यूपी: इतिहास रचने के पीछे का “जादू” !

37 साल बाद भाजपा ने दोबारा सत्ता में आकर रच दिया इतिहास

  • कई चुनौतियों के बीच भी स्मार्ट रणनीति बनाकर भाजपा ने जीती बाजी

घनश्याम दुबे, वरिष्ठ पत्रकार। 
प्रदेश के हालिया विस चुनावों  में भाजपा ने इतिहास रचा है!  इसकी कहानी काफी राजनीतिक तिलिस्म जैसी है। हवा कुछ और लगती थी, पर हुआ कुछ और। इस हवा और वस्तुतः  होने के बीच का किस्सा सिर्फ चुनावी राजनीतिक कौशल का है, जिसमे भाजपा सिर्फ सफल ही नहीं हुई, बल्कि उसने एक इतिहास रच दिया 37 साल बाद। जो 37 सालों में अब तक नहीं हुआ था , वह इस बार हो ही गया….
चुनावों से पहले प्रदेश की चुनावी हवा यह संकेत तो दे ही रही थी कि 2022, 2017 की तरह तो नहीं ही होगा। पांच साल में किसी भी सरकार के खिलाफ जो एंटी इनकंबेंसी होती ही है, वह योगी सरकार के खिलाफ कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में थी। कारण कई थे। कुछ बड़े और कुछ वोटर को भाजपा से दूर करने के। गांव की पगडंडी से ले कर शहर और राजधानी तक। लग तो यही रहा था कि भाजपा की डगर इस बार सीधी और उतनी सपाट नहीं है , जितनी 2017 में थी। थी भी नहीं, यह चुनाव परिणाम बताते हैं। बिगड़ी बात को कैसे बना लिया जाए, यह भाजपा नेतृत्व जानता था और उसने चुनावी उबड़ खाबड़ रास्तों को काफी समतल बना भी दिया !
भाजपा किसान आंदोलन, लखिमपुर और हाथरस की दुर्घटनाओं की जो भी स्थिति और प्रभाव हो सकते थे, उसका आकलन उसे था।उसको खत्म करने की रणनीति में चुनावों की अधिसूचना जारी करने के काफी पहले जुट गई थी। चुनावी समीक्षकों को लग रहा था कि चुनाव के पहले दो चरणों में भाजपा बुरी तरह पिटेगी और सपा गठबंधन काफी आगे होगा।

पर परिणाम बताते हैं कि ऐसा पूरी तरह नहीं हुआ, उस शिद्दत से नहीं हुआ, जो सपा चाहती या देख रही थी या बड़े से बड़े समिछक न्यूज पोर्टलों पर दावे कर रहे थे। आंकड़ों में पिछले चुनावों या वर्तमान चुनाव में बहुत ज्यादा जाने की जरूरत नहीं है। अब वह हर जगह उपलब्ध हैं।
जिस हवा पर सपा गठबंधन सवार था और रैलियों में लग भी रहा था कि इस बार मामला भाजपा के विपरीत है और प्रमुख प्रतिद्वंद्वी सपा गठबंधन के सामने ऐसा चुनाव मैदान है, जो उसे सत्ता के करीब या सत्ता तक पहुंचा सकता है।

ऐसे में भाजपा अपनी रैलियों में रणनीतिक रूप से सपा से भी ज्यादा आक्रामक हो गयी और चुपचाप चुनाव जीतने के सभी ताने बाने बुनने में जुट गई। सपा के पास पूरा जोश था, पर वह भाजपा के चुनावी होश को भांप नहीं पाई। सपा के पास भरपूर चुनावी होश और ताने बाने का जिताऊ समीकरण उतना नहीं था, जितना निश्चित जीत दर्ज करने के लिए जरूरी था।
भाजपा और सपा दोनों के गठबंधन थे, पर दोनों में किसी ने भरपूर क्लिक किया हो, ऐसा दिखा नहीं। इस मामले में दोनों फिफ्टी फिफ्टी ही साबित हुए। फिर अंतर कहाँ था..! यह अंतर बसपा का जाने अनजाने व्यूह रचना का था। उसने जातीय आधार पर वही प्रत्याशी उतारे कई विस सभा छेत्रों में, जो सपा ने उतारे थे। ऐसी करीब 90 सीटें थीं। इतना ही नहीं, बसपा सुप्रीमो मायावती का अपने भाषणों में नम्बर एक दुश्मन सपा और कांग्रेस थी। भाजपा को भी वह उसी कतार में रख तो रही थी, पर दबे मन से।

ऐसे में उसी जाति विशेष के प्रत्याशियों के वोटरों ने काफी साथ सपा का दिया और मायावती की बसपा को नहीं। लेकीन यह साथ पूरा नहों था ,जितना होना चाहिए था।ऐसे में जाति विशेष के बचे वोटरों में काफी बसपा के साथ न जाकर भाजपा को अनचाहे रूप से साथ दिया होगा, ऐसा अब साफ लगता है। बसपा के बुरी तरह घटे मत प्रतिशत और सिर्फ एक सीट मिलना ,इस बात को मजबूत ही करता था।

कोई भी ऐसी पार्टी जिसकी प्रदेश में कम से कम चार बार सरकार रही हो, वह ऐसा आत्मघाती रवैया अपना सकती है, अमूमन राजनीति की किताबों में नहीं मिलता। पर हुआ कुछ ऐसा ही है…
भाजपा का इस बार कमजोर परसेप्शन के बावजूद अगर मत प्रतिशत कुछ बढ़ता है तो कहां से!इसी बढ़े मत प्रतिशत ने भाजपा को सत्ता दे दी लगातार दोबारा और सपा आधे रास्ते ही ठिठक कर खड़ी हो गयी।
इसमें एक बात और है। 2022 में भी भाजपा का कोर वोट बैंक उसी के साथ ही रह। या उस कोर वोटर के साथ उसे नया वोटर भी मिला! इसका साफ कारण यह था कि भाजपा के सवर्ण वोटर थोड़ी बहुत नाराजगी के बावजूद भी जाता कहाँ! सपा के वोट बैंक में सवर्ण वोटर सहज रूप से जाने की स्तिथि में अमूमन नहीं रहता, कुछ खास स्तिथियों को छोड़ कर।

बसपा के साथ ऐसे सवर्ण वोटर जाते भी रहे हैं अतीत में वह भी सोशल इंजीनियरिंग के ताने बाने के नाते।2007 में बसपा की प्रदेश में बहुमत की सरकार भी बनी इसी के चलते। इस बार बसपा के सवर्ण प्रत्याशियों के बावजूद , चुनावों में उसकी शुरुआती यह छवि की बसपा लड़ाई में कहीं है ही नहीं..( यह सच भी निकला )। इस नाते भाजपा के सवर्ण कोर वोटर के पास उसी के साथ बने रहने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था।
राजनीति में हमेशा दो दूनी चार ही नहीं होते। तीन भी होते हैं और पांच भी! सवर्ण वोटरों के साथ दलित और उप छोटी जातियां संभवतः भाजपा के साथ गए ठीक ठाक तरह से और यही उसके लिए “पांच” हो गया और सपा गठबंधन के लिए “चार नहीं”, तीन ही रह गए। इसलिए सपा दौड़ते हुए भी बीच रास्ते हांफ कर खड़ी हो गयी।

बसपा के सपा प्रत्याशियों के खिलाफ सजातीय प्रत्याशी उतारना, वोटर को उहापोह में डालने की वजह से सपा को नुकसान हुआ और भाजपा कम या ज्यादा मार्जिन से अपनी सिटों में बढ़ोत्तरी की और निकली और बहुमत से ज्यादा सीटें पा कर ऐतिहासिक रूप से लगातार सरकार बनाने की वापसी करने का कीर्तिमान भी बना सकी!

यह बसपा की अपने लिए रणनीतिक कुशलता जैसी बात थी या “आत्मघाती ” फैसला..उसका अब तक निम्नतम वोट प्रतिशत और महज एक सीट ही पाना रणनीतिक टी कतई ही साबित नहीं हुआ। जो साबित हुआ उसे “आत्मघाती” ही कहा जा सकता है।
हर बड़े चुनाव में राजनीतिक – रणनीतिक फैसले होते हैं, पर एक “मनोविज्ञान” भी होता है। यह राजनीतिक दलों और वोटरों दोनों का होता है। वोटर का मनोविज्ञान ज्यादा प्रभावी होता है। यही मनोविज्ञान कभी लहर, कभी अंदर करंट या फिर उदासीनता तीनों स्थितियों में सामने आता है। इस बार वोटर का मनोविज्ञान सपा के पछ में जाता दिखता था, पर वह पूरी तरह गया नहीं।

इस मनोविज्ञान की (जितना भी रहा हो) तोड़ भाजपा ने हर तरह की व्यूह रचना से निकालने की कठिन कोशिश भी की और कामयाब भी हुई।मुख्य प्रतिद्वंद्वी सपा इस मनोविज्ञान को अपने पछ में निचोड़ नहीं सकी।
एक बात साफ है कि जहां सपा गठबंधन में सपा अध्यक्ष अखिलेश और ओम प्रकाश राजभर ही पूरे कैम्पेन में प्रमुख थे और उसे अधिकतम खींच सकते थे, वहीं भाजपा के पास पूरा चुनावी थिंक टैंक था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी,अमित शाह, राजनाथ सिंह जे पी नड्डा, आनन्द प्रधान, अनुराग ठाकुर मुख्यमंत्री योगी और केशव मौर्या समेत कई और चुनावी कमान संभाले हुए थे।
पूर्वांचल में जहां भाजपा पर सबसे ज्यादा सपा गांठबंधन प्रहार करता, वहीं छठवें सातवें चरण में प्रधानमंत्री ने आगे बढ़ कर खुद कमान संभाल ली और बनारस में तीन दिन और उसके आसपास के जिलों में धुंआधार चुनावी अभियान संभाल लिया और पूर्वांचल के विपछिय प्रहार की धार को काफी हद तक कुंद कर दिया।इसके परिणाम भी भाजपा को विजय द्वार तक ले जाने में काम आए।

यह पहला मौका नहीं था, जब प्रधानमंत्री मोदी ने बनारस और उसके आसपास के जिलों में 2017 में भी इसी तरह की कमान संभाली थी और बनारस और आसपास के जिलों की कमोबेश सभी सीटों पर बाजी पलट दी थी। इस बार भी पार्टी को सत्ता की चाबी देने में उनका वही पुराना रवैया और अनुभव काम आया।

यह एक बड़े जादू या आक्रामक कौशल के रूप में काम आया। वरना पूर्वांचल के तीन मंडलों के जिलों में आने वाली विधान सभाएं भाजपा को विपपरित परिस्थियों में भी एक बड़े हद तक सफलता मिली,वह कमजोर पड़ जाती…!
राजनीति में प्रो इनकंबेंसी चीज नहीं होती, पर अगर एन्टी इनकंबेंसी का असर नगण्य कर दिया जाए और उसका रुख अपनी ओर मोड़ लिया जाए तो इसके मायने बदल जाते हैं। जैसा सामने आए तो शायद यह शब्द कोई परिभाषा जैसा लगने लगे और ऐसा हुआ भी!यह बात दीगर है कि भाजपा को 2017 जैसी अविश्वसनीय सफलता नहीं मिली, पर इस बार के विषम ऐसे हालात में भी बहुमत से भी 70 सीटें ज्यादा पाना किसी भी तरह से उल्लेखनीय तो मानी ही जाएगी।
सपा गठबंधन को इतना तो संतोष हुआ ही है कि उसने भाजपा को उसके 300 पार के नारे से पहले ही रोक दिया और उसके उप मुख्यमंत्री समेत तीन मंत्री चुनाव हार गए। दो तीन तो हारते हारते ही जीते हैं। इसके अलावा सपा 50 सीटें ऐसी हारी है, जहां उसके प्रत्याशी 300 से तीन हजार के अंतर से ही हारे हैं। यह भाजपा के उस ऐतिहासिक चुनावी जादू का असर है। वर्ना उसे 50 सीटें मिलतीं तो वह 180 के आंकड़े के पार कम से कम पहुंच जाती और भाजपा की सरकार 225 के नम्बर के आसपास ही बनती। यह सपा के दिल पर मरहम कस काम करता और 2024 की राह को थोड़ा सा आसान करता।
इस बार की एक बात और काबिले गौर है। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी चुनावों से पहले सरकार चलाने तक और चुनावी प्रक्रिया के दौरान भी कभी भी ” बैक फुट ” पर नहीं ही नजर आए। अपने भाषणों के लहजों से ले कर सरकार में रहते हुए और सारे कामकाज को करते हुए भी। उनकी आक्रामक छवि भी इस बार के चुनावों में एक जादू ही थी। हर चुनाव में जो भी सरकारें रही हैं, उन पर उंगली उठती रही है।

इस बार भी ऐसे मौके आए, पर यह सब चुनावी प्रक्रिया और राजनीतिक गतिविधियों का हिस्सा ही होता है। जीत जीत होती है और दोबारा वापसी करने और इतिहास रचने की घटना मिसाल या जादू बन जाती है..!

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