ठाकुर-ब्राह्मण, कुमाऊं-गढ़वाल समीकरण साधने की चुनौती

मिथक-परंपराएं रहेंगी बरकरार!

  • अब तक भाजपा ने तीन ब्राह्मण व चार ठाकुरों को बनाया सीएम
  • कांग्रेस ने तिवारी-बहुगुणा और हरीश पर आजमाया दांव

मौहम्मद शाहनजर, देहरादून।
जब आपके सामने ये लेख पहुंचेगा, जिस समय आप इसको पढ़ रहे होंगे, तब तक नए साल का आगाज हो चुका होगा। नई उमंग और नई रोशनी से सराबोर होकर जीवन के नव सृजन की कामनाएं की जा रही होंगी, 2022 का आगाज हो चुका होगा।

हां, वैसे भी 2022 राजनीतिक के लिहाज से महत्वपूर्ण माना जा रहा है, लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत में राज्य विधानसभों के गठन के लिए चुनाव की प्रक्रिया हमेशा ही गतिमान रहती है।

इस साल के आगाज में ही 5 राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव होने जा रहे हैं, जिनमें देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश भी शामिल है, उत्तर प्रदेश के साथ ही पंजाब, उत्तराखंड गोवा और मणिपुर में भी विधानसभा का चुनाव होना है। उत्तराखंड की बात की जाए तो यह एक पर्वतीय राज्य होने के साथ-साथ भौगोलिक मानचित्र पर भी एक अलग पहचान रखता है।

यहां की राजनीति को करीब से समझने वालों का मानना है कि प्रदेश की सियासत और आगामी आने वाली सरकार की संभावना को समझने के लिए ठाकुर-ब्राह्मण, कुमाऊं-गढ़वाल, मैदान-तराई, उत्तराखण्ड के मिथक, परंपराएं, नई पार्टियों के पदार्पण आदि को अलग-अलग बिंदुओं पर विभाजित कर परखना होगा तभी अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में किस राजनीतिक दल को जनता सत्ता सौंपने जा रही है।
उत्तराखंड की सियासत हमेशा से ठाकुर-ब्राह्मण, कुमाऊं-गढ़वाल मैदान और तराई के समीकरणों पर विभाजित रही है। उत्तराखण्ड में कई और भी परंपराएं हैं कि अगर गंगोत्री सीट कोई पार्टी जीत जाएगी तो सरकार उसी दल की बनेगी या फलां विधायक हार जाएगा तो सरकार उस दल की बन जाएगी, इन्हें मिथक कहे या उत्तराखंड की परंपराएं, यह इतनी गूढ़ हो चुकी हैं कि इनके बिना उत्तराखंड कि सियासत का विश्लेषण अधूरा माना जाता है।

साथ ही, 2022 के चुनाव में कुछ और नए समीकरण भी बन रहे हैं। 2007 के बाद से नेपथ्य में चली गई बसपा में इस बार बहार है और दिल्ली से चलकर उत्तराखंड में पदार्पण करने वाली आम आदमी पार्टी अपने अस्तित्व को स्थापित करने के लिए भाजपा-कांग्रेस में सेंधमारी को आतुर दिखाई दे रही है।

उत्तराखंड निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाली यूकेडी भी जोर आजमाइश करने में पीछे नहीं दिखाई दे रही है। प्रचंड बहुमत की सरकार होने के बावजूद भाजपा सरकार आमजन मानस के दिलों तक पहुंचने और विकास की गति को नए आयाम तक पहुंचाने में उतनी सफल नही हो पाई है, जितनी आशा डबल इंजन से की जा सकती थी, यही कारण है कि भाजपा आलाकमान को एंटी इनकंबेंसी का असर अभी से दिखाई देने लगा है।

वैसे भी भाजपा ने 3-3 मुख्यमंत्री बदलकर अपनी ही सरकार के कामकाज पर खुद ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है। इन सब विषय पर हम चर्चा करने और समझने की कोशिश करेंगे कि 2022 का ऊंट किस करवट बैठता है, क्या केंद्रीय योजनाओं और डबल इंजन के सहारे भाजपा सत्ता बचाने में सफल हो पाती है, या फिर उत्तराखंडियत का नारा देने वाले हरीश रावत कांग्रेस को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में सफल हो पाते हैं या फिर दिल्ली को मॉडल बनाकर उत्तराखंड में अपने पांव जमा रही आम आदमी पार्टी का जलवा यहां दिखाई देता है।
सबसे पहले बात करते हैं धार्मिक और जातीय आधार पर उत्तराखंड की राजनीतिक स्थिति क्या है। उत्तराखण्ड की कुल आबादी 10,086,292 ( 2011 जनगणना के आधार पर) है, जो दशकीय वृिद्व दर के आधार पर 2021 में बढ़कर 11,700,099 होने का अनुमान है। धार्मिक आधार पर देखा जाए तो प्रदेश में 82.97 प्रतिशत हिन्दू, 13.95 फीसदी मुस्लिम, 0.37 ईसाई, 2.34 सिख, 0.15 बौद्ध, 0.09 प्रतिशत जैन और 0.12 फीसदी अघोषित व 0.01 प्रतिशत अन्य निवासरत हैं।

इसी आंकडे़ को जाति के आधार पर देखा जाए तो ठाकुर-35, ब्राह्मण-24,एससी-19, अल्पसंख्यक-14 व एसटी 3 प्रतिशत है, लेकिन कुछ क्षेत्रों के एसटी-ओबीसी घोषित होने के कारण वहां के निवासियों की गणना भी ठाकुर-ब्राह्मण होने के बावजूद एसटी-ओबीसी में ही होती है।
एक दिलचस्प बात यह भी बताता चलूं कि देश में जनसंख्या के अनुपात में सर्वाधिक ब्राह्मण उत्तराखण्ड में ही निवास करते है। कहने को तो उत्तराखण्ड निर्माण की मूल अवधारणा पहाड़ों के विकास से जोड़ कर देखी जाती है, मगर प्रदेश के विकास से अधिक व्यक्ति विकास का फामूर्ला सार्थक होता हुआ नजर आता है। अब तक के अनुभव से यह साफ हो जाता है कि यहां सत्ता की लड़ाई हमेशा से ब्राह्मण और ठाकुरों के बीच ही रही है।

उसके कई कारण भी बताए जाते हैं। ब्राह्मण और ठाकुरों की बड़ी संख्या अपने अस्तित्व की खातिर हमेशा से सत्ता पर काबिज रहने की जुगत में रही है। भाजपा और कांग्रेस की ओर से बनाए गए मुख्यमंत्रियों को देखा जाए तो भाजपा ने अब तक नित्यानन्द स्वामी, बीसी खंडूड़ी, रमेश पोखरियाल निशंक के रूप में ब्राह्मण और भगत सिंह कोश्यारी, त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत व पुष्कर सिंह धामी के रूप में ठाकुर सीएम दिए हैं।

जबकि कांग्रेस ने हरीश के रूप में एक मात्र ठाकुर और पंडित नारायण दत तिवारी व विजय बहुगुणा की शक्ल में दो ब्राह्मणों को मुख्यमंत्री के पद से सुशोभित किया है। प्रदेश में राजनीतिक दलों की मजबूरी रही है कि वह मुख्यमंत्री-पार्टी प्रदेश अध्यक्ष बनाते समय ब्राह्मण-ठाकुर, गढ़वाल-कुमाऊं का संतुलन बनाए रखें।
उत्तराखंड में ब्राह्मणों का झुकाव भाजपा की ओर देखने को मिलता है, जिसे एक ताजा उदाहरण से समझा जा सकता है।

भाजपा सरकार के चार साल पूरे होने पर प्रदेश भर में जश्न मनाने को कार्यक्रम तय कर दिये गये थे, मगर देवस्थानम बोर्ड का गठन करने वाले भाजपा के ठाकुर सीएम को गैरसैंण विधानसभा के बजट सत्र से बुलाकर इस्तीफा दिलाया गया, यही नहीं मौजूदा सीएम पुष्कर सिंह धामी ने उस देवस्थानम बोर्ड को ही समाप्त कर दिया जिस के गठन से पुरोहित समाज धरना-प्रदर्शन कर रहा था।

अब ब्राह्मण समाज भाजपा से खुश है, उत्तराखंड में भाजपा किसी भी कीमत पर ब्राह्मणों को नाराज करने का जोखिम नहीं लेना चाहेगी, क्योंकि उत्तराखंड की पहचान देवभूमि के रूप में होती है। वैसे भी कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के पास फिलवक्त ब्राह्मण चेहरों की भरमार है।

पूर्व सीएम व केंद्रीय कैबिनेट मंत्री रहे रमेश पोखरियाल निशंक से लेकर पूर्व सीएम विजय बहुगुणा, सांसद अजय भट्ट, प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक, बंशीधर भगत, सुबोध उनियाल, बिशन सिंह चुफाल व अरविंद पाण्डे सरीखे क्षत्रप मौजूद हैं तो वहीं कांग्रेस के पास प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल, पूर्व पीसीसी अध्यक्ष किशोर उपाध्याय, नव प्रभात, मंत्री प्रसाद नैथानी, मनोज तिवारी व प्रकाश जोशी की टीम है।
सियासत के जानकारों का मानना है कि अब तक ब्राह्मण समाज का झुकाव भाजपा की और रहा है, लेकिन इस बार कुछ समीकरण बदल भी सकते हैं।

भाजपा ने इस बार तीन मुख्यमंत्री बदले, तीनों ही ठाकुर समाज से आते है, यही नहीं प्रदेश अध्यक्ष का पद भी आखिरी समय में हरिद्वार शिफ्ट कर दिया। जातीय समीकरणों के बाद एक नजर गढ़वाल-कुमाऊं व मैदान पर भी डाली जानी चाहिए। उत्तराखण्ड को राजनीतिक तौर पर तीन हिस्सों में बांट कर देखा जाता रहा है। गढ़वाल-कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्र में जहां ब्राह्मण-ठाकुरों का दबदबा है, वहीं मैदान व तराई वाले क्षेत्र में ब्राह्मण-ठाकुर के साथ एससी-एसटी और अल्पसंख्यक समुदाय भी बड़ी संख्या में मतदाता है।
यहां विधानसभा सीटों की संख्या भी अधिक है, यही कारण है कि इस बार भाजपा ने नये समीकरणों को साधने के लिए खटीमा से सीएम ओर हरिद्वार से प्रदेश अध्यक्ष बनाया है, मैदानी जनपद हरिद्वार-उधमसिंह नगर में भाजपा, कांग्रेस के साथ ही बसपा का भी वोट बैंक है, इसके अलावा आम आदमी पार्टी ने भी ताल ठोकी हुई है।

मैदानी क्षेत्र में मिली बढ़त ही सत्ता की दहलीज तक ले जाने में अहम भूमिका निभाएगी। मौजूदा सरकार में देखा जाए तो देहरादून की 10 में से 9, हरिद्वार की 11 में से 8 ओर उधम सिंह नगर की 9 में 8 सीटें भाजपा के पास है।

नैनीताल की 6 में से 5 सीटे भाजपा के पास है, वहीं, बाजपुर-नैनीताल विधायक अब पाला बदल कर कांग्रेस में आ चुके है। 2017 के विधानसभा चुनाव में चार मैदानी जनपदों की 36 विधानसभा सीटों में से 30 पर भाजपा ने कब्जा जमा कर सत्ता हासिल की थी, इस बार भी वही पार्टी सरकार बनाने में सफल हो सकेगी जो इन चार जनपदों में बढ़त बनाएगी।
भाजपा ने पहले ही अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए सीएम धामी और मदन कोशिक को तराई से लाकर अपने इरादे जाहिर कर दिये हैं। कांग्रेस भी मैदानी क्षेत्रों में अपना वजूद बचाने के लिए मेहनत करती हुई दिखाई दे रही है।

पूर्व कैबिनेट मंत्री व पूर्व पीसीसी अध्यक्ष यशपाल आर्य व उनके बेटे संजीव आर्य के बाद सुरेश गंगवार को पार्टी में शामिल कराने से कांग्रेस को भी सहारा मिलने का संकेत है। तराई में कांग्रेस किसान आंदोलन का लाभ लेने की जुगत में थी, लेकिन पीएम मोदी के माफी मांगने, बिल वापस लेने, मुख्य सचिव व राज्यपाल के पद पर सिख को विराजमान कराने से हालात बदल गये है।

अब असल मामला टिकटों के बंटवारे का है। आचार सहिंता लगते ही भाजपा-कांग्रेस में भगदड़ मचने के आसार हैं। इस भगदड़ में कई दिग्गज मौसम का मिजाज भांप कर आस्था बदलने को आतुर है। कुछ की बात हाईकमान से हो चुकी है, कुछ की बात चल रही है, लेकिन पाला बदल कर आने वालों के लिए सीट छोड़ने वालों का क्या होगा? इस पर भी भाजपा-कांग्रेस में विचार चल रहा है।
ठाकुर-ब्राह्मण, कुमाऊं-गढ़वाल, मैदान-तराई के बाद उत्तराखण्ड के मिथक-परंपराओं ओर नई पार्टियों के पदार्पण पर एक नजर डाली जाए। उत्तराखण्ड में एक मिथक यह भी है कि जो भी राजनीतिक दल गंगोत्री विधानसभा सीट जीतती है, सरकार उसी पार्टी की बनती है।

यह मिथक यूं तो 1951 से बताया जाता है, लेकिन राज्य गठन के बाद हुए चुनावों नजर डाली जाए तो 2002 में यहां से विजयपाल सजवाण विजय हुए तो कांग्रेस की सरकार बनी, 2007 में गोपाल सिंह रावत ने जीत दर्ज की तो भाजपा सत्ता में आई, फिर 2012 के विधानसभा चुनाव में सजवाण विजय हुए कांग्रेस सरकार बनाने में सफल रही, 2017 में एक बार फिर से गोपाल रावत ने विजयपाल सजवाण को पड़खनी दी ओर भाजपा की सरकार बन सकी।

अब गोपाल सिंह रावत दिवंगत हो चुके हैं उनकी पत्नी शांति रावत सहित भाजपा से सूरतराम नौटियाल, सुरेश चौहान व जगमोहन रावत सहित करीब आधा दर्जन टिकट के दावेदार मैदान में हैं, वहीं कांग्रेस से विजयपाल सजवाण की मजबूत दावेदारी मानी जा रही है, इसके अलावा आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किये गये कर्नल अजय कोठियाल भी गंगोत्री से ही ताल ठोक रहे हैं।

ऐसे में अब देखना यह होगा कि इस बार भी यह मिथक बरकरार रहता है या नही। मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य यही दिखाई देता है कि जो भी पार्टी टिकटों के बंटवारे में सभी समीकरण साध लेगा वही दल विजय की और कदम बढ़ाएगा।

क्या कहते हैं बुद्धिजीवी…
जब तक उत्तराखंड में जातियों का वर्चस्व खत्म नहीं होगा तब तक ईमानदार राजनीतिक विकल्प खड़ा नहीं हो सकता और सामाजिक सौहार्द कायम नहीं हो सकता है।
ले. जनरल सेवानिवृत्त एमसी भंडारी
प्रदेश में अनुसूचित जाति, जनजाति वर्ग पर अत्याचार बढ़े हैं और उनकी दशा-दिशा में कोई परिवर्तन तो छोड़िए, उनको साथ लगातार दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है। उनकी यह भी शिकायत है कि बुद्धिजीवी वर्ग भी एससी एसटी को समाज की मुख्यधारा में शामिल करना नहीं चाहता है।
जितेंद्र बुटोइया,अनुसूचित जाति, जनजाति एसोसिएशन के उत्तराखंड राज्य महामंत्री
आम जनता के बीच जाति का भेद-भाव सियासी दलों ने पैदा किया है। गढ़वाल-कुमाऊं में पहले भी राजा-महाराजाओं के बीच लड़ाइयां हुई हैं, लेकिन जनता एक साथ रही, अब ऐसा नहीं हो पा रहा है। अब तो हालत यह हो गई है की गांव के गांव जाति के आधार पर एक-दूसरे से विभाजित दिखाई देते हैं। राजनीतिक पार्टियां जनता को बांट कर वोट हासिल करने की सियासत कर रहे हैं। कल्याण सिंह रावत का यह भी कहना है कि जाति के आधार पर वोट नही दिया जाना चाहिए, विकास का मॉडल पेश करने वाले को वोट दिया जाए।
पद्मश्री, कल्याण सिंह रावत

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