सुशील उपाध्याय
सवाल सीधा है और महत्वपूर्ण भी है। आखिर, चुनाव आयोग को कैसे पता चला कि 300 लोगों की सभा या मीटिंग करने पर संक्रमण नहीं फैलेगा ? यकीनन, इस सवाल का कोई तार्किक जवाब नहीं हो सकता। यह अनुमान ही है। और आगे भी ऐसे अनुमान दिखाई देंगे। फिलहाल यह तय है कि चुनाव प्रचार के नए ढंग ने एक नई उम्मीद जगाई है। जनवरी के तीसरे सप्ताह में देश में कोरोना संक्रमितों का दैनिक आंकड़ा दो लाख प्रतिदिन से अधिक बना हुआ है।
सक्रिय मरीजों की संख्या 20 लाख तक पहुंचने को है। वैज्ञानिक बता रहे हैं कि अब भारत तीसरी लहर के पीक की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में आयोग को ढील देनी चाहिए या पहले से जारी नियमों को सख्ती से लागू करना चाहिए! आम समझ तो यही कहती है कि कड़ाई से नियमों को लागू करना चाहिए।
खासतौर से उत्तराखंड जैसे राज्य में जहां राष्ट्रीय औसत की तुलना में दोगुना से अधिक केस सामने आ रहे हैं और राजधानी देहरादून तीसरी लहर की चपेट में है, वहां किसी भी चुनावी सभा या बैठक की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। चाहे वह बैठक 300 लोगों की हो या 500 लोगों की।
निर्वाचन के नियमों के दृष्टिगत बीते सप्ताह राज्य सरकार द्वारा जो एसओपी जारी की गई है, उसमें कई विरोधाभासी बातों को एक साथ देखा जा सकता है। एक तरफ कहा जा रहा है कि शॉपिंग मॉल, सिनेमाघर, सैलून, स्टेडियम, खेल संस्थाएं, थिएटर और आॅडिटोरियम आदि 50 फीसद क्षमता के साथ खोले जाएंगे। ढाबों, होटलों आदि पर भी 50 फीसद का नियम लागू किया गया है।
दूसरी तरफ सरकारी और निजी बसें पूरी क्षमता के साथ संचालित की जा रही हैं। ऐसे में यह सवाल उठेगा कि ही सैलून की चार कुर्सियों पर दूरी के साथ बैठे लोगों से संक्रमण फैलेगा और बसों में एक-दूसरे से सटकर बैठी सवारियों से नहीं फैलेगा ?
यहां एक और बात ध्यान देने वाली है कि सिनेमाघर और थिएटर आधी क्षमता के साथ खुलेंगे, लेकिन सार्वजनिक स्थानों पर होने वाले मनोरंजक और शैक्षिक/सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर रोक रहेगी।
लेकिन, इन्हीं कार्यक्रमों को किसी आडिटोरियम में करेंगे तो ये 50 फीसद क्षमता के साथ आयोजित हो सकेंगे। अब कोई यह पूछे कि खुले में होेने वाले कार्यक्रमों से ज्यादा खतरा है या बंद जगह होेने में वाले कार्यक्रमों से! डॉक्टर तो यही कह रहे हैं कि बंद जगहों पर ज्यादा खतरा है।
इसलिए निमयों में एकरूपता की दृष्टि से सार्वजनिक स्थानों के कार्यक्रमों को अनुमति दी जानी चाहिए थी। और यह इसलिए भी दी जानी चाहिए थी क्योंकि 300 लोगों की चुनावी सभाओं को अनुमति दी गई है। इसी एसओपी में कहा गया है कि सार्वजनिक स्थानों पर लोगों के बीच 6 फीट की दूरी होना अनिवार्य है।
अब खुद अनुमान लगाकर देखिए कि इस छह फीट के नियम के दृष्टिगत 300 लोगों की सभा के लिए कितनी बड़ी जगह की जरूरत पड़ेगी। यानि बहुत सारी बातें विरोधाभासी हैं, जिन पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है।
यह बात ठीक है कि इस बार के चुनाव में उत्सव का माहौल नहीं है। ज्यादातर गतिविधियां आॅनलाइन और मीडिया माध्यमों के जरिये ही संचालित की जा रही हैं। इस बार के अभी तक के अनुभव के आधार पर देखें तो यह कोई खराब प्रयास नहीं है, बल्कि ज्यादातर लोगों के लिए यह सुकूनभरा बदलाव है। बेहतर तो यह होगा कि आयोग किसी भी प्रकार की सार्वजनिक बैठकों और सभाओं को रोक दे और सीमित संख्या में डोर-टू-डोर प्रचार को बढ़ावा दे।
इससे प्रत्याशियों का खर्च भी घटेगा और बड़ी सभाओं के कारण पैदा होने वाला कोरोना का खतरा भी कम होगा। आनलाइन और मीडिया माध्यमों पर प्रचार का प्रयोग सफल रहा तो भविष्य में भी इसी को दोहराया भी जा सकेगा। उससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि कोरोना की चोट खाये हुए मुख्यधारा के मीडिया को भी इस अभियान से काफी मदद मिल सकेगी।
यहां एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि इस वक्त उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में करीब दो लाख कर्मचारी चुनावी मश्ीानरी का हिस्सा हैं। यानि इतने लोगों को नियमित तौर पर ड्यूटी के लिए बाहर निकलना पड़ रहा है और लोगों से सीधा संपर्क बनाना पड़ रहा है। ऐसे हालात में यदि हरेक प्रत्याशी को 300 लोगों तक की सभा करने की अनुमति दी जाएगी तो मतदान होने से पहले के शेष बचे 24-25 दिन में हरेक विधासभा क्षेत्र में ऐसी कम से कम 50 या इससे भी अधिक सभाएं होंगी।
पूरे प्रदेश के दृष्टिगत यह आंकड़ा बहुत बड़ा हो जाएगा। यह भी कहा जा रहा है कि 21 जनवरी के बाद जारी होने वाली एसओपी में आयोग कुछ और छूट दे सकता है। यदि ऐसा हुआ तो यह संक्रमण के फैलाव के लिहाज से चिंताजनक होगा। चूंकि, इस समय ज्यादातर शिक्षक और कर्मचारी चुनाव ड्यूटी पर हैं इसलिए यह बेहतर होगा कि चुनाव प्रक्रिया संपन्न होने तक डिग्री कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में भी या तो छुट्टी कर दी जाए या फिर आनलाइन पढ़ाई कराई जाएगी। इससे करीब 4 लाख अपने घरों पर सुरक्षित रह सकेंगे।