ममता सिंह, कार्यकारी संपादक।
बीते कुछ सालों में राजनीतिक विचारधारा ही हाशिए पर जाती दिख रही है। आज कल नेताओं में सत्ता से विलग होने का डर इतना हावी हो गया है कि उनका रुझान केंद्र में जिसकी सरकार है, उसी ओर हो जाता है। पूर्वोत्तर के आठों राज्य हों या देश के अन्य छोटे पर्वतीय राज्य, दल बदल की राजनीति एक स्याह सच बना गया है।
इसका एक नमूना देखना हो तो मणिपुर को ही देख लीजिए। इस बार यहां मामला इतना उलझ गया है भाजपा के लिए, कि एक-एक विधानसभा सीट में कम से कम 3 से 6 तक दावेदार पैदा हो गए हैं और इनमें से ज्यादातर वे हैं जिनका अपना जनाधार भी है। ऐसे में यहां टिकट बंटवारा और उसके बाद उपजे हालात से निपटना पार्टी और संगठन के लिए आसान नहीं होगा। इसके अलावा भाजपा ने इस बार अपनी रणनीति में कुछ परिवर्तन भी किए हैं जैसे वह असम विधानसभा चुनाव की तरह यहां भी मुख्यमंत्री के चेहरे के आधार पर नहीं, बल्कि विकासकार्यों के आधार पर चुनाव लड़ेगी, वहीं सभी 60 सीटों पर बिना महागठबंधन पार्टियों को साथ लिए अकेले ही चुनाव मैदान में उतरेगी।
विधानसभा चुनाव नजदीक आते आते कांग्रेस, सरकार के सहयोगी दलों के नेताओं ने भी भाजपा का दामन थामने में खासी मुस्तैदी दिखाई है। ऐसे में कांग्रेस के पास दमदार प्रत्याशियों का टोटा बना हुआ है। कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका कुछ माह पहले उस वक्त लगा जब बिशनपुर सीट से 6 बार विधायक रहे प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष गोविंदास कोंथुजाम ही भाजपा में शामिल हो गए। और साल 2021 जाते-जाते भाजपा की सहयोगी पार्टी एनपीपी को ही बड़ा झटका लगा, जब सरकार में मंत्री लेतपाव हाउकिप ने भाजपा का दामन थाम लिया। ऐसे में चुनावी समर में अब दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियां किसी बड़े नुकसान से बचने के लिए फंूक-फंूक कर कदम बढ़ा रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मणिपुर पहुंच कर कई सौगातें देने वाले हैं और कांग्रेस के बड़े नेता भी आने वाले समय में कई वायदे करके जनता को रिझाने की हरसंभव कोशिश करेंगे, लेकिन जनता के दिल में क्या है, इसका पता तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे।
मणिपुर की कुल आबादी करीब साढ़े 28 लाख है। पूरा राज्य घाटी और पहाड़ी क्षेत्र में बटा है, इस कारण यहां भौगोलिक जटिलताएं ज्यादा हैं। यदि राजधानी इंफाल की बात करें तो वो घाटी क्षेत्र है जिसके अंतर्गत राज्य की 60 में 39 विधानसभा सीटें आती हैं, यह पूरा मैतेई बहुल इलाका है। बाकी 21 सीटें पहाड़ी क्षेत्र में हैं। मैतेई लोगों की वैष्णव धर्म में विशेष आस्था है और श्रीकृष्ण इनके आराध्य हैं। बीते कुछ सालों में भाजपा और संगठन ने राज्य के प्रभावशाली मैतेई समुदाय के बीच अपनी पैठ बनाई है जिसके परिणाम आगामी चुनाव में देखने को मिलेंगे। लेकिन अब प्रगतिशील मैतेई लोगों ने भी जनजातीय स्टेट्स की मांग उठानी शुरू कर दी है जिससे वहां के जनजातीय लोगों में खासा आक्रोश है।
मणिपुरी समाज है तो पुरुष प्रधान। लेकिन यहां के समाज में महिलाएं घरों, कार्यस्थलों और समुदायों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे ज्वलंत मुद्दों पर एकजुट हो जाती हैं। इतिहास गवाह है कि देश के सबसे शक्तिशाली महिला आंदोलन इसी राज्य में हुए हैं। मणिपुरी महिलाओं के साहस और प्रतिवाद के किस्से दूर-दूर तक जाने जाते हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है इंफाल स्थित ईमा कैथल यानी मदर्स मार्केट। करीब 500 साल पुराना यह बाजार महिला सशक्तिकरण की मिसाल है। इसे मणिपुर की सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का केंद्र माना जाता है। इस तरह मणिपुर के सामाजिक जीवन में महिलाओं का अहम स्थान है। ऐसे में महिला वोटरों को एकजुट करने के लिए भाजपा ने दो सशक्त महिला नेत्रियों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपकर बड़ा दांव खेला है। इनमें से एक हैं भाजपा की वरिष्ठ नेत्री ए. शारदा देवी, जिन्हें जून 2021 में मणिपुर में पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। वहीं, केंद्र से चुनाव सह प्रभारी के तौर पर केंद्रीय सामाजिक न्याय और सहकारिता राज्य मंत्री प्रतिमा भौमिक को मणिपुर भेजा गया है। त्रिपुरा की सांसद प्रतिमा भौमिक भी शारदा देवी की ही तरह संगठन कौशल में माहिर और जमीनी नेता हैं। दोनों ही संगठन और पार्टी के साथ लंबे समय से जुड़ी हैं। जिम्मेदारी मिलते ही राज्य के कोने-कोने में यात्राएं कर भाजपा की पहुंच को बढ़ाया है। अकेले प्रतिमा भौमिक बीते 3 माह में 24 से अधिक बार दिल्ली-त्रिपुरा और मणिपुर के दौरे कर चुकी हैं। 24 से ज्यादा सुदूरवर्ती विधानसभा क्षेत्रों में बैठकें, सभाएं और रैलियां कर चुकी हैं, ताकि महिला वोटरों को साधा जा सकें। इसके अलावा भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, मणिपुर के चुनाव प्रभारी भूपेंद्र यादव, सीएम एन. बीरेन सिंह समेत तमाम दिग्गज नेता मणिपुर की स्थितियों पर नजर रख रहे हैं, ताकि किसी भी स्थिति में भाजपा को नुकसान न झेलना पड़े।
नेडा के बैनर तले नहीं होंगे चुनाव
नॉर्थ-ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस यानी नेडा के संयोजक और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के मुताबिक, मणिपुर में भाजपा महागठबंधन के बिना सभी 60 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। नेडा के बैनर तले चुनाव नहीं होंगे। लेकिन चुनाव के बाद सभी दल साथ मिल कर आगे की रणनीति में शामिल होंगे।
पार्टी ने शायद यह फैसला इसलिए भी किया है कि इस बार वह पहाड़ी और मैदानी इलाकों में खुद को अकेले दम पर परखना चाहती है। लेकिन 2014 से पहले तक यह आत्मविश्वास भाजपा को कभी नहीं रहा कि यहां उसके लिए हालात इतने बेहतर भी हो सकते हैं।
इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि मणिपुर में भाजपा की सहयोगी पार्टी नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) और नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) अफस्पा समेत कई मामलों को लेकर मुखर रही हैं। बीते 2020 का मामला ही देखें तो भाजपा सरकार पर ही संकट के बादल छा गए थे फिर बमुश्किल मामले का पटाक्षेप हुआ। वहीं, कई मुद्दों पर पहाड़ और मैदान क्षेत्र के लोगों में मतभिन्नताएं हैं। इसके अलावा भी कई ऐसे कारण हैं जिसे देखते-समझते हुए भाजपा ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला लिया है। राजनीति के जानकार मान रहे हैं कि मणिपुर में इस बार मुख्य मुकाबला तो भाजपा और कांग्रेस के बीच ही है।
लेकिन भाजपा की सहयोगी पार्टियां नेशनल पीपुल्स का मैदानी क्षेत्रों में और नागा पीपुल्स पार्टी का पहाड़ी क्षेत्रों में अपने वोट बैंक हैं और यदि अकेले दम पर बहुमत का आंकड़ा न मिला तो दोनों ही पार्टियों की सरकार गठन में अहम भूमिका हो सकती है।
मणिपुर में भाजपा नीत सरकार के पहले मुख्यमंत्री नोंगथोमबाम बिरेन सिंह हैं। हालांकि, साल 2017 में भाजपा को 60 में से 21 सीटें मिलीं थीं और उसे गठबंधन सरकार के लिए मजबूर होना पड़ा था, जबकि कांग्रेस ने 28 सीटें हासिल की थीं। यानी, 31 सीटों के बहुमत के आंकड़े को दोनों ही नहीं छू पाये थे।
लेकिन भाजपा ने जोड़-तोड़ के जरिए 3 क्षेत्रीय दलों एनपीएफ, एनपीपी और लोकजनशक्ति पार्टी के समर्थन से सरकार बना ली। और सर्वाधिक सीट जीतने के बाद भी कांग्रेस को विपक्ष में ही बैठना पड़ा। लेकिन इस बार भाजपा अकेले ही बहुमत का आंकड़ा पार करना चाहती है। ऐसे में इस बार भाजपा की चुनावी रणनीति छोटी पार्टियों की बैसाखी को छोड़कर खुद अपने दम पर बहुमत लाने की है। लेकिन यह रणनीति कितने बढ़िया परिणाम देती है, इसका पता तो चुनाव के बाद ही चलेगा।
राजनीति के जानकार मान रहे हैं कि पिछली बार तो 15 साल से सत्ता में कायम कांग्रेस को सत्ता से हटा कर एन बीरेन सिंह ने क्षेत्रीय दलों के साथ मिल कर सरकार बना ली। लेकिन इस बार पूरे पांच साल के कामकाज का रिपोर्ट कार्ड लेकर पार्टी चुनाव लड़ेगी, ऐसे में बहुमत का आंकड़ा यानी 31 सीट लाना बड़ी बात तो नहीं है लेकिन 40 तक का लक्ष्य पार करना आसान नहीं है। ऐसे में यदि बहुमत मिला तो भाजपा की ए टीम सरकार बनाएगी, वरना महागठबंधन वाली बी टीम के गठजोड़ वाली सरकार बन सकती है।
एक तरफ तो भाजपा अन्य दलों के मजबूत नेताओं को जोड़ कर अपना विस्तार कर रही है। अभी जो स्थिति है उसके मुताबिक सबसे अधिक भाजपा के टिकट की मांग है। अधिकतर नेता भाजपा से टिकट पाने को भाग-दौड़ कर रहे हैं। दूसरी प्राथमिकता मेघालय के मुख्यमंत्री कोरनाड संगमा की पार्टी एनपीपी है। इसका भी प्रभाव हाल के दिनों में बढ़ा है। पर्वतीय इलाकों में एनपीएफ के टिकटों के लिए मारामारी है। जहां तक कांग्रेस पार्टी का सवाल है तो वह पिछले कुछ समय में और कमजोर हुई है। कई मजबूत और प्रभावशाली नेता पार्टी छोड़ चुके हैं। अब उसे नये चेहरों के दम पर चुनाव में उतरना होगा। तृणमूल कांग्रेस ने भी इस बार मणिपुर में चुनाव लड़ने की तैयारी की है। 2012 में वह यहां 7 सीट जीत चुकी है। 2017 में उसे एक सीट मिली थी।बहरहाल, पूर्वोत्तर के 60 सीटों वाले मणिपुर विधानसभा का कार्यकाल 19 मार्च 2022 को समाप्त हो रहा है। ऐसे में इससे पहले राज्य में सरकार के गठन की प्रक्रिया पूरी करनी होगी। वैसे भाजपा ने एक बार फिर से मणिपुर की सत्ता के बचाए रखने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपने मणिपुर दौरे के दौरान मणिपुर को कई बड़ी सौगातें देने वाले हैं। ऐसे में देखना दिलचस्प है कि 2022 में बीजेपी अपना सियासी वर्चस्व बचाए रखती है या विपक्ष सेंध लगाएगा?
मुख्य मुद्दे
मणिपुर समेत पूरे पूर्वोत्तर का सामरिक महत्व काफी है, क्योंकि चीन, म्यांमार, बांग्लादेश और भूटान की अंतर्राष्ट्रीय सीमाएं इससे लगती हैं। इसलिए इस प्रदेश को अशांत व संवेदनशील माना जाता है, इसीलिए यहां के कुछ राज्यों के कुछ हिस्सों में अफस्पा लागू है, लेकिन नागालैंड की ताजा घटना के बाद इस कठोर कानून को वापस लेने की मांग एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बन रहा है। खासकर, नागा बहुल पहाड़ी क्षेत्रों में। वहीं, नार्थईस्ट स्टूडेंट यूनियन यानी नेसो के तहत घाटी क्षेत्र के युवा भी इसी मांग को दोहरा रहे हैं। जानकार मानते हैं कि इस मुद्दे पर भाजपा को अपना रुख साफ करने की जरूरत है।
सीएम नहीं बनेंगे चुनावी चेहरा
इस बार भाजपा बीते वर्ष हुए असम विधानसभा चुनाव की तर्ज पर ही मणिपुर चुनाव भी लड़ने की तैयारी में है। हालांकि, कांग्रेस से भाजपा में आए एन. बीरेन सिंह ने अपने कार्यकाल में भारत सरकार की योजनाओं को जमीनी स्तर पर ठीक ढंग से लागू करवाने के अलावा राज्य स्तर पर कई विकास कार्य किए हैं, साथ ही 2020 में सरकार पर आए संकट से निपटते हुए अपना 5 वर्ष का कार्यकाल पूरा करने जा रहे हैं। मोटे तौर माना जाता है कि वे राज्य के गैर जनजातीय तथा जनजातीय नगा और कुकी समुदाय के बीच सामंजस्य बनाए रखने में सफल रहे हैं।लेकिन राजनीति के जानकार मान रहे हैं कि पार्टी यदि सत्ता में आई तो इस बार असम में सबार्नंद सोनोवाल की जगह बिस्वा सरमा जैसे किसी तेज तर्रार और युवा चेहरे को मुख्यमंत्री बना सकती है। और एन. बीरेन सिंह को सबार्नंद सोनोवाल की तरह केंद्र में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जा सकती है। हालांकि, मणिपुर में सीएम के दावेदारों में ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री एवं सूचना और जनसंपर्क मंत्री थोंगम बिस्वजीत सिंह का नाम सबसे आगे चल रहा है। वे आरएसएस के बड़े नेताओं के करीबी माने जाते हैं। बिस्वजीत सिंह इंफाल पूर्वी जिले के थोंगजू निर्वाचन क्षेत्र से मणिपुर विधान सभा के सदस्य हैं।
हिल एरिया में अफस्पा रहेगा मुद्दा
भारत की अखंडता को कायम रखने, आतंकवाद और उग्रवाद की समस्या पर नियंत्रण के लिए पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में सशस्त्र बल (विशेष शक्ति) अधिनियम यानी अफस्पा लागू किया गया है। लेकिन नागालैंड की हालिया घटना के बाद मणिपुर के कुछ हिस्सों में खासकर नागा बहुल पहाड़ी क्षेत्रों में अफस्पा को लेकर नकारात्मक प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। ऐसे में मौजूदा समय में यह सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बनता दिख रहा है। मणिपुर में अफस्पा हटाने का वायदा उसी तरह है जैसे देश से गरीबी हटाने का वायदा है। इसके पहले कांग्रेस यहां 15 साल तक सत्ता में रही। लेकिन उसने कभी इस कानून को हटाने के लिए पहल नहीं की। सिर्फ वोट के लिए इस मुद्दे को उछाला जाता है।वैसे अफस्पा के खिलाफ लौह महिला इरोम शर्मिला उनके आंदोलन का देश और दुनिया भर में नाम था, क्योंकि उन्होंने इसे हटाने के लिए 16 साल तक लगातार अनशन किया था। लेकिन जब वे 2017 के चुनाव में खड़ी हुईं तो उनकी शर्मनाक हार हुई। उन्हें सिर्फ 90 वोट मिले थे। मतदान की यह प्रवृत्ति अचंभित करने वाली है। ऐसे में यह कहना मुश्किल है कि इस बार यह कितना काम करेगा, क्योंकि मणिपुर के लोग इस कठोर कानून का विरोध तो करते हैं लेकिन जब राजनीतिक फैसले का वक्त आता है तो चुप्पी साध लेते हैं।
क्या है अफस्पा
सशस्त्र बल (विशेष शक्ति) अधिनियम, 1958 यानी अफस्पा अशांत क्षेत्र निर्धारित किए इलाकों में सशस्त्र बलों को विशेष शक्तियां प्रदान करता है। अफ्सपा को साल 1958 में एक अध्यादेश के जरिए लाया गया, उसके तीन महीने बाद ही इसे संसद की स्वीकृति भी मिल गई जो 11 सितंबर, 1958 को लागू हुआ था। शुरू में यह पूर्वोत्तर और पंजाब के उन क्षेत्रों में लगाया गया था, जिनको अशांत क्षेत्र घोषित किया गया था। इनमें से ज्यादातर अशांत क्षेत्र की सीमाएं पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश और म्यांमार से सटी थीं।
नेसो के बैनर तले युवा हुए एकजुट
पूर्वोत्तर राज्यों के युवाओं का संयुक्त यूनियन नार्थईस्ट स्टूडेंट आर्गेनाइजेशन यानी नेसो के तहत अफस्पा हटाने की मांग नगालैंड, मणिपुर समेत अन्य राज्यों में जोर पकड़ने लगी है। हालांकि, भारत सरकार ने नगालैंड की घटना की विवेचना के बाद आम जनता के हितों की रक्षा के लिए इसे जरूरी बताया है लेकिन फिर भी युवाओं का आक्रोश थम नहीं रहा है। ऐसे में मणिपुर विधानसभा चुनाव में युवाओं भी निर्णायक भूमिका निभाते हुए अंतिम समय में बड़ा फेरबदल कर सकते हैं।
कांग्रेस जीती तो हटाएगी अफस्पा
कांग्रेस ने याद दिलाया है कि अफस्पा को सात विधानसभा क्षेत्रों (राज्य की राजधानी इंफाल सहित) से तब हटा दिया गया था जब वह सत्ता में थी। इस बार भी कांग्रेस ने घोषणा किया है कि यदि उनकी सरकार बनी तो पहली कैबिनेट बैठक में ही पूरे राज्य से अफस्पा को तत्काल और पूर्ण रूप से हटाने का फैसला लिया जाएगा। वहीं, भाजपा की सहयोगी पार्टी नगा पीपुल्स फ्रंट और नेशनल पीपुल्स पार्टी भी इस कानून को वापस लेने की मांग को लेकर मुखर रही हैं।
आईएलपी में संशोधन की मांग
मणिपुर राज्य में इनर लाइन परमिट तो लागू कर दिया गया लेकिन इसमें भी कई खामियां हैं जिसे दूर करने की मांग हो रही है। पिछले दिनों मणिपुर की इनर लाइन परमिट प्रणाली को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और मणिपुर सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। याचिका में मणिपुर इनर लाइन परमिट दिशा निर्देश 2019 को रद्द करने की मांग की गई है। विरोध करने वाले लोगों का कहना है कि यह राज्य के भीतर पर्यटन को भी बाधित करेगा जो इन क्षेत्रों के लिए राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है।
मैतई समुदाय की मांग का विरोध
मणिपुर के मैतेई शासकों का समृद्ध इतिहास रहा है। यहां के योद्धाओं ने सीमित संसाधनों में अंग्रेजों की विशाल सेना का मुकाबला किया। थौबल जिले का खोंगजोम युद्ध स्मारक और इंफाल स्थित शहीद मीनार इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। भगवान श्रीकृष्ण का पत्नी रुक्मणी का मायका मणिपुर ही माना जाता है। इसलिए मणिपुर घाटी में बसने वाले मैतेई लोगों के लिए कृष्ण ही सबकुछ है। दिलचस्प बात यह है कि राज्य का सबसे प्रभावशाली समुदाय होने के बाद भी यह समाज अनुसूचित जनजाति वर्ग (आदिवासी) में आरक्षण की मांग कर रहा है। राज्य की दूसरी जनजातियां इसका कड़ा विरोध कर रही हैं, क्योंकि इससे उन्हें अपने अधिकार बंटने का अंदेशा है। हालांकि, सरकार ने इस मांग पर अभी कोई निर्णय नहीं लिया है, लेकिन फिर भी यह चुनावी मुद्दा बन ही गया है।
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