुआ। इससे अटकलें और बढ़ीं। आजाद ने राष्ट्रपति के हाथों पदम सम्मान ले भी लिया है। लेकिन अब उनके स्वर बदल गए हैं। वे जी-23 से कुछ दूरी बना रहे हैं। यहां तक कह दिया है कि वे सक्रिय राजनीति की बजाय अब समाज सेवा करना चाहते हैं।
यह जरूर है कि आजाद को राहुल गांधी से ज्यादा नेतृत्व ऊर्जा प्रियंका गांधी वाड्रा में दिखने लगी है। आफ द रिकॉर्ड बातचीत में वे मीडिया से इस तरह की गुफ्तगू करने लगे।
इसी के साथ ये भी कह रहे हैं कि राहुल गांधी भी अब पहले के मुकाबले ज्यादा परिपक्व हैं। सेक्यूलर राजनीति के लिए भी वे अडिग हैं। बहुत साहसी भी हैं। थोड़ा समन्वय की उदारता और दिखा लें, तो पार्टी और मजबूत हो सकती है। अच्छे संकेत यही है कि अपनी मंडली के तमाम उकसावे के बावजूद राहुल के तेवर भी जी-23 के प्रति नरम हैं।
उनकी मंडली की एक सितारे ने कपिल सिब्बल जैसे विघ्नसंतोषी नेताओं को पार्टी से हटाने की खुली मांग की थी। जाहिर है, ऐसे बयानों से बिखराव की आग और भड़कती। खबर है कि अपने इस चंपू को राहुल ने कई नेताओं के सामने लताड़ लगा दी। यह कहा कि समय तिनका-तिनका जोड़ कर पार्टी को मजबूत करने का है। पार्टी को कमजोर करने की कोई पहल अनुशासनहीनता है।
यह भी बताया कि तमाम रूठे नेताओं को मनाने के लिए प्रियंका गांधी भी सक्रिय हैं। जी-23 भी पार्टी को बांटने की हिम्मत नहीं कर पा रहा। पार्टी के एक राष्ट्रीय महासचिव ने अनौपचारिक संवाद में कहा जी-23 के लोग भी हमारे अपने हैं। वरिष्ठ पदों पर रहे हैं। वे भी पार्टी में बिखराव नहीं चाहते। ज्यादातर तो राज्यसभावाले हैं। निजी जनाधार नहीं है। वे भी जन्नत की हकीकत जानते हैं।
लोकसभा 2024 के चुनाव के पहले गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश सहित 11 राज्यों में चुनाव हैं। भाजपा ने तो गुजरात का किला बचाने के लिए अभियान भी शुरू कर दिया है। पिछली बार कांग्रेस ने यहां जोरदार टक्कर दी थी। किसी तरह मोदी जी ने अपने कौशल से लाज बचा ली थी।
राजनीतिक प्रेक्षक जानते हैं कि किस हुनर से भाजपा ने वहां सत्ता वापसी की। गुजरात में सत्ता के खिलाफ अब जोरदार रुझान माना जा रहा है। ऐसे में कांग्रेस के हौसले बुलंद हैं। लेकिन इस बार वहां अरविंद केजरीवाल की पार्टी आप ने भी मुकाबले की ठानी है। उसने भी जोरदार तैयारी शुरू कर दी है। पिछले दिनों उसे पंजाब में बड़ी सफलता मिल चुकी है। उसने वहां कांग्रेस को जोरदार मात दे दी है। इससे उनका हौसला काफी बढ़ा है।
राजनीतिक प्रेक्षकों का आकलन है कि आप गुजरात में भी कांग्रेस का खेल खराब कर सकती है। क्योंकि केजरीवाल महाशय! मोदी जी और शाह पर तमाम राजनीतिक हुनर में भारी पड़ते हैं। चाहे जुमलेबाजी हो, या हसीन सपनों की बाजीगरी हो। जबकि राहुल गांधी केवल मोदी विरोध की लाठी उठाए रहते हैं। बाकी सवालों पर वे अपनी प्रतिभा निखार नहीं पाते। जबकि मुकाबले में मोदी-शाह की जोड़ी ज्यादा जादूगर है। लोकसभा चुनाव से पहले 11 राज्यों में भी कांग्रेस को अग्नि परीक्षा देनी है।
कश्मीर फाइल्स का जहर!
चुनाव परिणामों के अगले दिन यानी 11 मार्च को ही कश्मीर फाइल्स फिल्म रिलीज हुई थी। इस फिल्म ने देश के बड़े हिस्से में तहलका मचा रखा है। 1990 के दौर में कश्मीरी पंडितों का बड़ी संख्या में पलायन हुआ था। आतंकवाद का नंगा नाच हुआ था। तमाम पंडित सताए गए। मारे गए। यह शर्मनाक रहा। इसकी व्यापक निंदा उस दौर में भी हुई थी। लंबे समय से कश्मीरी पंडितों की जहालत की कहानियां आती रही हैं। अब 32 साल बाद इस फिल्म के जरिए वो निर्मम दौर याद दिलाया गया है। वो भी खौफनाक इरादे से। लगभग अनजाने निदेशक विवेक अग्निहोत्री ने फिल्म बनाई है। इसमें अनुपम खेर जैसे सिने सितारे हैं। अनुपम तो सालों से भगवा रंग में रंगे हैं। वे लोकलाज की परवाह भी नहीं करते। सरकार की चापलूसी के रिकॉर्ड बनाते रहते हैं। यह फिल्म एक खास सियासी एजेंडा के तहत बनी लगती है।
इसमें कश्मीरी पंडितों पर खौफनाक हिंसा के बर्बर दृश्य दिखाए गए हैं। ऐसे कि बार-बार दिल दहल जाए। कुछ इस तरह की अवधारणा पुष्ट की गई है कि ये सब स्थानीय मुसलमानों ने किया है। हिंसा और यातना से कोई इनकार नहीं कर सकता। लेकिन यह आधी हकीकत है। दस्तावेजी प्रमाण है कि तमाम मुस्लिम परिवारों ने जान-माल का जोखिम लेकर पंडित परिवारों को बचाया भी था। लेकिन पाकिस्तानी संरक्षण वाले आतंकवाद के सामने स्थानीय सुरक्षा बल पिद्दी साबित हुए थे। उस दौर में केंद्र में वीपी सिंह की सरकार थी। जो कि भाजपा और वाम दलों के समर्थन से चल रही थी। जम्मू-कश्मीर में धुर संघी विचारधारा वाले जगमोहन राज्यपाल थे। राष्ट्रपति शासन लागू था। ऐसे में जगमोहन की ही सत्ता थी। वे ज्यादा गन पावर इस्तेमाल के खिलाफ थे। ऐसे में लाखों पंडित परिवारों को पलायन करना पड़ा था। इस हकीकत को फिल्म में बढ़ा चढ़ा कर दिखाया गया है। सरकारी रिकॉर्ड है कि उस दौर में 1835 हत्याएं हुई थीं।
इनमें से 1535 मुस्लिम थे। फिल्म ने जानबूझ कर यही अवधारणा बनाई, जैसे ये कुकृत्य कांग्रेस के शासन में हुए थे। यह तथ्य नहीं दिया गया कि केंद्र में भाजपा के समर्थन वाली सरकार थी। जगमोहन की नियुक्ति आडवाणी और अटल जी की जैसे दिग्गज नेताओं की सिफारिश पर हुई थी। भाजपा को इतना ही दर्द था, तो इस मुद्दे पर वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस क्यों नहीं लिया था? इस हकीकत पर फिल्म चुप रहती है संघ परिवार के प्रोजेक्ट की तरह इस फिल्म को सांप्रदायिक नफरत का हथियार बनाया है। यदि ये प्रयोग है तो हिट जरूर है।