सुशील उपाध्याय
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब सामने खाने से भरी हुई थाली मौजूद हो, तब आप अपनी भुखमरी के दिनों को याद करने लगे तो यह एक प्रकार का मानसिक असंतुलन है। मुझे लगता है कि इस तरह का असंतुलन हमारे आसपास बहुत लोगों को महसूस होता होगा।
उन स्थितियों, परिस्थितियां के लिए, जो सीधे आपके नियंत्रण में ना हो, परेशान होना भी एक प्रकार का मानसिक असंतुलन ही है। लेकिन परेशानी भी एक लत की तरह होती है, जो अपने लिए वजह भी ढूंढ लेती है। मसलन, 14 अक्टूबर को ग्लोबल हंगर इंडेक्स की सूची जारी हुई है। इस सूची में दुनिया के कुल 116 देश शामिल हैं। अफसोस की बात यह है कि भारत 101 वें पायदान पर है।
इसका सीधा मतलब है कि देश में कुपोषण, भुखमरी आदि की स्थिति बहुत खराब है। चिंता की बात यह है कि पिछले साल के मुकाबले भारत सात पायदान नीचे खिसका है। इससे भी बड़ी चिंता यह है कि भारत अपने पड़ोसी देशों नेपाल, बांग्लादेश, मयामार, श्रीलंका और पाकिस्तान से भी नीचे है। इस सूची को देखने के बाद किसी भी जागरूक व्यक्ति के मन में पहला सवाल यह आएगा कि जिस देश में इंसान के खाए जाने लायक दालों-अनाजों, फलों-सब्जियों, सभी का रिकॉर्ड तोड़ उत्पादन होता हो, आखिर वहां इतने लोग भूखे कैसे रह जाते हैं ! आसान तरीका तो यह है कि इस सूची को तैयार करने वाली आयरिश और जर्मन संस्थाओं पर आरोप लगा दिया जाए कि उसका पैमाना भारत के खिलाफ है, लेकिन सच्चाई इसके उलट है। भारत में खाद्य सुरक्षा कानून को लागू हुए लगभग एक दशक होने जा रहा है। फिर भी लोगों को, विशेष रूप से बच्चों को दो वक्त का खाना नहीं मिल पा रहा है।
वैसे, संवैधानिक तौर पर हम सभी को अपनी बात कहने की आजादी है, लेकिन यह दौर ऐसा है कि स्वतंत्र रूप से कही गई किसी भी बात को सत्ता प्रतिष्ठानों के खिलाफ मान लिया जाता है। इसके बावजूद आंकड़ों के सच को बदला नहीं जा सकता। भारत विश्व गुरु है, भारत महान देश है, भारत विश्व का नेतृत्व करने जा रहा है, ये सब वाक्य सुनते हुए भूखे और गरीब लोगों को कोई राहत नहीं मिलती। उन्हें दो वक्त की रोटी की सुनिश्चितता से ही राहत मिल सकती है। अब भारत के चिर प्रतिद्वंदी चीन की स्थिति पर निगाह डालें तो और निराशा होगी। आंकड़े बता रहे हैं कि भुखमरी और गरीबी से लड़ने के पैमाने पर चीन भारत के मुकाबले बहुत ऊंची स्थिति पर बैठा हुआ है। चीन, ब्राजील और कुवैत ने अपने लोगों को हर स्तर पर भुखमरी से बचाया है। इस तरह की रिपोर्ट मन में वितृष्णा का भाव पैदा करती हैं कि आखिर यह विराट देश और इसकी धरती अपनी तमाम उत्पादकता के बावजूद अपनी संतानों का पेट भरने में समर्थ क्यों नहीं है। इसका दोष न तो इस धरती को दिया जा सकता और न ही इस धरती से अन्न उपजाने वाले किसानों-मजदूरों को दिया जा सकता है। दोष सत्ता-व्यवस्था का ही है और आगे भी उसी का रहेगा।
वैसे, गुनहगारों की एक और श्रेणी भी है, जिसे हम हर दिन अपने आसपास देख सकते हैं। किसी शादी समारोह में देखिए तो ऐसे सैकड़ों लोग दिख जाएंगे, जिन्होंने कई प्रकार के व्यंजनों से थाली भरी हुई होती है। और कुछ देर बाद देख सकते हैं कि भरी हुई थाली का ज्यादातर हिस्सा डस्टबिन में चला जाता है। शादी या इस तरह के अन्य समारोहों मैं शामिल लोगों को कुछ देर के लिए माफ कर भी दें, लेकिन तथाकथित रूप से पढ़े-लिखे लोग, जो बड़े-बड़े आयोजनों, सेमीनारों में प्रतिभाग करने या व्याख्यान देने जाते हैं, वे भी खाने के दुरुपयोग के मामले में समान धरातल पर हैं। इन आयोजनों में भी खाने के दुरुपयोग की लगभग यही स्थिति होती है।
सार्वजनिक तौर पर खाना बर्बाद करने के मामले में भारत का रिकॉर्ड दुनिया के सबसे खराब देशों मैं है। यहां खाना बर्बाद करने को लोगों ने अपनी आर्थिक-सामाजिक हैसियत के साथ जोड़ लिया है, लेकिन क्या कभी हमने और आपने देश के उन 17 फीसद बच्चों के बारे में सोचा है जो समय पर खाना न मिलने के चलते कुपोषण का शिकार हैं और इनका विकास कभी भी उस स्तर पर नहीं हो सकेगा जिससे कि ये देश के लिए समर्थ और संभावनाशील नागरिक बन सकें। इस वक्त देश में जो स्थिति बनी है उसके लिए कोरोना महामारी भी कुछ हद तक जिम्मेदार है, लेकिन कोरोना के कारण ही ऐसा हुआ हो, यह नहीं माना जा सकता। कोरोना से पहले भी भारत में भुखमरी से जुड़े आंकड़े डरावने ही थे। क्या हम सब लोगों को इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि बीते 23 सालों में उन बच्चों और गरीब लोगों के प्रतिशत में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया जो भुखमरी और कुपोषण का शिकार हैं।
यहां नीतियों का सवाल भी हमेशा रहेगा कि सरकार किन लोगों को ध्यान में रखकर अपनी नीतियों का निर्धारण कर रही है और सामान्य जनमानस में किस तरह की धारणाओं का विकास किया जा रहा है। बीते कुछ दशक में यह धारणा लगातार प्रबल हुई है कि करोड़ों कामचोर लोगों को सरकार निशुल्क राशन और सब्सिडी उपलब्ध करा कर गलत काम कर रही है, जबकि तथ्य एक अलग ही दिशा में इशारा करते हैं। और वह इशारा ये है कि यह देश खाद्यानों की बर्बादी के मामले में ऊंचे पायदान पर है।
होना तो यह चाहिए कि अनाज को गोदामों में सड़ाने और सब्जियों-फलों को खेतों में बर्बाद करने की बजाय, उन्हें उन लोगों तक पहुंचाया जाए, जिसे उनकी सबसे अधिक आवश्यकता है। इस कार्य को यदि कोई कर सकता है तो वह सरकारी तंत्र ही कर सकता है। व्यक्तिगत स्तर पर हमारी भूमिका इतनी ही हो सकती है कि खाना बर्बाद करने से पहले एक बार यह जरूर सोचें कि हमारे पास-पड़ोस में कोई व्यक्ति भूखा सोता है। इस बात को तब भी सोचें, जब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अपनी थाली भरी होने के बावजूद भुखमरी के दिनों को याद करना या भूखे लोगों के बारे में सोचना परोक्ष तौर पर एक बीमारी ही है।