किसी की भी सरकार उत्तराखंड में क्यों नहीं आए, उसे सबसे पहले अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश करना होगा। वरना, सरकारी कर्मचारियों को वेतन देना भी भारी पड़ जाएगा। अब भी कई विभागों में समय से सैलरी नहीं आ रही है। इसलिए जो भी सरकार सत्ता में आए, उसे सशक्त उत्तराखंड के विजन के साथ काम करना होगा…
रणविजय सिंह
उत्तराखंड के लिए नव वर्ष काफी महत्वपूर्ण है। यह साल अन्य सालों के मुकाबले इसलिए भी खास है क्योंकि चंद माह के भीतर ही यहां नई सरकार सत्ता संभालेगी। हालांकि, यह कहना बेहद कठिन है कि उत्तराखंड में भाजपा की वापसी होगी या फिर कांग्रेस की सरकार बनेगी।
हां, यह नहीं भूलना चाहिए कि इस बार आम आदमी पार्टी भी विशेष रूप से सक्रिय है। लेकिन इस पार्टी को कितनी सीटें मिलेंगी, यह तो खुद पार्टी के रणनीतिकारों को भी नहीं पता है। सरकार कोई भी आए। उसको तो यहां खाली खजाना ही मिलेगा।
इस मामले को लेकर कांग्रेस श्वेत पत्र जारी करने की मांग भी कर चुकी है। इतना तो सत्य है कि आने वाले सरकार को गंभीर आर्थिक संकट झेलना पड़ेगा। पिछली योजनाएं आज भी धन के अभाव में झूल रही हैं। इस बीच प्रधानमंत्री के अलावा राज्य सरकार भी करोड़ों-अरबों की योजनाओं का शिलान्यास कर चुकी है।
उत्तराखंड की सरकार और केंद्र की सरकार, मतलब डबल इंजन की सरकारों का स्पष्ट कहना है कि आगामी दस सालों के लिए रणनीति बनाई गई है। जबकि, रणनीतिकारों को यह समझना चाहिए कि 10 साल की बात तो दूर है, इन चंद महीनों में क्या होगा, यह किसी को भी नहीं पता है।
पहले तो जो योजनाएं चल रही हैं, समय पर पूरी किस तरह से की जाएं, इस पर सभी को ध्यान देने की आवश्यकता है। दुर्भाग्य यह है कि धन के अभाव में केंद्र और राज्य, दोनों की ही योजनाएं धरातल पर नहीं दिख रही हैं।
डबल इंजन का मतलब होता है, बड़ी ताकत। तो आखिर क्यों फंडिंग के अभाव में योजनाएं अधर में हैं। अब तो वर्तमान सरकार के दिन भी गिनती के हैं। ऐसे में अगले 10 साल के लिए चुनावी समय में योजनाओं का कागजी घोड़ा दौड़ाना, तर्क संगत नहीं है।
ऐसी बात नहीं है कि सरकारें दीर्घकालिक योजनाएं नहीं बनाती हैं। खूब बनाती हैं लेकिन चुनाव के एक माह पहले नहीं बनाती हैं। 10-10 साल की योजनाएं बनती हैं। दीर्घकालिक योजनाओं की प्लानिंग बनती है। यहां तो जो कुछ हो रहा है चुनाव को ध्यान में रखकर ही।
योजनाओं के लिए पैसे किस मद से आएंगे, इसकी चिंता किसी को नहीं है। वैकेंसी दनादन निकाली जा रही हैं। पर होगा क्या? यही वैकेंसी दो साल पहले निकाली गई होतीं तो लोगों में उम्मीद भी जगती।
उत्तराखंड के लोगों को पता है कि पिछले एक माह से सरकार जो कुछ कर रही है, महज चुनावी स्टंट के सिवाय और कोई भी नहीं है। सरकारी खजाना खाली है। वर्ल्ड बैंक हो या कर्ज लेने का अन्य जरिया, उत्तराखंड सरकार ने किसी को भी नहीं बख्शा है। कर्ज तले आम आदमी दबा हुआ है।
तभी तो कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने सरकार से श्वेत पत्र जारी करने की मांग की है। अब अगली सरकार उत्तराखंड में किसी की भी क्यों नहीं आए, उसे आर्थिक संकट से जूझना होगा और यह सरकार के लिए बड़ी चुनौती है।
वैसे सरकार के पास आय बढ़ाने के कई साधन हैं।
ऊर्जा है, पर्यटन है, खासकर चारधाम है, पर सरकार गंभीर कभी नहीं रही। सच्चाई तो यह है कि दिवंगत मुख्यमंत्री एनडी तिवारी के मुख्यमंत्रित्व काल में ही विकास की रूपरेखा तैयार की गई। उसके बाद उत्तराखंड के राजनेताओं में इच्छा शक्ति का अभाव जरूर देखने को मिला। ऐेसा भी नहीं है कि एनडी तिवारी के बाद उत्तराखंड को अच्छा मुख्यमंत्री नहीं मिला है।
भुवन चंद्र खंडूड़ी तथा त्रिवेंद्र सिंह रावत जैसे मुख्यमंत्री उत्तराखंड को मिले लेकिन दिक्कत यह है कि दोनों को बीच में हटाया गया। जबकि, न ही खंडूड़ी और न ही त्रिवेंद्र सिंह पर कोई आरोप था। हालांकि, उस दौरान दोबारा खंडूड़ी की वापसी हो गई थी लेकिन जनता के अंदर तो मैसेज चला गया था कि सब कुछ ढुलमुल है। बार-बार मुख्यमंत्री बदला गया। इसका असर तो आगामी विधानसभा चुनाव में दिखना तय है।
बहरहाल, किसी की भी सरकार उत्तराखंड में क्यों नहीं आए, उसे सबसे पहले अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश करना होगा। वरना, सरकारी कर्मचारियों को वेतन देना भी भारी पड़ जाएगा।
अब भी कई विभागों में समय से सैलरी नहीं आ रही है। इसलिए जो भी सरकार सत्ता में आए, उसे सशक्त उत्तराखंड के विजन के साथ काम करना होगा। ताकि, अर्थव्यवस्था को सशक्त किया जा सके।