शिक्षक राष्ट्र निर्माता ? एक प्रश्न

सोनल ओमर

शिक्षक वह जो व्यक्ति को शिक्षित करें, उसे ज्ञान दे, एक अच्छा, सभ्य और सफल इंसान बनाये। आसान शब्द में कहें तो शिक्षक एक शिल्पकार होता हैं जो पत्थर को तराश कर सुंदर आकृति प्रदान करता है।

इसीलिए ही तो शिक्षक को गुरु कहा जाता है, उसे ईश्वर तुल्य या उससे भी बढ़कर माना गया है। लेकिन आधुनिक काल में शिक्षक का स्वरुप बदल रहा है आधुनिक अर्थों में शिक्षक वह है जो विद्यार्थी को पढ़ा दे तथा अच्छे अंकों में सफलता दिलवा दे…बस!
प्राचीन काल से ही हमारे देश में शिक्षा और शिक्षक सदा सम्मान के पात्र रहे हैं। पुस्तकों में माँ सरस्वती का वास माना जाता है। पढ़ने से पूर्व पुस्तकों को मस्तिष्क पर लगाकर उनका नमन किया जाता है।

शिशुओं की शिक्षा-दीक्षा आरंभ करने से पूर्व उनका पाटी-पूजन संस्कार करने की संस्कृति रही है हमारे देश में। हमारा देश  कभी विश्व गुरु था। सभी विद्याओं में अग्रणी, विश्व के अन्य देशों से विद्यार्थी हमारे विख्यात गुरुकुलों  तक्षशिला ,नालंदा,विक्रमशिला आदि में विद्यार्जन करने आते थे। और इन शिक्षण संस्थानों के शिक्षक देश को उनके निर्माता प्रदान करते थे।

यहाँ से शिक्षा प्राप्त निकलने वाले छात्र राष्ट्र का निर्माण करते थे। इस बात की पुष्टि इतिहासकार भी करते हैं। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि इतनी महान शिक्षा संस्कृति से हम आधुनिक शिक्षा प्रणाली के धरातल पर आ गए, जहाँ पर शिक्षा और शिक्षक केवल जीवकोपार्जन के साधन तक सीमित है।
यह परिवर्तन एकदम से नही हुआ है। इसमें कई सदियों का संघर्ष निहित है। यह परिवर्तन विदेशी आक्रमणकारियों, सांस्कृतिक बदलावों, पराधीन विचारधारा, स्वमूल्यों के हास् द्वारा प्रारंभ हुआ।

हमारी शिक्षा व्यवस्था को प्रथम  हानि  मुस्लिम आक्रमणकारियों ने ही पहुंचाई, जब उन्होंने हमारे गुरुकुलों को लूटा ,पुस्तकालयों को आग लगा दी, हमारे इतिहास, ग्रंथ आदि को नष्ट कर दिया, गुरुओ की हत्या कर दी।

मुस्लिम आक्रमणकारियों से हमें हानि जरूर पहुँची थी, परन्तु अंग्रेजों ने हमे जितना लूटा उसकी क्षतिपूर्ति हम आज तक नही कर पाए है। अंग्रेज इतने धूर्त थे कि उन्होंने हमारी उत्कृष्ट शिक्षा की जड़ों पर ही प्रहार किया।

हमारी संस्कृति, संस्कारों की नींव ही हिला के रख दी जिसका प्रमाण है लार्ड मैकाले का ये कथन जो उन्होंने फरवरी 1835 में  ब्रिटिश संसद के सामने कहा था कि, “मैंने भारत के कोने-कोने की यात्रा की है और मुझे एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं दिखाई दिया, जो भिखारी हो या चोर हो।

मैंने इस देश में ऐसी संपन्नता देखी, ऐसे ऊंचे नैतिक मूल्य देखे कि मुझे नहीं लगता कि जब तक हम इस  देश की रीढ़ की हड्डी न तोड़ दें, तब तक इस देश को जीत पायेंगे और ये रीढ़ की हड्डी है, इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत। इसके लिए मेरा सुझाव है कि इस देश की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को इसकी संस्कृति को बदल देना चाहिए।

यदि भारतीय यह सोचने लग जाए कि हर वो वस्तु जो विदेशी और अंग्रेजी, उनकी अपनी वस्तु से अधिक श्रेष्ठ और महान है, तो उनका आत्म गौरव और मूल संस्कार नष्ट हो जाएंगे और तब वो वैसे बन जाएंगे जैसा हम उन्हें बनाना चाहते है – एक सच्चा गुलाम राष्ट्र।

लार्ड मैकाले ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उसने अपनी शिक्षा नीति बनाई, जिसे आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली का आधार बनाया गया ताकि एक मानसिक रूप से गुलाम देश तैयार किया जा सके, क्योंकि माना जाता है कि मानसिक गुलामी, शारीरिक गुलामी से बढ़कर होती है, क्योंकि जब व्यक्ति की सोचने-समझने-निर्णय लेने की क्षमता को ही नष्ट कर दिया जाएगा तो शरीर कितना भी बलवान हो वह सिर्फ कोल्हू का बैल बनकर रह जाएगा।
मैकाले की जो शिक्षा नीति बनाई, वो 1947 तक निर्बाध रूप से जारी रही। आजादी के पश्चात भी हमारे नीति निर्धारकों ने  इसमें कोई परिवर्तन करना उचित नहीं समझा और यूं ही इसे चलने दिया।

अंग्रेज अपनी इस नीति में पूर्णतया सफल रहे और हमारे देशवासियों को उन्होंने ऐसे चश्मे पहना दिए जिनके माध्यम से आज हमें पाश्चात्य ज्ञान, पाश्चात्य विचारधारा, वेशभूषा, रहन सहन सभी कुछ पाश्चात्य का सुन्दर व उपयोगी दिखता है और स्वदेशी गंवारू तथा पिछड़ा लगता है।
आज हमारी शिक्षा केवल सरकारी या प्राइवेट सेवक तैयार करती है। नैतिक मूल्यों का शिक्षा में कोई स्थान नहीं। यही कारण है कि आज के विद्यार्थी का समाज या देश से जुड़ाव नहीं है।

जो चिंताएं राष्ट्र हित में होनी चाहियें वे उनसे कोसों दूर है। विद्यार्थी का शिक्षा पूर्ण कर कमाऊ मशीन बन कर रह जाना और ऐशो आराम के साधनों के साथ जीवन बिताना या फिर विदेश चले जाना उसका लक्ष्य होता है।

जिस समाज, जिस देश से वो सब कुछ प्राप्त करता है, उसके प्रति कोई दायित्व समझने का उसके पास अवकाश कहाँ रह गया है? जब नैतिक ज्ञान, मानव मूल्यों की शिक्षा ही उसे प्राप्त नही हुई तो उससे मानवीय संवेदनाओं की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
शिक्षक को इसका दोषी ठहराया जाता है कि आज शिक्षक व्यवसायिक बन चुके हैं। जोकि एक कटु सत्य भी है। लेकिन जरा गौर करने पर आप पाएंगे कि क्या सच में इसका पूरा दोष शिक्षक का है?

शिक्षक भी कभी विद्यार्थी रहे थे, तब उनको भी यही शिक्षा मिली। जो उनको मिली वही शिक्षा वो अब आने वाली पीढ़ी को दे रहे है। परन्तु इस पीढ़ी-दर-पीढ़ी मिली भ्रष्ट शिक्षा या यों कहे स्वलाभ शिक्षा का मूल कारण क्या है, इस सबके पीछे निहित है वो मानसिकता जो इस दूषित शिक्षा प्रणाली के कारण सबकी  रग रग में बस गयी है। शिक्षक भी इसी मानसिकता का शिकार है।

अतः उसका उद्देश्य भी वही अर्थोपार्जन और समृद्धि की और बढ़ना है। अपने परिवार को आधुनिकतम साधनों से सम्पन्न देखना है। ऐसे में वह स्वनिर्माण करेगा या राष्ट्र निर्माता का! इस तरह शिक्षक का नियत कार्य एवं लक्ष्य अपने पाठ्यक्रम को पूर्ण करना और विद्यार्थी को उच्च अंको की प्राप्ति करना रह गया है।
यह दूषित शिक्षा प्रणाली सिर्फ मानसिकता या शिक्षक की देन नहीं अपितु इसमें सरकार व शिक्षा विभाग का भी अहम रोल है। क्योंकि शिक्षा विभाग  प्राय जिन मंत्रियों को सौंपा जाता है, उनको शिक्षा का अ ब स भी पता नहीं होता है।

तो फिर तो नीति निर्माण वही घिसी पिटी ही होगी, या फिर विदेशों की नक़ल होगी, जो हमारी आवश्यकता या परिस्थिति के अनुरूप बिल्कुल नहीं होगी। शिक्षक भी उसी वातावरण में शिक्षा प्राप्त कर शिक्षक बन जाता है तो फिर ऐसे में उससे अपेक्षा करना तो व्यर्थ ही है ना! तब तो यही प्रश्न उठता है ना कि क्या सच में आज का शिक्षक राष्ट्र निर्माता हैं?

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