सुशील उपाध्याय
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का अध्याय-13 उच्च शिक्षण संस्थानों में ‘प्रेरित, सक्रिय और सक्षम’ शिक्षकों की नियुक्ति की बात कहता है, लेकिन पूरी नीति में नियुक्ति प्रक्रिया के बारे में कोई ठोस संकेत नहीं मिलता। अलबत्ता, यह जरूर कहा गया है कि विश्वविद्यालयों और समकक्ष संस्थानों में एकल स्तर यानि संबंधित संस्थाओं द्वारा ही नियुक्ति की जाएंगी।
वर्तमान में प्रोफेसरों, सह-प्रोफेसरों और सहायक प्रोफेसरों की नियुक्ति यूजीसी के जुलाई, 2018 के रेगुलेशन के अनुरूप की जा रही हैं। लेकिन, इस रेगुलेशन में मेरिट के निर्धारण में ऐसी कई बड़ी कमियां हैं, जिनके चलते करीब साढे़ तीन साल बाद भी यह तय नहीं हो सका है कि अकादमिक मेरिट को कितना वेटेज दिया जाएगा और कितने नंबरों का साक्षात्कार लिया जाएगा।
रोचक, लेकिन खेदजनक बात यह है कि इस रेगुलेशन में एंट्री लेवल यानि सहायक प्रोफसर की नियुक्ति के लिए भी साक्षात्कार के अंकों का निर्धारण ही नहीं किया है।इस रेगुलेशन में प्रोफेसर और सह-प्रोफेसर के पदों पर प्रमोशन की प्रक्रिया तो स्पष्ट है, लेकिन सीधी भर्ती के मामले में साक्षात्कार के अंकों पर खामोशी दर्ज है।
यही हाल महाविद्यालय के प्राचार्य पदों को लेकर भी है। इसका परिणाम यह है कि कुछ राज्यों के उच्च शिक्षा चयन आयोगों अथवा लोक सेवा आयोगों द्वारा 100 अंक का साक्षात्कार लिया जा रहा है, जबकि अकादमिक मेरिट को केवल स्क्रीनिंग के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है।
इसी प्रकार कुछ विश्वविद्यालयों ने अकादमिक मेरिट का वेटेज 80 प्रतिशत तय किया है और 20 अंकों का इंटरव्यू लेकर अंतिम मेरिट तैयार की जा रही है। कहीं पर अकादमिक वेटेज और इंटरव्यू के लिए 50-50 अथवा 100-100 अंक तय किए हैं और दोनों को मिलाकर मेरिट बनाई जा रही है।
यानि, जहां, जिसकी और जैसी सुविधा हो, उसी के अनुरूप प्रक्रिया पूरी की जा रही है। इस स्थिति के लिए संस्थानों को इसलिए दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि वे यूजीसी और राज्य सरकारों के निर्देशों का पालन कर रहे हैं।
इससे भी बड़ा मामला अकादमिक रिकाॅर्ड के अंकों को लेकर है। सहायक प्रोफेसर की अकादमिक मेरिट के लिए 100 अंकों को आठ उपश्रेणियों में विभाजित किया गया है। इन श्रेणियों में विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के लिए शैक्षिक डिग्री के अंकों में कुछ अंतर रखा गया है। पहली श्रेणी स्नातक अंकों की है, जिसे स्नातक डिग्री के प्राप्तांकों के आधार पर चार भागों में बांटकर 45-55 प्रतिशत तक 10 अंक, 55-60 प्रतिशत तक 16 अंक, 60-80 प्रतिशत तक 19 अंक और 80-100 प्रतिशत के लिए 21 अंक तय किए गए हैं। ये अंक महाविद्यालयों कर चयन प्रक्रिया के हैं, जबकि उपर्युक्त के लिए विश्वविद्यालय स्तर पर क्रमशः 05, 10, 13 और 15 अंक तय किए गए हैं। इसी प्रकार स्नातकोत्तर डिग्री के लिए तीन श्रेणियां बनाई गई हैं। 55-60 प्रतिशत के लिए 20 अंक, 60-80 प्रतिशत लिए 23 अंक और 80-100 प्रतिशत के लिए 25 अंक निर्धारित किए गए हैं। स्नातकोत्तर स्तर पर महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों, दोनों की अकादमिक मेरिट के लिए समान अंक तय किए गए हैं।
चूंकि, किसी भी आवेदक के चयन के मामले में उपर्युक्त अंकों की बेहद महत्पपूर्ण भूमिका होगी इसलिए ये सवाल स्वाभाविक है कि इन्हें विभिन्न उपश्रेणियों में बांटने और उन उपश्रेणियों के लिए अंक तय करने के लिए कौन-सा पैमाना लागू किया गया है, इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है। उदाहरण के लिए काॅलेज स्तरीय चयन के मामले में स्नातक डिग्री में 55 प्रतिशत अंक पाने वाला आवेदक 10 वेटेज अंकों का हकदार होगा, जबकि 55.10 अंक पाने वाला आवेदक 16 अंक पा जाएगा। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि 0.10 अंक अधिक होते ही संबंधित आवेदक 55-60 श्रेणी में पहुंचकर 16 अंकों का हकदार हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि 0.10 का अंतर आते ही मेरिट में 6 नंबर बढ़ जाएंगे।
अब खुद सोचिए कि इससे बड़ी कोई अंधेरगर्दी हो सकती है। जबकि, इसका बेहतर और आसान तरीका यह हो सकता था कि हरेक आवेदक के लिए उनकी स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्री में प्राप्त अंकों के प्रतिशत का एक हिस्सा मेरिट में जोड़ा जाता। इसे स्नातक स्तर पर 20 प्रतिशत और स्नातकोत्तर पर 30 प्रतिशत रखा जा सकता था। इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं। किसी आवेदक ने स्नातक डिग्री में 50 फीसद और स्नातकोत्तर में 60 फीसद अंक प्राप्त किए हैं तो उन्हें 50 फीसद का 20 प्रतिशत यानि 10 अंक और 60 फीसद का 25 प्रतिशत यानि 15 अंक प्रदान कर दिए जाते। इसी प्रकार दोनों डिग्रियों में क्रमशः 51 और 61 फीसद अंक पाने वाले को क्रमशः 10.2 और 15.3 अंक मिलते। यह तर्क किसी भी समझ में आएगा, लेकिन जुलाई, 2018 के रेगुलेशन में जिस प्रकार अंकों का निर्धारण किया गया है, वह किसी भी स्तर पर तार्किक नहीं है।
इस अकादमिक मेरिट में शिक्षण अनुभव के लिए भी अंक तय किए गए हैं, लेकिन कहीं पर भी यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि उक्त अनुभव रेगुलर श्रेणी का होना चाहिए या किसी भी संस्था का और किसी भी श्रेणी (अस्थायी, अतिथि, तदर्थ, अंशकालिक, अवैतनिक आदि) का अनुभव मान्य होगा। पीएचडी डिग्री और नेट-जेआरएफ के आधार पर मिलने वाले अंक भी महाद्यिालय की चयन प्रक्रिया में अलग हैं और विश्वविद्यालय में अलग हैं। ये भी तर्क से परे है कि समान पद और समान डिग्री के बावजूद वेटेज अंक अलग-अलग होंगे। यानि कुल मिलाकर कई स्तरों पर झोल है। अब उम्मीद की जा रही थी कि नई नीति में इन सभी विसंगतियों को दूर करने की सुस्पष्ट कार्ययोजना का संकेत होगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। पहले की तरह ही इस मामले में यूजीसी और राज्य सरकारों पर ही छोड़ा गया है। अब, जबकि चयन का सिस्टम पुराना है तो फिर ‘प्रेरित, सक्रिय और सक्षम’ शिक्षकों के चयन का मसला अधर में रहेगा। हालांकि, कुछ लोग कह सकते हैं कि चयन प्रक्रिया का उल्लेख करना नीति का हिस्सा होना अनिवार्य नहीं है, लेकिन विभिन्न सरकारों की ऐसी कई नीतियां मौजूद हैं, जहां चयन प्रक्रिया के बारे में स्पष्ट किया गया है ताकि संबंधित नीति के उद्देश्य को वास्तव में प्राप्त किया जा सके।