किसी पराए, अजनबी शहर में कोई अपना सा मिल जाए।पहली मुलाकात में अपना बना लेने का हुनर जानने वाला हो।मरते दम तक अपनापन का रिश्ता निभाए।इसे अपने सद्कर्मों का प्रतिसाद ही माना जा सकता है।ऐसे ही अपना बना लेने वाले हुनरबाज का नाम था डी के प्रजापति।संक्षिप्त नाम डी के के नाम से पूरे देश ,प्रदेश और शहर में पहचान बनाने वाले इस शख्स ने जीवन भर अपनेपन का रिश्ता निभाया..
नवभारत का उपसम्पादक होने के नाते मेरा तबादला छिंदवाड़ा कर दिया गया।छिंदवाड़ा संस्करण का प्रकाशन शुरू होना था।प्रबंधन ने मुझे काबिल और अनुभवी बताते हुए तबादला किया था।मुझे पता था कि अखबार मालिक के मुंह लगे गुल्मटों ने मेरा तबादला करवाया था।परिवार की जिम्मेदारी को देखते हुए जबरिया हुए तबादले से बेहद दुःखी और क्रोधित था।मन मसोसकर परिवार को भोपाल छोड़कर छिंदवाड़ा पहुंच गया।नया शहर,दफ्तर का नया स्टाफ, शहर के भूगोल से अपरिचय सब मन को खिन्न करने वाली बातें थी।
छिंदवाड़ा में मेरी पहली मुलाकात मेरी नजर में छिंदवाड़ा ज़िले के बेदाग और सर्वश्रेष्ठ पत्रकार राकेश प्रजापति से हुई। अपनी दुनिया मे मस्त रहने वाले हरफनमौला राकेश ने उम्र के हिसाब से मुझे बड़े का दर्जा दिया। राकेश ही ने अपने बड़े भाई डी के प्रजापति से भेंट करवाई। पहली मुलाकात में डी के मेरे फ्रेम में फिट हो गए। छिंदवाड़ा में आयकर,विक्रयकर के प्रसिध्द वकील,एक मासिक पत्रिका के स्वामी,हिन्द मजदूर सभा के पदाधिकारी,ट्रेड यूनियन नेता डी के बेहद हंसमुख,मिलनसार,जिंदादिल भाई ,मित्र भी उम्र में मुझसे छोटे थे। दोनों भाई मेरे अनुज तुल्य मित्र बन गए।पारिवारिक रिश्ते निभाना उनकी खासियत थी।
यह बात बाइस बरस पुरानी है।डी के प्रजापति उस समय नैरोगेज रेल लाइन को ब्राडगेज में बदलने वाली संघर्ष समिति के संयोजक थे।डी के का क्रमवार आंदोलन जारी था। नवभारत का नया संस्करण होने के कारण आंदोलन के समाचार को पर्याप्त स्थान मिलता था। डी के को आंदोलन के लिए मेरी और नए शहर में अपना सा लगने वाले व्यक्ति की मुझे जरूरत थी।छिंदवाड़ा में नागपुर को जोड़ने वाले मुख्य मार्ग पर स्थित छात्रा महाविद्यालय के सामने प्रेस काम्प्लेक्स है।इसी प्रेस काम्प्लेक्स में डी के का वकालत और समाचार पत्र का कार्यालय था।छिंदवाड़ा के तीन साल के प्रवास में शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरा जब डी के अथवा राकेश से मुलाकात ना हुई हो।छिंदवाड़ा में अकेले रहने के कारण किराए के कमरे से रहने, नहाने,सोने तक का वास्ता था।बुधवारी मोहल्ले से दोपहर 12 बजे तक डी के दफ्तर अथवा कोर्ट में मिलना, गपशप लगाना,शाम 5 बजे तक मंडी स्थित गंज कार्यालय पहुंचना दिनचर्या थी।
जार्ज फर्नाडिस, शरद यादव,रघु ठाकुर, मेघा पाटकर के बेहद करीबी डी के में एक चुम्बकीय आकर्षण था।जीन्स का पेंट,टी शर्ट पहनने के शौकीन डी के के मेहदी से रंगे बाल और फ्रेंच कट दाढ़ी बेहद आकर्षक लगती थी।चुरमुरा और चूरा कर देने वाले तकिया कलाम को दोहराने वाले डी के के ठहाके उनकी जिन्दादिली कि गवाही देते थे।
यही कारण है कि डी के दफ्तर में चित्रकार ध्रुव वानखेड़े,पूर्व विधायक स्व.मनमोहन शाह बट्टी, वकील अनुपम गढेवाल, श्याम यादव,आराधना भार्गव, एम मुज्जमिल, पुरुषोत्तम चांडक, दशरथ यादव, खूबचन्द सहित शहर के दर्जनों लोगों की सुबह, दोपहर, शाम महफ़िल हमेशा जमी रहती थी।
अनेक सामाजिक,सांस्कृतिक,श्रमिक संगठनों से जुड़े डी के प्रजापति से भोपाल लौट आने के बाद भी मुलाकात और बातचीत का सिलसिला जारी रहा। भोपाल आने पर डी के मुझसे मुलाकात करना नहीं भूलते थे। मोबाइल पर छिंदवाड़ा के नए समाचार से अवगत कराते हुए परिवार की सभी बातें साझा करते थे।गम्भीर मुद्दे पर सलाह मशविरा करते थे। ईश्वर के क्रूर निर्णय ने डी के हमसे छीन लिया।भौतिक रूप से डी के दुनियां में भले ही ना हों लेकिन दिलों में हमेशा जिंदा रहेंगे। डी के हम तुम्हें यूँ ना भुला पाएंगे…..
राम मोहन चौकसे ,वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल