कोई नीति अच्छी है या बुरी है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसे तैयार करने और लागू करने के पीछे की क्या मंशा है। कई बार अच्छी नीतियां इस कारण फेल हो जाती हैं कि उन्हें लागू करने की प्रक्रिया ठीक नहीं होती और अक्सर ऐसा भी होता है कि किसी नीति में इरादतन ऐसी खामियां छोड़ दी जाएं जिन्हें क्रियान्वयन के दौरान ठीक कर पाना लगभग नामुमकिन हो जाता है।
एक तीसरा पहलू यह भी है कि नीति तैयार करने वाले लोग किसी खास दिशा में ही सोच रहे हों और उन्हें अन्य पक्ष ज्यादा महत्वपूर्ण न लग रहे हों। इस श्रंखला में नई शिक्षा नीति से जुड़े ऐसे ही कुछ पहलुओं पर टिप्पणी की जाएंगी।
उच्च शिक्षा के संदर्भ में नई शिक्षा नीति (एनईपी) में एक बहुत महत्वपूर्ण बात बताई गई है कि अब सीनियर सेकेंडरी के बाद किसी भी डिग्री कोर्स में एडमिशन लेने वाले युवाओं के लिए मल्टी-एग्जिट और मल्टी-एंट्री की व्यवस्था लागू होगी।
यानि छात्र अपनी सुविधा के अनुरूप एक, दो, तीन, चार, पांच या छह साल की पढ़ाई कर सकेगा। पहले साल की पढ़ाई पूरी करने पर सर्टिफिकेट, दूसरे साल के बाद डिप्लोमा, तीसरे साल पर सामान्य ग्रेजुएट, चौथे साल पर ग्रेजुएट विद रिसर्च, पांचवें साल पर इंटीग्रेटिड पोस्ट ग्रेजुएट और छठे साल पर पोस्ट ग्रेजुएट विद रिसर्च की डिग्री मिलेगी।
इसे क्रांतिकारी कदम बताया जा रहा है। हालांकि, ऐसा बिल्कुल नहीं है कि दुनिया में पूर्व में कहीं ऐसी व्यवस्था नहीं रही है। पुराने सोवियत संघ में लगभग ऐसा ही ढांचा लागू रहा है। यह देखने में काफी आकर्षक लगता है, लेकिन इसे लेकर कुछ व्यावहारिक दिक्कतें हैं। खासतौर से मानविकी और सामाजिक विज्ञान विषयों के संदर्भ में इसके व्यावहारिक होने पर सवाल खड़े हैं।
अभी तक ज्यादातर विश्वविद्यालयों में तीन-तीन साल के ग्रेजुएट पास प्रोग्राम और ग्रेजुएट ऑनर्स प्रोग्राम संचालित होते हैं। (कुछ साल पहले दिल्ली विश्वविद्यालय ने चार साल का ग्रेजुएट प्रोग्राम शुरू किया था, लेकिन उसे विरोध के बाद वापस ले लिया गया था। इससे पहले यूजीसी ने चार साल का डबल डिग्री प्रोग्राम भी आरंभ किया था, जिसमें तीन साल की पढ़ाई पर करने पर ग्रेजुएट पास डिग्री और चौथे साल की पढ़ाई पूरी करने पर ग्रेजुएट वोकेशनल डिग्री दी जाती थी।
अब इसी में थोड़ा बहुत फेर-बदल करके इसे नई पॉलिसी में शामिल किया गया है।) नई व्यवस्था में दो तरह के ग्रेजुएट प्रोग्राम होंगे। तीन साल का ग्रेजुएट और चार साल का ग्रेजुएट विद रिसर्च प्रोग्राम।
इन दोनों उपाधियों के संदर्भ में ज्यादा दिक्कतें नहीं हैं। असली समस्या सर्टिफिकेट और डिप्लोमा को लेकर है। उदाहरण के लिए कोई छात्र राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र, इतिहास आदि विषयों के साथ पढ़ाई कर रहा है और वह एक या दो साल के बाद पढ़ाई छोड़ देता है।
ऐसी स्थिति में उसे सर्टिफिकेट/डिप्लोमा प्रदान किया जाएगा। अब सवाल यह है कि उपर्युक्त विषयों वाले इस सर्टिफिकेट/डिप्लोमा के आधार पर उसे रोजगार बाजार में कहां पर काम मिलेगा! उसे तभी काम मिल सकता है जब ये सर्टिफिकेट/डिप्लोमा किसी वोकेशनल या टेक्निकल सब्जेक्ट के साथ हों।
मसलन, एप्लाइड कॉमर्स, कंप्यूटर, ड्राइंग-पेंटिंग, होम साइंस, एप्लाइड मैथ्स, लैंग्वेज-ट्रांसलेशन, क्रिएटिव राइटिंग आदि में तो रोजगार की संभावना बन सकती है, लेकिन सामान्य उपाधियों में पढ़ाए जाने वाले विषयों के आधार पर उन नौकरियों के द्वार भी बंद हो जाएंगे जो अभी तक मिलती रही हैं। सर्टिफिकेट के संदर्भ में एक तकनीकी दिक्कत भी पैदा होगी।
वो ये कि विभिन्न बोर्डों द्वारा 10वीं के बाद सेकेंडरी सर्टिफिकेट और 12वीं पास करने पर सीनियर सेकेंडरी सर्टिफिकेट दिया रहा है। अब यूनिवर्सिटी और कॉलेज 12वीं के बाद एक साल की पढ़ाई करने पर सर्टिफिकेट देंगे तो इससे बेहतर यह है कि संबंधित छात्र-छात्रा दसवीं के बाद तीन साल की पढ़ाई करके पॉलीटेक्निक या अन्य समकक्ष संस्थाओं से डिप्लोमा ही हासिल कर लेगा।
इस नीति के समर्थन में यह बात बार-बार कही जा रही है कि इससे युवाओं में स्किल का विकास होगा और वे रोजगार-बाजार के लायक बन सकेंगे। विस्तृत संदर्भों में देखने पर साफ पता चलता है कि यह कथन उच्च शिक्षा के लक्ष्यों और मूल्यों से पूरी तरह अलग है क्योंकि स्किल्ड-लेबर तैयार करने का काम आईटीआई और पॉलीटेक्निक संस्थानों का है।
सेकेंडरी और सीनियर सेकेंडरी स्तर पर भी कुछ ऐसे विषय हैं जिन्हें सीधे रोजगार या स्किल से जोड़ सकते हैं। इससे थोड़ा बहुत वोकेशनल एजुकेशन के साथ भी जोड़ा जा सकता है, लेकिन भाषाओं, मानविकी और सामाजिक विषयों में टेक्निकल और प्रोफेशनल विषयों की तरह ही सर्टिफिकेट/डिप्लोमा बांट देने से रोजगार की संभावना पैदा नहीं होती। इस वक्त स्किल वर्सेज नॉलेज का सवाल ह्यस्किलह्ण के पक्ष में झुका हुआ है। यह झुकाव नई शिक्षा नीति में भी साफ-साफ दिख रहा है।