हार की ‘ सहानुभूति ’ भी नहीं ले पा रही है कांग्रेस
हरीश रावत अपने ही बुने जाल में फंस रहे हैं या कोई फंसा रहा है
हल्द्वानी । 2022 का उत्तराखंड का विस चुनाव दो बातों के लिए हमेशा याद रखा जाएगा। इसमें एक टिकट फाइनल होने के बाद लालकुआं से पूर्व सीएम हरीश रावत और खटीमा से सीएम पुष्कर सिंह धामी के हार की हवा। दूसरा इस हवा का सच होना।
इन दो बातों ने उत्तराखंडियत, गैरसैंण में स्थायी राजधानी और युवा नेतृत्व की बात को बेमानी बना दिया। इससे राजनीतिक विशलेषक हैरान हैं और लोग उत्तराखंड के लोगों का मिजाज नहीं समझ पा रहे हैं। 1991 में नैनीताल से एनडी तिवारी की हार एक बार फिर खटीमा में जीवंत हो गई है।
इससे लालकुआं के साथ भी जोड़ा जा सकता है। इसके इतर इस हार से सबक लेने के बजाय उत्तराखंड के कांग्रेस सोशल मीडिया में आपस में भिड़ने लगे हैं। इससे आपसी दोस्ती, राजनीतिक रिश्ते भी दरकते दिखने लगे हैं। कांग्रेस के नेताओं को अनुमान ही नहीं हो रहा है कि हार के बाद किसी लोकप्रिय नेता के पक्ष में पैदा होने वाली सहानुभूति को भी खो रहे हैं।
पिछले एक सप्ताह से पूर्व सीएम हरीश रावत दनादन सोशल मीडिया में कई तरह के अंर्तविरोध से जुड़े पोस्ट डाल रहे हैं। वे कह रहे हैं कि वे लालकुआं से चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे। वे केवल 2022 में चुनाव लड़ाना चाहते थे। यह सौ फीसदी ठीक है। पूर्व सीएम ने कई बार इस बात का एलान किया था कि वे इस बार केवल चुनाव लड़ाएंगे।
वास्तव में यदि पूर्व सीएम ने केवल चुनाव लड़ाया होता तो कुमाऊं की करीब दस सीटों के नतीजे बिल्लकु अलग होते। इसमें चम्पावत, गंगोलीहाट, कपकोट, बागेश्वर, सोमेश्वर, जागेश्वर, रानीखेत, सल्ट, रामनगर एवं भीमताल की सीट शामिल हैं। इन सीटों में भाजपा के कद्दावर नेताओन के मुकाबले के लिए कांग्रेस किसी बड़े नेता को नहीं भेज पायी। इन सीटों में पूर्व सीएम हरीश रावत की काफी डिमांड थीं। रावत भाषण भी देते और चुनाव की रणनीति भी तैयार करते। भाजपा के एकतरफा प्रचार से कांग्रेस के पक्ष में पैदा हुई लहर मतदान तक भाजपा की पक्ष में चली गई। यह असल में भाजपा के तीतरफा चुनाव प्रचार की रणनीति का हिस्सा है।
भाजपा के सभी फ्रंटल संगठन मुख्य मोर्चे पर चुनाव प्रचार करते हैं। इसके बाद महत्वपूर्ण लोग सोशल मीडिया की कमान संभालते हैं और दिशा निर्देश जारी करते हैं। आरएसएस के जुड$े हुए लोग प्रतिद्धंदी की अच्छाई और कमियों का मूल्यांकन कर जनता के मिजाज के हिसाब से काम करते हैं।
एक तरह से भाजपा की यह चुनावी रणनीति अभेद्य दुर्ग बना देता है और कांग्रेस के लोग इसमें फंस जाते हैं।
इसका ताजा उदाहरण लालकुआं में इस बार का चुनाव प्रचार है। कांग्रेस के लोग भारी भीड़ के साथ पूर्व सीएम के साथ काम कर रहे थे और किसी भी बैठक में समूह के साथ जा रहे थे। भाजपा प्रत्याशी के समर्थक गांव गांव गली गली प्रचार कर रहे थे। बाहरी तौर पर दिखने में तब हरीश रावत की बढ़त दिख रही थीं, लेकिन आंतरिक तौर पर कांग्रेस कमजोर होती जा रही थीं। भाजपा के थिंक टैंकों ने केवल मुस्लिम विवि का काड
नहीं खेला बल्कि लालकुआं में हरीश रावत के हारने का प्रचार कर दूसरी सीटों में भी कांग्रेस को कमजोर किया। मतगणना के बाद पूर्व सीएम को चाहिए था कि वे कांग्रेस को पुर्नजीवित करने के लिए चुनाव की कमियां खोजें। यही फार्मूला कार्यकारी अध्यक्ष रणजीत सिंह रावत पर भी लागू होता है। यह सबको पता है कि रणजीत ने राजनीतिक का क,ख, ग, घ केवल हरीश रावत से ही सीखा था। उन्होंने अपने ही गुरू को चारों खाने चित्त कर दिया। आखिर यह तो हरीश रावत के साथ अन्याय ही कहा जाएगा।
रणजीत रावत के बयानों पर पलटवार कर पूर्व सीएम हरीश रावत ने हार के बाद लालकुआं में उनके पक्ष में पैदा होने वाली सहानुभूति लहर को पूरी तरह से खत्म कर दिया है। 2007 में हल्द्वानी से इंदिरा के हारने के बाद पैदा हुई सहानुभूति लहर 2012 में उनके रिकार्ड मतों से जीत का आधार बनी थीं। कांग्रेस के नेताओं को यह भी देखना चाहिए कि पांच सौ रुपये में गैस सिलेंडर, तीन सौ यूनिट तक फ्री बिजली जैसी लोकलुभावन घोषणाओं पर जनता ने विश्वास क्यों नहीं किया। गैरसैंण राजधानी समर्थकों से भरे पहाड़ से कांग्रेस का पतन क्यों हो गया इसका एक ही उत्तर है कि कांग्रेस अपनी घोषणाओं को जनता तक नहीं पहुंचा पायी। इसका एक बड़ा कारण यही है कि कांग्रेस चुनाव संचालन समिति प्रमुख हरीश रावत को चुनाव लड़वाने के बजाय एक ऐसी पिच पर वेटिंग के लिए भेज दिया, जहां 2012 से कांग्रेस करारी हार हारती रही है। चुनाव आते जाते रहते हैं और हार जीत भी लगी रहती है, लेकिन अगर नीति और रणनीति की हार हो जाए तो फिर पार्टी का पुनर्जीवित होना मुश्किल हो जाता है। उत्तराखंड में भी लोग कहने लगे हैं कि कांग्रेस के दिन गए।