सुशील उपाध्याय
क्या आपको पता है कि “डॉलर पहनने वालों की कभी नहीं फटती!” उनकी फटती है जो डॉलर नहीं पहनते! यह विज्ञापन आप हर रोज अपने टीवी चैनल पर देख रहे हैं और इसमें देश के जाने माने फिल्म एक्टर अक्षय कुमार दिखाई देते हैं और दावा करते हैं कि उनकी कभी नहीं फटती। भाषा के मामले में सामान्य समझ रखने वाला व्यक्ति भी इस संवाद को सुनते ही तुरंत समझ जाएगा कि यह इशारा किस तरफ है। इस विज्ञापन की लैंग्वेज को दो-अर्थी कहना भी गलत है, बल्कि यह साफ तौर पर सेक्सिस्ट लैंग्वेज है।
फटना शब्द के सामान्य अर्थों को देखें तो किसी वस्तु का टूट जाना, बिखर जाना या दो अथवा अधिक समय बंट जाना होता है। इस शब्द के अर्थ को भावनात्मक स्तर पर भी ग्रहण किया जाता है, जैसे दुख से छाती फट जाना, धरती फटना, मन का फटना आदि। सामान्य अर्थ में जूता फटना, कपड़ा फटना और यहां तक कि दूध का फट जाना भी इस शब्द के अर्थों को ध्वनित करता है।
भाषा के मानक व्यवहार से परे जाकर भी शब्दों के अर्थ निर्धारित हो जाते हैं। जब किसी भाषा के शब्दों को स्लैंग रूप में इस्तेमाल करते हैं तो उसके अर्थ अक्सर अनर्थ भी हो जाते हैं। यही स्थिति फटना शब्द के साथ भी हुई है। इसे यौन-अंगों और क्रियाओं के साथ जोड़कर देखा जाने लगा। जैसे, उसे देख कर तेरी फटी रहती है, मुझे देखते ही उसकी फट गई, वो इस बार मुझे मिलेगी/मिलेगी तो उसकी फाड़ दूंगा। ये सभी वाक्य इस शब्द के अभद्र प्रयोग हैं। जो साफ तौर पर सेक्सिस्ट लैंग्वेज की तरफ इशारा करते हैं। इन्हीं अर्थों में अक्षय कुमार ने डॉलर के विज्ञापन में इस शब्द का प्रयोग किया है। यह प्रयोग हर दृष्टि से अमान्य और अस्वीकार्य है।
विज्ञापन के लेखक ने रचनात्मकता के नाम पर हद दर्जे का भौंड़ापन दिखाया है। डॉलर कंपनी के जो विज्ञापन इससे पहले भी सामने आए हैं, उनमें भी अक्सर यौनिक गतिविधियों को परोसा गया है। इससे पहले का एक विज्ञापन भी याद कीजिए, जिसमें विज्ञापन का नायक (अक्षय कुमार) किसी एयरपोर्ट पर है और वहां सिक्योरिटी का जिम्मा संभाल रही नायिका जब उनकी चेकिंग करती है तो वह डॉलर होने का जिक्र करता है और फिर पैंट खोल कर दिखाता है कि उसने डॉलर पहना हुआ है।
इस तरह के विज्ञापन एडवरटाइजिंग काउंसलिंग ऑफ इंडिया की विफलता का सूचक भी हैं। इनके साथ-साथ राष्ट्रीय महिला आयोग और राज्यों के महिला आयोग भी इस तरह की अभद्रता में बराबर के हिस्सेदार माने जा सकते हैं। जब आम दर्शक रोजाना ऐसे विज्ञापनों के माध्यम से परोसी जाने वाली अभद्रता का शिकार हो रहा है और इसे महसूस भी कर रहा है तो क्या वजह है कि राष्ट्रीय स्तर की इन नियामक संस्थाओं को इस बारे में कोई सूचना ही नहीं होती!
यहां दो-तीन महत्वपूर्ण सवाल हैं। क्या हम घर में अपने किशोर उम्र बच्चों को यह बता सकते हैं कि अक्षय कुमार फटती शब्द (क्रिया) को केवल नेकर-बनियान बेचने के संदर्भ में इस्तेमाल कर रहे हैं या इसके जरिए किसी और चीज को भी पेनिट्रेट करते हैं! विज्ञापनों की भाषा में डबल मीनिंग लैंग्वेज के प्रयोग को उत्तर-आधुनिकता की एक प्रवृत्ति की तरह भी देख लिया गया है, जो बाजार के प्रभाव में भाषा को परिवर्तित करती है।
फिल्मी कलाकारों द्वारा रचनात्मकता के नाम पर हमेशा यह मांग की जाती है कि उन्हें भाषा के प्रयोग के मामले में किसी तरह के बंधन में ना रखा जाए। यहां सवाल यह है कि यदि यही भाषा रचनात्मकता की अभिव्यक्ति है तो फिर दादा कोंडके की फिल्में ‘बॉस डीके’ और ‘अंधेरी रात में, दिया तेरे हाथ में’ की भाषा को भी सहज रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। प्रश्न यह भी है कि अक्षय कुमार जैसा व्यक्ति जिसकी पहुंच-पहचान सत्ता के शिखर तक है और जो देश के अनेक प्रतिष्ठित कारोबारी घरानों के साथ काम कर रहा हो, जब वह व्यक्ति इस निचले स्तर की भाषा का इस्तेमाल करता है तो समाज में किसी न किसी स्तर पर यह मैसेज जाता है कि डबल मीनिंग, बल्कि सेक्सिस्ट भाषा भी सामान्य भाषा व्यवहार का हिस्सा है।
जब इस तरह के मामलों में विज्ञापनों में नायक के साथ कोई नायिका भी मौजूद होती है तो किशोर उम्र के बच्चे स्वाभाविक तौर पर यह मैसेज ग्रहण करते हैं कि लड़कियों और महिलाओं के साथ इस तरह की भाषा में बातचीत करना भी एक सामान्य व्यवहार है। इस विज्ञापन के संदर्भ में उठने वाले प्रश्न किसी मोरल पुलिसिंग से जुड़े हुए नहीं हैं, बल्कि ये किसी भी सभ्य, सुसंस्कृत, अनुशासित और कानून का पालन करने वाले समाज के साथ गहरे तक सम्बद्ध हैं। चंडीगढ़ के एक अधिवक्ता एचसी अरोड़ा ने इस मामले को कोर्ट के सामने उठाया है। अब इंतजार करना चाहिए कि कोर्ट इस प्रकरण में क्या राय जाहिर करता है। उसी से पता लगेगा कि डॉलर पहनने वालों की फटती है अथवा नहीं!