सुशील उपाध्याय
केंद्रीय बजट में सरकार ने हरेक कक्षा के लिए एक अलग टीवी चैनल का ऐलान किया है। ई-विद्या के अंतर्गत ऐसे 200 चैनल आरंभ होंगे। यह योजना धरातल पर उतर जाए तो वास्तव में बड़ा लाभ होगा। खासतौर से उन स्थानों पर जहां या तो इंटरनेट कनेक्टिविटी नहीं है या फिर डिजिटल डिवाइड इतना गहरा है कि स्मार्ट फोन या ऐसे ही किसी गेजेट को खरीद पाना किसी सपने से कम नहीं है।
इसके अलावा उन स्थानों पर भी लाभ हो सकता है, जहां सभी कक्षाओं के लिए शिक्षक उपलब्घ नहीं है। पांच कक्षाओं वाले प्राइमरी स्कूल या आठ कक्षाओं वाले जूनियर हाईस्कूल दो या तीन शिक्षकों के भरोसे चल रहे हैं, उन जगहों पर इन टीवी चैनलों की कक्षाओं का उपयोग किया जा सकेगा। सैद्धांतिक तौर पर यह पहल उल्लेखनीय है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर इसकी राह में अनेक अड़चने आने वाली हैं।
इस क्रम में एक बात का उल्लेख करना जरूरी है कि भारत में पहले ही अनेक शैक्षिक चैनल संचालित हैं। इन पर दिनभर शैक्षिक और अकादमिक कार्यक्रम प्रसारित होते हैं। नई पहल के अंतर्गत इस बात की पूरी संभावना है कि पहले से संचालित शैक्षिक चैनलों को नई पैकैजिंग के साथ इन 200 चैनलों में शामिल लिया जाएगा। फिर भी, इस कोशिश में कोई बुराई नहीं है क्योंकि जो छात्र-छात्राएं अभी तक शैक्षिक चैनलों पर कार्यक्रम देखते रहे हैं, अब उन्हें इस बात का इंतजार नहीं करना होगा कि उनके उपयोग का कार्यक्रम कब प्रसारित होगा।
नई व्यवस्था में उन्हें पता होगा कि उनकी कक्षा के लिए कौन-सा चैनल निर्धारित है और वे उसी चैनल को देख सकेंगे। न केवल साथ-साथ देख सकेंगे, बल्कि बाद में यू-ट्यूब या अन्य माध्यमों पर पुनः प्रसारण देखने में भी सक्षम होंगे।
इस मुहिम की राह में सबसे बड़ी चुनौती भाषा को लेकर आने वाली है। अभी तक जो चैनल चल रहे हैं, उन पर आधे से अधिक प्रसारण अंग्रेजी माध्यम में होते हैं और करीब एक तिहाई प्रसारण हिंदी में और शेष अन्य भारतीय भाषाओं में हैं।
(यह एक मोटा अनुमान है, अंग्रेजी माध्यमों के प्रसारणों की संख्या 50 फीसद से अधिक भी हो सकती है।) केवल आठवीं अनुसूची की भाषाओं को देखें तो अंग्रेजी और हिंदी के अलावा 20 ऐसी भाषाएं हैं जिनमें पहली से 12वीं तक की पढ़ाई होती है और संबंधित भाषा में परीक्षा भी ली जाती हैं। देश के सभी छात्र-छात्राओं तक पहुंचना हो तो इन सभी भाषाओं में शैक्षिक प्रसारणों की जरूरत होगी।
फिलहाल, यह काम आसान नहीं है। सभी कक्षाओं के सभी विषयों की पढ़ाई के लिए तकनीकी तौर पर भी ढांचा उपलब्ध नहीं है और जहां ढांचा उपलब्ध है, वहां इतनी बड़ी संख्या में प्रशिक्षित शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं कि लाइव पढ़ा सकें या रिकॉर्डिंग करा सकें। यानि यह काम अपनी सही दिशा में आगे बढ़े तो भी इसमें काफी समय लगने वाला है।
फिलहाल यह मानकर चलिये कि ज्यादातर कार्यक्रम अंग्रेजी में ही प्रसारित होंगे, कुछ हिस्सा हिंदी माध्यम का भी होगा, लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं के शैक्षिक प्रसारणों में काफी वक्त लगेगा।
दूसरी बड़ी चुनौती यह है कि देश में सभी स्कूल-कॉलेजों में एक समान पाठ्यक्रम नहीं है। ऐसे में इन 200 चैनलों में किस बोर्ड या किस प्रदेश के पाठ्यक्रम के अनुरूप पढ़ाई होगी, इस सवाल का कोई आसान जवाब नहीं है। वर्तमान में सीबीएसई, आईसीएसई आदि को मिलाकर देश भर में तीन दर्जन से अधिक ऐसे बोर्ड हैं जो 10वीं और 12वीं की परीक्षा लेते हैं।
इन सभी बोर्डों के लिए एक ही विषय में अलग-अलग पाठ्यक्रम निर्धारित हैं। मसलन, हिंदी या कॉमर्स विषय में जो टॉपिक उत्तराखंड में पढ़ाए जा रहे हैं, यह जरूरी नहीं है कि इन विषयों में केरल में भी वे ही टॉपिक पढाए जा रहे हों। सीबीएसई स्कूलों के सेलेबस में तो समानता होगी, लेकिन अन्य बोर्ड के स्कूलों में अलग राज्य में अलग पाठ्यक्रम होगा ही।
तो फिर इन चैनलों पर किसी एक राज्य के पाठ्यक्रम को पढ़ाने से अन्य राज्यों के छात्र-छात्राओं को कोई लाभ नहीं मिल सकेगा। इस समस्या का एक समाधान तो यह हो सकता है कि जिस प्रकार डिग्री पाठ्यक्रमों के लिए यूजीसी मॉडल सेलेबस तैयार करती है और फिर विभिन्न विश्वविद्यालय अपनी जरूरत के अनुरूप् 30 फीसद तक बदलाव करते हुए संबंधित पाठ्यक्रम को लागू कर सकते हैं।
इसी प्रकार सीबीएसई के सेलेबस को 30 फीसद के बदलाव के साथ सभी राज्य अपने यहां लागू कर लें। इससे कक्षा-केंद्रित टीवी चैनलों का ज्यादा लाभ हो सकेगा। हालांकि, इस मुद्दे पर सहमति आसान नहीं है क्योंकि ज्यादातर राज्य अपनी स्कूली शिक्षा को किसी केंद्रीय फार्मूले के तहत संचालित करने के पक्ष में नहीं होते।
यहां एक अन्य बड़ी बाधा विषयों की संख्या को लेकर सामने आएगी।
कक्षा एक से आठ तक विषयों की संख्या सीमित है, लेकिन कक्षा नौ से 12 तक विषयों की संख्या बढ़ने के साथ उन्हें अलग संकायों (आट्र्स, सांइस, कॉमर्स, कृषि, वोकेशनल आदि) में बांटना पड़ता है। इन संकायों में विषयों की संख्या दर्जनों में है। ऐसे में किसी एक कक्षा के लिए निर्धारित चैनल कौन से संकाय के कौन से विषय पढ़ाएगा और कौन से छोड़ेगा, इसे लेकर चुनौती बनी रहेगी।
ऐसे में इन कक्षाओं के मामले में कक्षा के लिए नहीं, बल्कि संकाय के लिए अलग चैनल निर्धारित करना होगा। इससे स्वाभाविक तौर पर चैनलों की संख्या में बढ़ोत्तरी करनी पड़ेगी।
बात साफ है कि सारे चैनल केंद्र सरकार संचालित नहीं करेगी, बल्कि राज्यों को भी अपनी जरूरतों के अनुरूप शैक्षिक चैनल लॉंच करने ही होंगे। शैक्षिक चैनल खड़ा करना और उसे संचालित करना, दोनों ही पैसों से जुड़ा मामला है। इस कारण राज्य एक बार फिर केंद्र के सामने हाथ पसारेंगे और ये योजना भी एडहॉकिज्म और सिंबोलिज्म का शिकार होने के मुहाने पर पहुंच जाएगी।
वैसे, इस योजना को सभी स्कूल-कॉलेजों तक ले जाने के लिए बहुत बड़ी संख्या में टीवी सेटों की जरूरत होगी। इस वक्त देश में 12 लाख से अधिक सरकारी और एडेड स्कूल मौजूद हैं। यदि, इन शैक्षिक चैनलों के लिए हरेक स्कूल को शुरू में केवल दो टीवी सेट दिए जाएं तो भी करीब 24 लाख टीवी सेटों की आवश्यकता होगी।
इन टीवी सेटों की औसत कीमत 10-12 हजार प्रति सेट मान लें तो 2500 करोड़ की जरूरत होगी। कुल मिलाकर योजना अच्छी है, लेकिन नियोजन और क्रियान्वयन की राह आसान नहीं है।