अमित नेहरा
भारत के संविधान का अनुच्छेद-123 राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति देता है। संविधान के अनुसार अगर कोई ऐसा मुद्दा हो, जिस पर तत्काल प्रभाव से कानून लाने की जरूरत हो, तो संसद के सत्र का इंतजार करने की बजाए सरकार अध्यादेश के जरिए उस कानून को लागू कर सकती है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि इस अनुच्छेद में ये भी साफ है कि अध्यादेश को बेहद जरूरी या आपात स्थितियों में ही लाया जाना चाहिए। अध्यादेश सरकार के लिए एक विशेषाधिकार है, इसकी जरूरत तब पड़ती है, जब सरकार किसी बेहद खास विषय पर कानून बनाने के लिए बिल लाना चाहे, लेकिन संसद के दोनों सदन या कोई एक सदन का सत्र न चल रहा हो। या फिर सरकार का कोई बिल राज्यसभा में सांसदों की संख्या कम होने से या किसी और वजह से लटका हुआ हो, ऐसे में सरकार अध्यादेश लाती है।
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में मई 2014 में केंद्र में बीजेपी की पूर्ण बहुमत सरकार का गठन हो चुका था। इसके बाद 2019 के चुनावों में बीजेपी अकेले दम पर 303 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर लिया। बेशक लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को अपने दम पर बहुमत हासिल है लेकिन ऊपरी सदन यानी राज्यसभा में बीजेपी की स्थिति ऐसी नहीं रही है। बीजेपी ही नहीं, पिछले तीस सालों से किसी भी दल का राज्यसभा मे बहुमत नहीं रहा है।
इस समय उसके पास 245 के सदस्यों वाले इस सदन में बहुमत के आंकडे से 29 सीटें कम हैं। बीजेपी के 95 सदस्य हैं जबकि उसके गठबंधन के घटक दलों में ऑल इंडिया अन्ना द्रमुक के 9, जनता दल यू के 5 और असम गण परिषद तथा रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के 1-1 सदस्य हैं। इस प्रकार उसका गठबंधन यानी एनडीए भी बहुमत के आंकड़े से 13 सीटें दूर है। इस सदन की 7 सीटें अलग-अलग वजहों से फिलहाल रिक्त भी हैं।
कहने का मतलब यह है कि 6 साल लगातार लोकसभा में बहुमत और राज्यसभा में अल्पमत होने के बावजूद केन्द्र सरकार ने इस दौरान सामान्य प्रक्रिया के तहत सैंकड़ों कानून पारित किए।
इसी दौरान केन्द्र सरकार ने कोविड-19 का भय दिखाकर 24 मार्च 2020 से सम्पूर्ण भारत में लॉकडाउन लगा दिया। उस दिन यानी 24 मार्च तक पूरे भारत में कोरोना वायरस के कुल 564 केस पॉज़िटिव पाए गए थे इसके चलते कुल 10 ही मौतें हुई थीं। खास बात यह रही कि एक जून 2020 को भारत में विश्व के सबसे ज्यादा मरीज थे मगर केन्द्र सरकार ने 8 जून 2020 को लॉकडाउन को अनलॉक करना शुरू कर दिया।
देश को जब कोरोना का भय दिखाकर देशव्यापी लॉकडाउन के तहत दरवाजों के भीतर बन्द कर रखा था तो केन्द्र सरकार ने अचानक पांच जून 2020 को तीन नए कृषि अध्यादेश कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश, मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध अध्यादेश और आवश्यक वस्तु संशोधन अध्यादेश लागू कर दिए। अध्यादेश लागू करने के महज तीन दिन बाद ही देश को अनलॉक करना शुरू कर दिया गया।
सरकार से पहला सवाल तो यही है कि क्या ये तीनों कानून इतने महत्वपूर्ण थे कि इन्हें तत्काल लागू करने के लिए अध्यादेश की जरूरत थी? संविधान के अनुसार अगर कोई ऐसा मुद्दा हो, जिस पर तत्काल प्रभाव से कानून लाने की जरूरत हो, तो संसद के सत्र का इंतजार करने की बजाए सरकार अध्यादेश के जरिए उस कानून को लागू कर सकती है। अगर सरकार यह कहती है कि हाँ यह इतना महत्वपूर्ण मुद्दा था कि इसे तत्काल अध्यादेश के रूप में लाना बेहद जरूरी था तो क्या मोदी सरकार पिछले छह वर्षों से इन कानूनों को लागू न करवाने में लेटलतीफी की दोषी नहीं है?
दरअसल ये तीनों अध्यादेश अलोकतांत्रिक थे क्योंकि जब पूरा देश कोरोना वायरस महामारी से लड़ रहा था और संसद भी बन्द थी तो उसी समय केन्द्र सरकार चुपके से ये तीनों अध्यादेश ले आई। यहाँ तक कि इन अध्यादेशों को लाने से पहले सरकार ने किसी भी किसान या किसान संगठन से विचार-विमर्श भी नहीं किया। इससे सरकार की मंशा का पता चलता है। वजह साफ है कि इन कानूनों की प्रकृति को देखते हुए वैसी कोई अर्जेन्सी भी नहीं जान पड़ती जो इन्हें अध्यादेश के रास्ते लाने की इतनी हड़बड़ी दिखायी गई। जिन मुद्दों पर ये कानून केंद्रित हैं, उन पर दशकों से बहस होती रही है और अगर ये कानून लाने ही थे तो संसद के शुरू होने तक कुछ महीने सरकार ने इंतजार क्यों नहीं किया?
इसके बाद सरकार ने 14 सितंबर 2020 को इन्हें विधेयक के रूप में लोकसभा में प्रस्तुत कर दिया। विपक्षी सांसदों के विरोध के बावजूद इसे आनन-फानन में पास करा लिया गया। राज्यसभा में भी विपक्ष ने इसका विरोध किया, लेकिन वहां भी इसे पास करा लिया गया। आखिरकार 27 सितंबर 2020 को राष्ट्रपति ने इस पर हस्ताक्षर कर दिए और ये अध्यादेश तीन नए कृषि कानूनों में तब्दील हो गए। बेशक लोकसभा और राज्यसभा में विपक्षी सांसदों ने इन कानूनों को पारित होते समय इनका विरोध किया हो लेकिन वह विरोध केवल विरोध के लिए ही था। अगर विपक्ष की सुनी नहीं गई तो उसे सामूहिक रूप से इस्तीफा देकर सड़कों पर उतर जाना चाहिए था लेकिन लगता है विपक्ष में भी इतना साहस और हिम्मत नहीं थी।
आइये हम इन तीनों कानूनों पर संक्षिप्त चर्चा कर लेते हैं कि इनमें दिक्कत कहाँ है।पहले कृषि कानून के तहत केंद्र सरकार ‘एक देश, एक कृषि मार्केट’ बनाने की बात कह रही है। इस कानून के माध्यम से कोई भी व्यक्ति, कम्पनी, सुपर मार्केट किसी भी किसान का माल किसी भी जगह पर खरीद सकते हैं। कृषि माल की बिक्री एपीएमसी यार्ड में होने की शर्त केंद्र सरकार ने हटा ली है।
महत्वपूर्ण बात यह भी है कि कृषि माल की जो खरीद एपीएमसी मार्केट से बाहर होगी, उस पर किसी भी तरह का टैक्स या शुल्क नहीं लगेगा। जबकि एपीएमसी में टैक्स या शुल्क जारी रहेंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि एपीएमसी मार्केट व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। वर्ष 2006 में बिहार सरकार ने एपीएमसी एक्ट खत्म कर के किसानों के उत्पादों की एमएसपी पर खरीद खत्म कर दी। किसानों का माल एमएसपी पर बिकना बन्द हो गया और प्राइवेट कम्पनियाँ किसानों का सामान एमएसपी से बहुत कम दाम पर खरीदने लगीं जिस से वहां किसानों की हालत खराब होती चली गयी और वहां के किसान बड़ी संख्या में खेती छोड़ कर मजदूरी के लिए दूसरे राज्यों में पलायन कर चुके हैं।
तीसरे कानून के तहत कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया जाएगा जिसमें बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ खेती करेंगी और किसान उसमें सिर्फ मजदूरी करेंगे। इस नए अध्यादेश के तहत किसान अपनी ही जमीन पर मजदूर बन कर रह जायेगा। इसके जरिये केंद्र सरकार कृषि का पश्चिमी मॉडल हमारे किसानों पर थोपना चाहती है लेकिन सरकार यह बात भूल जाती है कि हमारे किसानों की तुलना विदेशी किसानों से नहीं हो सकती क्योंकि हमारे यहां भूमि-जनसंख्या अनुपात पश्चिमी देशों से अलग है और हमारे यहां खेती-किसानी जीवनयापन करने का साधन है वहीं पश्चिमी देशों में यह व्यवसाय है।
वैसे भी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों का शोषण होता है। वर्ष 2019 में गुजरात में पेप्सिको कम्पनी ने किसानों पर कई करोड़ का मुकदमा किया था जिसे किसान संगठनों के विरोध के चलते कम्पनी ने वापस ले लिया था।
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत फसलों की बुआई से पहले कम्पनियां किसानों का माल एक निश्चित मूल्य पर खरीदने का वादा करती हैं लेकिन जब किसान की फसल तैयार हो जाती है तो कम्पनियाँ किसानों को कुछ समय इंतजार करने के लिए कहती हैं और फिर किसानों के उत्पाद को खराब बता कर रिजेक्ट कर दिया जाता है।
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में सबसे खतरनाक स्थिति तो किसान और ठेकेदार के बीच में विवाद के निपटाने में है। विवाद की स्थिति में जो निस्तारण समिति बनेगी उसमें दोनों पक्षों के लोगों को रखा तो जाएगा। लेकिन, हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि कारपोरेट कम्पनियां उस समिति में महंगे से महंगा वकील बैठा सकती हैं और फिर किसान उसे जवाब नहीं दे पाएगा। इस देश के अधिकतर किसान तो कॉन्ट्रैक्ट पढ़ भी नहीं पाएंगे।
इस कानून के अनुसार किसान पहले विवाद को कॉन्ट्रैक्ट कंपनी के साथ 30 दिन के अंदर निपटाए और अगर नहीं निपटा तो देश की ब्यूरोक्रेसी में न्याय के लिए जाए। यहाँ भी नहीं हुआ तो फिर 30 दिन के भीतर एक ट्रिब्यूनल के सामने पेश हो। हर जगह एसडीएम मौजूद रहेगा। सबसे गम्भीर बात यह है कि इस कानून की धारा 19 में किसान को सिविल कोर्ट में जाने के अधिकार से भी वंचित रखा गया है। सारा विवाद एसडीएम निपटायेगा। हाल ही में 28 अगस्त 2021 को करनाल (हरियाणा) के एसडीएम ने बसताड़ा टोल प्लाजा पर पुलिस बल को सरेआम निर्देश दिया कि जो भी किसान इन कृषि कानूनों का विरोध करने बेरिकेड्स को पार करे तो लाठियां मार-मार कर उसका सिर फोड़ दो। जब किसानों ने विरोध प्रदर्शन शुरू किया तो पुलिस ने बिना किसी चेतावनी के निहत्थे किसानों के सिरों पर लाठियां मारनी शुरू कर दीं। आरोप है कि इस लाठीचार्ज में एक किसान सुशील काजल की मौत हो गई और 36 से ज्यादा किसानों के सिर फोड़ दिए गए। इतना ही नहीं घायल किसानों को न तो प्राथमिक चिकित्सा दिलाने के प्रयास किए और न ही एमएलआर (मेडिको लीगल रिपोर्ट) काटी गई। प्रशासन यहीं तक नहीं रुका उसने उल्टे पीड़ित किसानों पर ही एफआईआर दर्ज करवा दी। इस वीभत्स कांड का पूरे देश में विरोध हुआ। किसानों के सिर फोड़ने का आदेश देने वाले एसडीएम का वीडियो वायरल हो चुका था मगर हरियाणा सरकार उस आरोपी एसडीएम के पक्ष में पूरी तरह खड़ी हो गई। इसके बाद लाखों किसानों को करनाल में धरना देना पड़ा और बढ़ते जनाक्रोश के चलते घटना के पंद्रह दिन बाद जाकर हरियाणा सरकार को अपनी और एसडीएम की गलती माननी पड़ी, उसे जबरन छुट्टी भेजना पड़ा और लाठीचार्ज करने के आदेश की पंजाब-हरियाणा के रिटायर्ड जस्टिस द्वारा न्यायिक जांच के आदेश हुए। इससे पहले हरियाणा सरकार हठधर्मिता पर अड़ी थी कि इस प्रकरण में एसडीएम की कोई गलती नहीं है और किसी जाँच की कोई आवश्यकता नहीं है।
इस प्रकरण को यहाँ लिखना इसलिए मौजूं है कि इस कानून में एसडीएम को ही जज और सर्वेसर्वा बना दिया गया है। एसडीएम की भूमिका हम देख ही चुके हैं। क्या इस तरह के अधिकारियों से किसान न्याय की उम्मीद रख सकते हैं? जानकारों का मानना है कि कारपोरेट सेक्टर को फायदा दिलाने के लिए सरकार ने जानबूझकर सिविल कोर्ट में जाने का विकल्प बन्द कर दिया है। एसडीएम तो हकीकत में सरकार की कठपुतली ही होता है जबकि न्यायिक व्यवस्था स्वतंत्र है।
तीसरा कानून है आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020 यह न सिर्फ किसानों के लिए बल्कि आम जनता के लिए भी खतरनाक है।
इस कानून के लागू होने के बाद कृषि उपज जुटाने की कोई सीमा नहीं होगी। उपज जमा करने के लिए निजी निवेश को छूट होगी। सरकार को पता नहीं चलेगा कि किसके पास कितना स्टॉक है और कहां है? मूलतः यह तो जमाखोरी और कालाबाजारी को कानूनी मान्यता देने जैसा है। सरकार ने कानून में साफ लिख दिया है कि वह सिर्फ युद्ध या भुखमरी या किसी बहुत विषम परिस्थिति में रेगुलेट करेगी। साफ शब्दों में कहा जाए तो सरकार ने जनता की रोटी को पूंजीपतियों की तिजोरी में कैद करने का रास्ता खोल दिया है। किसानों का अन्न औने पौने दामों में खरीदकर अपने तय किये रेट्स पर बेचा जाएगा। किसान इस बारे में सरकार से एमएससी पर कानून बनाने की मांग कर रहे हैं।
केंद्र सरकार बेशक चाहे चोर दरवाजे से चुपचाप ये तीन अध्यादेश ले आई हो लेकिन आज देश का किसान जागरूक हो चुका है, वह 5 जून 2020 से ही सतर्क हो चुका था खासतौर पर पंजाब और हरियाणा का।
किसान और किसान संगठनों को विपक्ष से उम्मीद थी कि वह इन मनमाने और जनविरोधी कानूनों के खिलाफ लड़ाई लड़ेगा मगर विपक्ष इतना कमजोर हो चुका था कि उसने थोड़ा सा हल्ला-गुल्ला मचाने के बाद शांत बैठ गया। उम्मीद खोकर किसानों ने खुद ही मोर्चा सम्भाल लिया। सबसे पहले मजदूरों को अपने साथ लिया गया क्योंकि उन्हें आसान भाषा में समझाया गया कि अगर किसान का ही अस्तित्व नहीं रहा तो बेचारे मजदूर किस खेत की मूली हैं।
जब केंद्र सरकार ये अध्यादेश लेकर आई तभी से पंजाब और हरियाणा के किसानों में हलचल शुरू हो गई। हर जगह मीटिंग और धरने शुरू हो गए थे। किसानों को लग रहा था कि शायद किसी गलतफहमी के कारण ये अध्यादेश लाये गए हैं और इन्हें निरस्त कर दिया जायेगा। लेकिन जैसे ही 14 सितम्बर 2020 को केंद्र सरकार ने इन्हें विधेयक के रूप में पेश किया तो पंजाब और हरियाणा के किसानों का धैर्य जवाब दे गया। दोनों प्रदेशों की किसान यूनियनों ने अपने हर सदस्य को डब्लूटीओ, गैट और पूंजीवाद, कारपोरेट के बारे में शिक्षित और जागरूक करना शुरू किया और इन तीन अध्यादेशों के कुप्रभावों के बारे में विस्तार से बताया गया।
सबसे पहले पंजाब के किसान इस क्रांति के अगुवा बने। 25 सितंबर को भारत बंद का आह्वान किया गया। एक अक्टूबर 2020 से किसान-मजदूर संगठनों ने भठिंडा समेत कई जगहों पर रेलवे ट्रैक, टोल प्लाजा पर तंबू लगा दिए। मॉल और वालमार्ट, रिलायंस जैसी कंपनियों के स्टोरों और पेट्रोल पंपों के बाहर धरने शुरू कर दिए। रिलायंस कम्युनिकेशन का बहिष्कार किया गया। टोल प्लाजाओं को फ्री कर दिया गया और रेलवे ट्रैक्स को जाम कर दिया गया। पूरे पंजाब में दो महीनों तक रेलगाड़ियों का आवागमन बिल्कुल बन्द रहा।
उधर हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले की पीपली मंडी में 10 सितम्बर 2020 को इन तीनों अध्यादेशों के विरोध में किसान-आढ़ती-मजदूरों ने किसान बचाओ-मंडी बचाओ रैली का आह्वान कर दिया। परंतु राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा-जजपा सरकार ने हजारों पुलिसकर्मी लगा किसानों और आढ़तियों के नेताओं की जबरन धरपकड़ शुरू कर दी, घरों पर नोटिस लगा दिए गए व जगह-जगह पुलिस नाके लगाकर किसानों-मजदूरों-आढ़तियों को पीपली आने से रोका गया। इसके बावजूद भी जब लाखों की संख्या में किसान-मजदूरों ने 10 सितंबर को पीपली कूच किया तो उन पर निर्दयता से लाठियां चलाई गईं जिसमें सैंकड़ों युवा-बुजुर्ग गम्भीर रूप से घायल हो गए। इस वीभत्स और नृशंस कार्यवाही का पूरे देश और दुनिया में जबरदस्त विरोध हुआ और अंततः सरकार को झुकना पड़ा व किसानों को पीपली में सभा करने की अनुमति देनी पड़ी। सरकार की इस कायराना कार्यवाही ने पूरे हरियाणा के किसानों को एकजुट कर दिया।
उधर, देश के बाकी राज्यों में भी दो अक्टूबर यानी गांधी जयंती से आंदोलन शुरु कर दिया गया।
जब किसान-मजदूर संगठनों को लगा कि प्रादेशिक स्तर की बजाए दिल्ली में जाकर धरने-प्रदर्शन किए जाएं तो ही केन्द्र सरकार के कानों पर जूँ रेंगेगी। अतः पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान के किसानों ने 24 नवंबर 2020 के लिए दिल्ली कूच का आह्वान कर दिया। इनको रोकने के लिए हरियाणा, यूपी और केंद्र सरकार ने पुलिसिया दमन के सभी तरीके प्रयोग किये लेकिन लाखों किसान दिल्ली के हरियाणा और उत्तरप्रदेश के बॉर्डरों पर पहुँच गए। केंद्र सरकार के अधीन दिल्ली पुलिस ने दिल्ली की किलेबंदी कर दी मानों दिल्ली में किसान नहीं बल्कि खतरनाक दुश्मन घुसने का प्रयत्न कर रहे हों। अंततः दिल्ली बॉर्डरों (सिंघु, टीकरी, गाजीपुर, ढांसा व राजस्थान बॉर्डरशाहजहांपुर) पर ही अनिश्चितकालीन धरने शुरू हो गए।
इस आंदोलन का सबसे बड़ा प्रभाव सोशल मीडिया के उपयोग को लेकर रहा है। किसानों की बेहद मजबूत आईटी सेल ने केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी की आईटी सेल (जो कि उसकी सबसे बड़ी ताकत थी) की ईंट से ईंट बजा दी। किसान आईटी सेल के पास हर भ्रामक जानकारी का जवाब था। सरकारी प्रोपगेंडा का किसान आईटी सेल ने जमकर मुकाबला किया। इसका असर यह हुआ कि दिल्ली बॉर्डरों पर हरियाणा सरकार ने इंटरनेट बन्द कर दिया लेकिन किसान आंदोलन पर इसका भी कोई असर नहीं पड़ा। किसानों के युवा दिल्ली बॉर्डरों पर होने वाली हर गतिविधि को रिकॉर्ड करते और फिर दिल्ली जाकर नेट पर डाल देते। भारत ही नहीं विदेशों में बसे भारतीय किसानों ने भी इस जनांदोलन को पूर्ण समर्थन दिया। संयुक्त राज्य अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया समेत अनेक देशों में भारत के किसानों के लिए रैलियां और रोड शो किये गए। अंततः सरकार को इंटरनेट को फिर से खोलना पड़ा और मुँह की खानी पड़ी। विदेशी मीडिया में भी सरकार की खूब किरकिरी हुई। किसान आंदोलन अब वाकई जनांदोलन बन चुका था।
इस जनजागरण से केंद्र सरकार बेहद दबाव में आई और किसानों से वार्ता करने को तैयार हो गई। दोनों के बीच 12 दौर की बात हुई लेकिन सरकार इन कानूनों को वापस न लेने की हठधर्मिता पर अड़ गई।
इस बीच किसानों ने ऐलान कर दिया कि वे 26 जनवरी 2021 को दिल्ली में किसान ट्रैक्टर परेड निकालेंगे। मगर सरकार ने इजाजत नहीं दी। आखिरकार 26 जनवरी से महज 48 घण्टे पहले केन्द्र सरकार ने दिल्ली के सीमित क्षेत्रों में किसानों को ट्रैक्टर परेड की इजाजत दे दी। इतनी अल्पावधि में किसानों को पता ही नहीं चल पाया कि जाना कहाँ है? वे दिल्ली के रास्तों में भटक गए। इसी दौरान कुछ किसानों का जत्था लालकिले पर जा चढ़ा हालांकि उसने वहाँ लहरा रहे विशाल तिरंगे के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की पर वहाँ खाली पोल पर किसान यूनियन और सिख पंथ का झंडा लगा दिया। सत्ता पक्ष ने इसे इश्यू बना लिया और एक प्रोपगेंडा चला दिया कि लालकिले पर तिरंगे का अपमान हुआ है जबकि वहाँ कुछ नहीं हुआ था। इतने में ही किसान आईटी सेल ने पता लगा लिया कि लालकिले पर चढ़ने वाला ग्रुप कौन सा है? पता चला कि ये पंजाब से बीजेपी सांसद और प्रख्यात अभिनेता सन्नी देओल के करीबी हैं। किसान आईटी सेल ने इन लोगों की सन्नी देओल, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ खिंचवाई फोटो और वीडियो सार्वजनिक कर दी। इसके साथ-साथ दिल्ली पुलिस द्वारा नजफगढ़ एरिया में किसानों के ट्रैक्टरों से तिरंगा उखाड़कर फेंकने के सैंकड़ों वीडियो जारी कर दिए गए अब सरकार अपने ही चक्रव्यूह में फंस चुकी थी। तिरंगे का अपमान किसानों ने नहीं दिल्ली पुलिस ने किया था। सरकार की खूब किरकिरी हुई। पूरे देश में मैसेज गया कि लालकिले के बहाने किसान आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की गई है।
अतः जनता, सरकार की सभी चालें समझ चुकी थीं। इसका फायदा यह हुआ कि इस प्रकरण के चलते किसान आंदोलन कमजोर होने की बजाए पहले से ज्यादा मजबूत हो गया। खासकर हरियाणा और उत्तरप्रदेश में पहले से कई गुणा किसानों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लेना शुरू किया। पंजाब और हरियाणा में तो भाजपा का इतना बुरा हाल है कि उनके नेता अधिकांश क्षेत्रों में राजनीतिक कार्यक्रम तक नहीं कर पा रहे। हरियाणा के मुख्यमंत्री अपने ही गृह क्षेत्र करनाल के गांव कैमला में अपना हेलीकॉप्टर तक नहीं उतरवा सके। उधर बीजेपी की सहयोगी जेजपी के सबसे बड़े नेता और राज्य के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला भी अपने निर्वाचन क्षेत्र उचाना में भी अपना हेलीकॉप्टर लैंड नहीं करवा पाए।
लिखना मौजूं है कि ग्रेट ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जो गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि थे, उन्होंने भी अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया। हालांकि इसकी वजह कोविड को बताया गया लेकिन अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भारत में चल रहे किसान आंदोलन की सुर्खियां भी इसकी अहम वजह रही। इसके साथ ही हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल के एकमात्र विधायक अभय सिंह चौटाला ने 27 जनवरी 2021 को किसानों के समर्थन में हरियाणा विधानसभा से इस्तीफा दे दिया। किसान आंदोलन के लिए देश के किसी भी सांसद या विधायक का यह पहला इस्तीफा था। इससे भी हरियाणा में आंदोलन को मजबूती मिली।
लेकिन 26 जनवरी 2021 के बाद किसानों के पास अभी तक केंद्र सरकार से बातचीत का कोई न्योता नहीं आया। जबकि केन्द्र सरकार कह चुकी है कि वह किसानों से एक कॉल की दूरी पर है।
यह किसान आंदोलन किसी एक व्यक्ति या एक यूनियन का न बन जाये, इसके लिए 40 बड़े किसान और सामाजिक नेताओं का संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) बनाया गया। यही मोर्चा पूरे आंदोलन को संचालित करता है। किसी भी राजनीतिक दल को इसमें हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है। मोर्चों पर राजनेताओं को सम्बोधन करने की भी मनाही है।
मगर इसका अर्थ यह नहीं कि मोर्चे को राजनीति से परहेज है। उसने सत्तारूढ़ दल को राजनीतिक रूप से चुनौती देने का भी निर्णय लिया ताकि दबाव बनाया जा सके। इस मामले में किसान आंदोलन को नई संजीवनी मिली जब पश्चिम बंगाल के चुनावों में उन्होंने भाजपा को हराने का आह्वान किया और भाजपा वहां धूल चाट गई। किसान नेताओं ने इन चुनावों में जाकर रैलियां करके बीजेपी की दमनकारी नीतियों को उजागर किया था और नए तीन कृषि कानूनों की खामियां उजागर की थीं।
अब किसान नेताओं की नजर उत्तरप्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावों पर है। हाल ही में 5 सितम्बर 2021 को मुजफ्फरनगर से इसका विधिवत रूप से एलान कर दिया गया है। जिस हिसाब से यहाँ भीड़ उमड़ी है और ये सिलसिला अगर आने वाले दिनों में इसी तरह जारी रहता है तो किसान अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब हो जाएंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है। क्योंकि किसानों ने उत्तरप्रदेश की सभी 18 कमिश्नरियों में इस तरह की रैलियां आयोजित करने की योजना बनाई हैं।
वैसे मसला यूपी चुनाव का नहीं है, तीन नए कृषि कानूनों ने जिस तरह सम्पूर्ण भारत के किसान-मजदूरों को एकजुट किया है वह अभूतपूर्व है। आप किसान धरनास्थलों पर जाकर किसानों से बात करके देखिये। इस विषय पर उनकी पकड़ देखकर हैरान रह जाएंगे। इस आंदोलन ने धर्म-जाति-क्षेत्रवाद-भाषा-आर् थिक असमानता-लिंगभेद आदि पर जबरदस्त प्रहार किया है। मुजफ्फरनगर में किसानों के मंच से हर-हर महादेव, अल्लाह हू अकबर और बोले सो निहाल के गगनभेदी नारों ने सामाजिक समरसता को तोड़ने वाली ताकतों को नींद हराम कर दी है। वहाँ हर धर्म और जाति के किसान थे, देश के कोने-कोने से अलग-अलग भाषा बोलने वाले किसान आये, छोटे सीमांत किसान थे तो बड़े जमींदार भी मंच के सामने जमीन पर बैठकर चिंतन मंथन कर रहे थे। महिलाओं की भागीदारी तो देखते ही बनती थी।
किसान नेताओं का मानना है कि अगर आंदोलन अहिंसक रहा तो सरकार हार मानने पर हर हालत में मजबूर हो जाएगी। अतः किसानों द्वारा कहीं से भी हिंसा की खबर नहीं आई है। हालांकि किसानों पर जगह-जगह पानी बौछारें, आंसूगैस और लाठीचार्ज हुआ है पर किसानों ने कहीं भी हिंसक प्रतिक्रिया नहीं दी है।
इस आंदोलन ने एक बार फिर ये धारणा मजबूत की है कि अहिंसा के प्रयोग से असम्भव को सम्भव बनाया जा सकता है। सरकार चाहती है कि किसान आंदोलन हिंसक हो मगर किसानों का धैर्य काबिले तारीफ है। इन्हीं अहिंसक आंदोलनों के जरिये किसान-मजदूरों ने हिसार, टोहाना और करनाल में सरकार को वार्ता करने के लिए मजबूर किया और अपनी जायज मांगें मनवाने में कामयाब रहे।
चलते-चलते
अगर आप किसान आंदोलन के किसी भी मोर्चे पर जाएंगे तो पाएंगे कि शहीद (सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार तो नहीं) भगत सिंह के फोटो लगे हैं, युवाओं की टी शर्ट्स पर भी शहीद भगत सिंह छपे हैं। लेकिन महात्मा गांधी नदारद हैं। मजे की बात यह है कि यह आंदोलन महात्मा गांधी के नक्शेकदम पर चल रहा है। आप इसे सविनय अवज्ञा आंदोलन के रूप में भी देख सकते हैं।महात्मा गांधी आज भी प्रासंगिक हैं।