“सांकेतिक होता कुंभ तो बेकाबू नहीं होता कोरोना”

  • साधु-संतों को आर्थिक लाभ और उत्तरप्रदेश चुनाव में सहयोग की मंशा से किया कुंभ का आयोजन 
  • प्रतीकात्मक कुंभ की ज़िद्द से हटना पड़ा त्रिवेंद्र को

नई दिल्ली। देश के कई राज्यों में कोरोना का कहर जारी है। कोरोना के बढ़ते प्रकोप के बीच यह बात तेजी के साथ उभर कर सामने आई है कि ज्यादातर कोविड संक्रमण के पीछे कुंभ स्नान कर लौटे श्रद्धालुओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है जिनमें साधु-संत भी शामिल हैं। दरअसल, यदि त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री होते तो कुंभ वाकई सांकेतिक ही होता और कोरोना संक्रमण इतनी तेजी के साथ नहीं फैलता।

क्योंकि तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इसके पुख्ता इंतजाम भी कर लिए थे। उस दौरान कुंभ का जल सभी राज्यों में टैंकरों द्वारा भेजने की भी योजना बनाई गई थी लेकिन अखाड़े और आरएसएस सहित भाजपा के कई नेता कुंभ को भव्य देखना चाह रहे थे। लेकिन यदि त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री रहते तो यह संभव नहीं था। क्योंकि वे चाहते थे कि कोरोना किसी भी कीमत पर नहीं फैले। इसलिए केंद्र के गाइडलाइंस के तहत ही सब कुछ हो।

लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को लगा कि यदि कुंभ सांकेतिक हुआ तो इसका सीधा असर अगले साल उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव पर भी पड़ेगा। क्योंकि स्नान नहीं होने से परेशान लोगों का गुस्सा योगी सरकार पर निकलता। यहां बताना जरूरी है कि उत्तरप्रदेश से कुंभ स्नान के लिए काफी संख्या में लोग आते हैं और इस बार आए भी है।

इस पर भाजपा, अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् के महंतों और हरिद्वार महाकुम्भ से जुड़े अधिकारियों की गई बातचीत के मुताबिक उत्तराखंड राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को मार्च 2021 में इस कारण पद से हटा दिया गया क्योंकि वे चाहते थे की कुम्भ केवल प्रतीकात्मक हो और भव्य तरीके से इसे न मनाया जाये। कम से कम पांच महंतों, दो बीजेपी के नेताओं, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और कुछ केंद्रीय मंत्री चाहते थे कि राज्य एक विशाल और भव्य स्तर पर कुम्भ का आयोजन करे जबकि त्रिवेंद्र सिंह रावत इस बात के पक्षधर थे कि कुम्भ प्रतीकात्मक हो।

महंतों के साथ हुई बातचीत से यह भी पता चला कि वे चाहते थे की कुम्भ का आयोजन 2021 में ही कर लिया जाये जबकि हिन्दू कैलेंडर के हिसाब से यह 2022 में आयोजित किया जाना चाहिए।

एक वरिष्ठ बीजेपी नेता ने बताया कि COVID-19 वैश्विक महामारी के बीच में कुम्भ का आयोजन करना एक राजनीतिक और आर्थिक फैसला था। उन्होंने बताया कि चुनाव से ठीक एक साल पहले अखाड़ों को नाराज़ करना ठीक नहीं था। उन्होंने बताया की कुम्भ को टालना महंतों के लिए नुकसान की बात साबित होती जिससे उनके सहयोग और कमाई दोनों पर असर पड़ता, अखाड़ों की उत्तर प्रदेश में खूब धाक है। कुम्भ का वार्षिक टर्नओवर हज़ारों करोड़ों में होता है।

प्रधानमंत्री मोदी के साथ हुई एक बैठक में इस विषय पर चर्चा हुई और उन्होंने त्रिवेंद्र सिंह रावत को बताया कि महाकुम्भ बहुत ही प्रमुख हिन्दू त्यौहार है और अखाड़ों को इसकी तैयारी में कोई अड़चन नहीं आनी चाहिए। यह बिना किसी विवाद के हो जाना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत और अखाड़ों के बीच टकराव से ही रावत को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। दरअसल, कोरोना काल में पश्चिम बंगाल सहित पांच राज्यों में हुए चुनाव और महा कुम्भ का आयोजन की वजह से कोरोना तेजी से फैल रहा है।

साभार : The Caravan

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