सुशील उपाध्याय
दया प्रकाश सिन्हा, पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कृत, पूर्व आईएएस, निष्ठावान स्वयंसेवक और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के पुरोधा पर नाराज मत होइये। जब वे सम्राट अशोक की तुलना औरंगजेब से करते हैं तब वे केवल ’माउथपीस’ और ‘लाउड स्पीकर’ की भूमिका में होते हैं। इसलिए इनसे भयाक्रांत होने की जरूरत नहीं है, भय उस सनातनी सोच से है जो इन दिनों बौद्ध आदर्शाें (जिन्हें आजादी के समय राष्ट्रीय आदर्शाें के तौर पर स्वीकार किया गया था।) पर हमलावर है। मुख्यधारा के मीडिया के अलावा सोशल मीडिया माध्यमों पर इस सनातनी सोच के पुरोधा अभेद्य प्रखरता के साथ अतर्काें-कुतर्काें की तलवार भांज रहे हैं और सिन्हा साहब की दृष्टि को परम-पावन घोषित कर रहे हैं। श्रीमान सिन्हा बताते हैं कि औरंगजेब और सम्राट अशोक, दोनों ने सत्ता के लिए अपने भाइयों का वध किया और दोनों ही अपने पिता की मौत का कारण बने। यहां तक यह बात पूरी तरह सही लगती है, लेकिन जब किसी ऐतिहासिक व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हैं तो उसके जीवन के एक हिस्से को आधार बनाकर निर्णय पर पहुंचने की कोशिश करना किसी छिपे हुए एजेंडे का संकेत होता है।
आज की तारीख में देश में औरंगजेब किसी खलनायक से कम नहीं है। औरंगजेब नाम और इस नाम की ध्वनि, दोनों ही राष्ट्रविरोधी घोषित की जा चुकी हैं। जिन्हें इतिहास की थोड़ी भी समझ है, वे अच्छी तरह जानते हैं कि अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में औरंगजेब और समा्रट अशोक, दोनों ही सत्ता पर नियंत्रण के लिए आतुर थे, युद्धरत थे। उस वक्त तक औरंगजेब धर्मांध भी नहीं था, यदि होता तो फिर मिर्जा राजा मानसिंह उसके सेनापति न होते। लेकिन मिर्जा राजा की मौत के बाद औरंगजेब का दूसरा ही रूप सामने आता है, जहां वो कट्टर मुसलमान बन जाता है और हिंदुओं पर कई तरह के अत्याचार होने लगते हैं। अब इसके सामने सम्राट अशोक के चरित्र को देखिए जो अपनी युवावस्था के निर्णयों के विषय में न केवल पश्चाताप से भरा हुआ है, बल्कि एक ऐसे राजा के रूप में परिवर्तित होता है जिसका संपूर्ण जीवन धर्म को समर्पित हो गया। इसमें संदेह की गुंजायश नहीं है कि सम्राट अशोक आधुनिक इतिहास में पहली बार भारत को एक राष्ट्र के रूप में आकार देते हैं।
सम्राट अशोक ने जिन मूल्यों को सामने रखकर अपना उत्तरार्द्ध जिया है, उस पैमाने पर वे और औरंगजेब एक नहीं हो सकते। अब बात केवल सम्राट अशोक और उनके आदर्शाें को खारिज करने की नहीं है, बल्कि इसी पैमाने पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी खारिज किया जा सकता है क्योंकि उनके जीवन का पूर्वार्द्ध भी ऐसा नहीं है वे किसी के आदर्श बन सकें। यह सभी को पता है कि सावरकर ने अपने जीवन का पूर्वार्द्ध देश की आजादी के लिए अर्पित किया, लेकिन हम यह भी जानते हैं कि उनका उत्तरार्द्ध एक अलग ही दिशा में चला गया। आज इसीलिए उन पर उंगली उठती हैं।
तो जिन्होंने ने भी दया प्रकाश सिन्हा को ‘स्क्रिप्ट’ दी होगी, उनके लक्ष्य कुछ अलग ही हैं। क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है कि ऐसा ही कोई अन्य व्यक्ति आने वाले कल में यह मांग कर सकता है कि अशोक स्तंभ को राष्ट्र-चिह्न न माना जाए क्योंकि उसकी निगाह में औरंगजेब और सम्राट अशोक एक ही हैं। और यह मांग भी उठ सकती है कि तिरंगे में ‘धम्म-चक्र’ नहीं होना चाहिए। यह दृष्टि किस ओर लेकर जाती है, इसे समझे जाने की जरूरत है। यह बौद्ध मूल्यों और आदर्शाें पर सीधा हमला है। सच कहें तो यह राष्ट्र की नींव पर हमला है और इस हमले में दया प्रकाश सिन्हा कोई अकेला व्यक्ति नहीं है। ऐसी अनेक पोस्ट सोशल मीडिया माध्यमों पर मौजूद हैं जो बौद्धों को सनातन धर्म के शत्रु की तरह प्रचारित कर रही हैं। हिंदू धर्म में मौजूद जाति भेद और छुआछूत के लिए भी बौद्धों को जिम्मेदार बताया जा रहा है। दलितों और छोटी जातियों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार को भविष्य के खतरे के तौर पर देखा जा रहा है।