- गंगोत्री व कोटद्वार जीतने वाली पार्टी की ही बनी सरकारें
- रानीखेत का दुर्योग बड़ा अजीब, जीतने वाला बैठता है विपक्ष में
अर्जुन बिष्ट
देहरादून। उत्तराखंड विधानसभा चुनावों के लिए कई बातें मिथक बन गई हैं। यहां राज्य गठन के बाद अब तक के चार चुनावों का इतिहास रहा है कि हर बार सरकार बदल जाती है।
दिलचस्प बात यह है कि यह मिथक 2007 में किसी दल को बहुमत न होने की स्थिति में भी कायम रहा। इसके साथ ही कई और भी मिथक हैं, जिन पर सबकी नजरें लगी रहेंगी
सबसे बड़ा मिथक यह है कि अब तक लगातार यहां किसी भी दल की सरकार नहीं बनी। नवंबर 2000 में राज्य बनाने वाली भाजपा को दो साल बाद 2002 में ही सत्ता से हाथ धोना पड़ा, तब जनता ने सत्ता कांग्रेस को परोस दी।
2007 में कांग्रेस और भाजपा में से किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और निर्दलीयों के सहयोग से भाजपा सरकार बनाने में कामयाब हुई और कांग्रेस को सत्ता से बाहर रहना पड़ा। 2012 में भी सत्तारूढ़ भाजपा खंडूड़ी है जरूरी के नारे के बावजूद एक अंक से सत्ता का स्वाद चखने से वंचित रह गयी। चौंकाने वाली बात यह रही कि भाजपा के सीएम फेस बीसी खंडूड़ी खुद ही कोटद्वार से चुनाव हार गए व मिथक कायम रहा।
इसके बाद 2017 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपनी सरकार को गिराने और भाजपा पर प्रदेश का विकास ठप कराने का आरोप लगाया। इस बार न केवल सत्ता फिर कांग्रेस के हाथ से फिसल गयी बल्कि कांग्रेस को दहाई का आंकड़ा छूने में पसीना छूट गया। स्वयं मुख्यमंत्री हरीश रावत दोनों सीटों से चुनाव हार गये।
इसको देखते हुए अब 2022 के चुनावों पर सबकी नजर टिकी है। इस प्रदेश में मिथक और भी हैं। यहां तीन सीटें ऐसी हैं, जो सत्ता सुख के समीकरण बनाते रहे हैं। मसलन गंगोत्री को इस मामले में सबसे बड़ा मिथक माना जाता है। माना जाता है कि जो गंगोत्री से जीतता है सरकार उसी दल की बनती है। उदाहरण 2002 में कांग्रेस के विजयपाल सजवाण, 2007 में भाजपा के गोपाल रावत, 2012 में कांग्रेस के विजयपाल सजवाण, 2017 में भाजपा के गोपाल सिंह रावत जीते तो सरकार भी उनके दलों की ही बनी।
इसी तरह का संयोग कोटद्वार से भी जुड़ा है। 2002 में कोटद्वार से कांग्रेस के सुरेन्द्र सिंह नेगी विजयी रहे, 2007 में भाजपा के शैलेन्द्र रावत, 2012 में कांग्रेस के सुरेन्द्र सिंह नेगी और 2017 में भाजपा के हरक सिंह रावत विधायक चुने गए तो सरकार भी उन्हीं की बनी।
हार से जुड़ा संयोग कहें या दुर्योग वह बड़ा ही रोचक है। रानीखेत सीट ऐसी ही सीटों में से है। अब तक यहां से जिस भी पार्टी का विधायक चुना गया वह पार्टी विपक्ष में बैठने को मजबूर हुई। उदाहरण के तौर पर 2002 में भाजपा के अजय भट्ट रानीखेत के विधायक बने तो सरकार कांग्रेस की बन गयी, 2007 में कांग्रेस के करना माहरा जीते तो सरकार भाजपा की बन गयी, इसी तरह 2012 में फिर भाजपा के अजय भट्ट जीते तो सरकार कांग्रेस की बन गयी। वर्ष 2017 में तो गजब ही हो गया। मोदी लहर से प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आने वाली भाजपा के दिग्गज प्रत्याशी अजय भट्ट यहां चुनाव हार गए और कांग्रेस के करन माहरा सदन में पहुंचे यानि मिथक इस स्थिति में भी बना रहा। अब लोगों की नजरें इस बार के चुनाव परिणाम पर टिक गयी हैं और क्या इनमें से सारे मिथक बने रहते हैं या कुछ टूट जाते हैं।