महामारी में चुनाव बड़ी चुनौती

यूं भी लोकतंत्र में अंतिम फैसला मतदाता को ही करना होता है। भारत में लोकतंत्र की जड़ें काफी मजबूत और गहरी है। मतदाता भी तमाम पार्टियों के बिजली-पानी समेत विभिन्न वस्तुएं मुफ्त बांटने के वादों और विकास के दावों को गंभीरता से समझ रहा है…

धर्मपाल धनखड़
भारतीय निर्वाचन आयोग के पांच राज्यों उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद तमाम राजनीतिक दल अपने-अपने उम्मीदवारों के चयन के लिए मंथन में जुट गयी है। कोरोना की तीसरी लहर के बीच चुनाव संपन्न करवाना आयोग के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। खैर, निर्वाचन आयोग ने तमाम परिस्थितियों को ध्यान में रख कर ही चुनाव तिथियों की घोषणा की होगी।

पिछले साल कोरोना की दूसरी लहर के दौरान पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रक्रिया जारी रखने से कोरोना से काफी जनहानि हुई थी। इसी से सीख लेकर चुनाव आयोग ने चुनाव की घोषणा के साथ ही 22 जनवरी तक के लिए राजनीतिक रैलियों, जनसभाओं, जलसे-जलूसों, नुक्कड़ सभाओं, रोड शोज तथा पैदल मार्च आदि पर रोक लगा दी है। ऐसे में राजनीतिक दलों के सामने परंपरागत माध्यमों से चुनाव प्रचार के बजाय डिजीटल माध्यमों से प्रचार करने की बड़ी चुनौती है।

हालांकि,22 जनवरी के बाद परिस्थितियों का आकलन करके निर्वाचन आयोग प्रचार के संबंध में आगे निर्देश जारी करेगा। चुनाव प्रचार के परंपरागत साधनों पर रोक से भारतीय जनता पार्टी फायदे में नजर आती है। खासतौर पर उत्तरप्रदेश में चुनाव की घोषणा से पूर्व पिछले दो महीनों में प्रधानमंत्री ताबड़तोड़ रैलियां करके चुनाव अभियान की शुरूआत कर चुके हैं।
कोरोना संक्रमण के मरीज जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, उसको देखते हुए ये संभावना कम है कि आयोग राजनीतिक दलों को परंपरागत माध्यमों से प्रचार की छूट देगा। ऐसे में राजनीतिक दलों के पास चुनाव प्रचार का माध्यम केवल डिजीटल मीडिया ही बचा है। डिजीटल तकनीक के मामले में भी भाजपा ही सबसे ज्यादा फायदे में दिख रही है। चूंकि, बीजेपी के पास सोशल मीडिया की मजबूत टीम और नेटवर्क है। इसमें कांग्रेस समेत तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक दल बीजेपी से बहुत पीछे हैं।

लेकिन महामारी को देखते हुए लोगों के जीवन को जानबूझकर संकट में नहीं धकेला जा सकता। पिछले साल बंगाल में चुनाव प्रक्रिया और महाकुंभ स्नान नहीं रोके जाने से काफी नुकसान उठाना पड़ा था। महामारी को देखते हुए राजनीतिक दलों से भी जिम्मेदारीपूर्ण भूमिका निभाने की अपेक्षा है। साथ ही, लोगों को भी खुद को भीड़-भाड़ वाले कार्यक्रमों से दूर रखना चाहिए। देश में काफी समय से डिजीटल तकनीक को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे में ये चुनाव भविष्य के लिए प्रचार माध्यमों की दिशा भी तय करेगा।
इन विधानसभा चुनाव को राजनीतिक दल 2024 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल मान कर चल रहे हैं। इन पांच राज्यों में से चार में बीजेपी और एक में कांग्रेस की सरकार है। बीजेपी के सामने चारों राज्यों में अपनी सरकार बचाने की चुनौती है, वहीं कांग्रेस को भी पंजाब हाथ से निकलने का भय है। पंजाब में इस बार कांग्रेस को बीजेपी और अकाली दल की बजाय आम आदमी पार्टी तथा राजनीतिक पार्टी बनाकर किसान नेताओं का चुनाव में उतरना बड़ी चुनौती साबित होंगे।

वहीं, पूर्व मुख्यमंत्री अमरेंद्र सिंह की पार्टी का बीजेपी के साथ हाथ मिलाना कांग्रेस के लिए परेशानी खड़ी करेगा। पंजाब में आये दिन बनते-बिगड़ते राजनीतिक समीकरणों के बीच चुनाव परिणाम चौंकाने वाले हो सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण चुनाव उत्तरप्रदेश का है। माना जाता है कि उत्तरप्रदेश की बागडोर जिसके हाथ में होगी, उसी पार्टी की सरकार केंद्र में बनेगी।

ऐसे में बीजेपी ने पूरी ताकत उत्तरप्रदेश में झोंक रखी है। इन चुनाव में बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी तथा अर्थव्यवस्था की खराब स्थिति बडे़ मुद्दे हैं। साथ ही, कोरोना की दूसरी लहर में लोगों को जिस तरह के हालात का सामना करना पड़ा था वो भयावह है। उन्हें भुला पाना आसान नहीं है। वहीं, विवादित कृषि कानूनों की वापसी के बाद भी किसानों में सरकार के प्रति नाराजगी कम नहीं हुई है। इसका खासा असर इन चुनावों में देखने को मिल सकता है।

बीजेपी शासित राज्यों में मतदाताओं की नाराजगी का खामियाजा उसे उठाना पड़ सकता है। इसका ज्यादा असर यूपी और उत्तराखंड में देखने को मिलेगा। उत्तराखंड में हर पांच साल में सरकार बदलने का जो चलन रहा है वो भी बीजेपी को भारी पड़ने की संभावना है। वहां लोगों की नाराजगी को देखते हुए ही एक साल में दो मुख्यमंत्री बदलने पड़े थे।
कांग्रेस जहां उत्तरप्रदेश में उम्मीद छोड़ चुकी है, वहीं उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा पर पूरा फोकस कर रही है। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधी टक्कर मानी जा है। गोवा और उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी ताल ठोक रही है। वहीं, मणिपुर और गोवा में तृणमूल कांग्रेस ने मैदान में उतर कर चुनावी समीकरणों को रोचक बना दिया है। बावजूद इसके कांग्रेस को इन राज्यों में उम्मीद की किरण दिखाई दे रही है।

बीजेपी के रणनीतिकारों का मानना है कि भले ही बेरोजगारी, महंगाई और कोरोनाकाल में हुई दिक्कतें बड़े मुद्दे हैं, लेकिन राम मंदिर निर्माण, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाना, राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की लहर इन सब पर भारी पड़ेगी। इसलिए बीजेपी से जुड़े तमाम संगठनों का जोर हिंदुओं की भावनाओं को उभार कर धार्मिक आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण करने पर है। पिछले कुछ सालों में उसे इसमें काफी हद तक सफलता भी मिली है।

लेकिन इस बार पश्चिमी उत्तरप्रदेश में किसानों की नाराजगी और जाट-मुस्लिम का एकजुट होना बीजेपी के लिए खतरे की घंटी है। वहीं, प्रदेश के बहुसंख्यक ब्राह्मणों की नाराजगी भी उसकी राह में रोड़ा बन सकती है। अन्य सवर्ण जातियों में भी विभिन्न कारणों से सरकार के प्रति नाराजगी है। पूर्वी उत्तरप्रदेश में भी हालात बीजेपी के अनुकूल नहीं दिख रहे हैं। समाजवादी पार्टी छोटे-छोटे दलों से गठबंधन करके बीजेपी के लिए कड़ी चुनौती खड़ी कर रही है।

लेकिन संसाधन, बूथ प्रबंधन, मजबूत संगठन और डिजीटल चुनाव प्रचार के क्षेत्र में वह अन्य दलों पर भारी पड़ रही है। इस सब के बावजूद उत्तरप्रदेश समेत पांचों राज्यों में तस्वीर अभी धुंधली है। यूं भी लोकतंत्र में अंतिम फैसला मतदाता को ही करना होता है। भारत में लोकतंत्र की जड़ें काफी मजबूत और गहरी है। मतदाता भी तमाम पार्टियों के बिजली-पानी समेत विभिन्न वस्तुएं मुफ्त बांटने के वादों और विकास के दावों को गंभीरता से समझ रहा है।

Leave a Reply