- बंगाल चुनाव के नतीजे तय करेंगे आंदोलन की दशा-दिशा
- मीडिया भी भुला चुका किसानों की मांग, अब कोरोना पर फोकस
आजकल देश में सिर्फ कोरोना की चर्चा हो रही है। क्योंकि इस समय कोरोना सबसे ज्यादा सक्रिय है। प्रतिदिन करीब तीन लाख से ज्यादा संक्रमित लोग बढ़ रहे हैं और देश में कुल संक्रमितों की संख्या तीस लाख के करीब जा पहुंची है। यह अपने आप में एक विश्व रिकॉर्ड है। ऐसी नाकामी का ठप्पा दुनिया की किसी और सरकार पर नहीं लगा है। हालत यह हो गई है कि कल तक पश्चिम बंगाल के चुनावों की जो चर्चा हो रही थी वह भी पृष्ठभूमि में जा चुकी है। नेता पिछले दो महीने से चुनावों में व्यस्त हैं। एक तरफ लोगों को कोरोना से बचने के लिए मास्क लगाने और दो गज दूरी बनाने का उपदेश दे रहे थे और दूसरी तरफ खुद बिना मास्क के लाखों की रैलियां कर रहे थे। उसका कुपरिणाम यह निकला कि पूरे देश में कोरोना का विस्फोट हो गया। अब चर्चा चुनावों से हटकर कोरोना पर फोकस हो चुकी है। किसान आंदोलन तो कभी का पृष्ठभूमि में जा चुका है। जब चुनावों पर चर्चा चल रही थी तो उससे संबंधित कोई फैसला लेने पर किसान आंदोलन का जिक्र हो जा रहा था। इसी तरह अब कोरोना चर्चा के केंद्र में है तो कोरोना से जुड़े फैसले लेने पर किसान आंदोलन की चर्चा हो जाती है। वैसे मीडिया तो अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर किसान आंदोलन को बहुत पहले ही खबरों की कब्रगाह में दफना चुका है।
किसान आंदोलन को पांच महीने से ज्यादा हो चुके हैं। एक समय था जब किसान दिल्ली में तीन जगहों पर देश के कोने-कोने से आकर जम गए थे। भीषण सर्दी पड़ी, बारिश हुई, सरकार ने बिजली-पानी काटा, फिर भी किसान डटे रहे। 26 जनवरी की दुखद घटना के बाद एक दौर ऐसा भी आया जब लगा किसानों का तंबू उखड़ जाएगा। पर सत्ताधारी दल की ओछी हरकतों और मंशा ने किसान आंदोलन को बचा लिया। 26 जनवरी की घटना के बाद किसान अपने-अपने घरों को लौटने लगे थे। इसी बीच सत्ताधारी दल ने किसानों के टेंट उखाड़ने की योजना बनाई। प्रशासन की मदद से चेतावनी दी गई। किसान लौटने को मजबूर हो रहे थे। तभी बीजेपी ने केंद्र सरकार का विरोध कर रहे किसानों को सबक सिखाने की योजना बनाई। वे प्रशासन के साथ मिलकर किसानों को खदेड़ने की योजना तो बना ही रहे थे। उन्होंने लौटते किसानों पर हमले की योजना भी तैयार कर ली। जब यह बात किसान नेता राकेश टिकैत को पता चली तो वे रो पड़े। उन्हें रोता देखकर किसान एक बार फिर धरना स्थलों की ओर लौट पड़े। देखते ही देखते धरना स्थल किसानों के जमावड़े से भर गए। बाजी एक बार फिर पलट गई।
लेकिन सरकार ने फिर भी किसानों की मांगों पर ध्यान नहीं दिया। उपेक्षा का रुख बनाये रखा। जो बातचीत रुक गई थी उसे भी शुरू नहीं किया। किसानों के सामने समस्या यह खड़ी हो गई कि आखिर वे कब तक किसान आंदोलन को जिंदा रखें और किस तरह। वह कब तक अपने लोगों का मनोबल बनाए रख सकते थे। उन्हें लगा कि यह सरकार तो सुन नहीं रही इसलिए इसे हटाने में मदद करनी चाहिए। वे पहले से ही कह रहे थे कि आगामी चुनावों में किसान उन्हें बता देंगे कि उनकी अवहेलना करने का क्या मतलब होता है। उसी सोच के तहत उन्होंने पश्चिम बंगाल चुनाव में बीजेपी को हराने की अपील की। उन्होंने अपने दस्ते पश्चिम बंगाल चुनाव में भेजे। उनके दस्तों ने वहां जाकर किसी के पक्ष में चुनाव प्रचार नहीं किया लेकिन बीजेपी को हराने की अपील हर मंच पर की। मीडिया ने उसकी इस बात की थोड़ी चर्चा की और मिट्टी डाल दी। चुनाव की चर्चा तो मीडिया करता रहा, पर किसान आंदोलन की चर्चा कहीं नहीं की।
अब जब कोरोना चल रहा है तो मीडिया कोरोना की चर्चा कर रहा है। लेकिन किसान आंदोलन की बिल्कुल भी नहीं। हालांकि, किसान देश हित में, देश की जनता के हित में फैसले ले रहे हैं। कोरोना जब ज्यादा घातक होने लगा तो सीमाओं पर जमे किसान भी लोगों को इसके प्रति जागरूक करने लगे। यहां तक कि जो रास्ता उन्होंने रोक रखा था हरियाणा सरकार के साथ बैठक करके उन्होंने सड़क की एक पटरी खाली कर दी ताकि मरीजों तक दवाएं और ऑक्सीजन आदि की गाड़ियां आसानी से पहुंच सकें। फिर भी मीडिया ने उनके इस कदम की सराहना नहीं की। बस सूचनात्मक खाना पूर्ति करके इतिश्री कर लिया। इसके उलट जब अस्पतालों में बेड न मिलने, दवाओं की कमी और ऑक्सीजन न मिलने से लोगों की मौत होने लगी तो बीजेपी के कुछ नेताओं ने इसमें किसानों को बदनाम करने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि किसान आंदोलन से दवाओं आदि की आपूर्ति नहीं हो पा रही है। मीडिया ने किसानों के रास्ता खाली करने को प्रमुखता से भले न दिखाया हो किसान आंदोलन से दवाओं की सप्लाई में आ रही बाधा को जरूर जगह दी। खैर, इसके पीछे उनकी अपने राजनीतिक आकाओं को बचाने की चाल भी हो सकती है। लोग मर रहे हैं। अस्पतालों के बाहर शवों की कतार है। श्मशानों में भी लाशें जलाने के लिए छह-आठ घंटे इंतजार करना पड़ रहा है। श्मशानों पर इतनी लाशें पहुंच रही हैं कि विद्युत शवदाह गृहों की चिमनियां पिघलने लगी हैं।
ऐसे में मोदी सरकार की चौतरफा आलोचना हो रही है। उस आलोचना से सरकार को बचाने के लिए मौतों की जिम्मेदारी किसान आंदोलन पर डालने की मीडिया ने असफल कोशिश की। हालांकि, मोदी ने जब मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की और दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने बैठक का वीडियो लीक कर दिया तो उससे पता चल गया कि ऑक्सीजन की सप्लाई में भी केंद्र सरकार की नाकामी ही है। इसीलिए साहब ने प्रोटोकाल तोड़ने की बात उठाई। लेकिन इन सबके बावजूद यह सच है कि सारी इच्छा शक्ति के बावजूद किसान आंदोलन में पहले जैसा उत्साह नहीं दिख रहा। धरना स्थलों पर किसानों की संख्या पहले की तुलना में काफी कम हो गई है। आखिर किसान कब तक अपना काम-धाम छोड़कर यहां पड़े रहते। इसलिए अब ये धरना स्थल सांकेतिक ही रह गए हैं। ज्यादातर किसान लौटकर अपने काम कर रहे हैं और बीच-बीच में यहां आ जाते हैं। इस बीच यह देखने में आया है कि समाज के दूसरे तपके के लोग जरूर आकर कुछ दिन यहां रहते हैं। अभी हाल ही में पंजाब के शिक्षकों का एक दल धरना स्थल पहुंचा और कुछ दिन वहां रुका। इस दल में पंजाब के 100 शिक्षक थे। यह एक सकारात्मक चीज है। समाज के बाकी वर्गों को भी इसी तरह की सोच अपनानी चाहिए और किसान आंदोलन की मदद करनी चाहिए। क्योंकि उनकी मांगों का असर सिर्फ किसानों पर ही नहीं बल्कि समाज के हर वर्ग पर पड़ने वाला है। उनके ऐसा करने से एक स्वस्थ परंपरा भी जन्म लेगी। आज जो दूसरे वर्ग के लोग किसान आंदोलन को सफल बनाने के लिए इसमें भागीदारी कर रहे हैं कल को किसान भी उनके साथ उनके आंदोलनों में खड़ा होंगे।
बहरहाल, किसानों को भी दो मई के नतीजों का इंतजार है। यदि बीजेपी हारती है तो किसानों का उत्साह बढ़ेगा और निश्चित रूप से यह बीजेपी के लिए किसी खतरे की घंटी से कम नहीं होगा। लेकिन यदि बीजेपी जीतती है तो निश्चित रूप से किसानों को बड़ी निराशा होगी। सरकार इसे किसानों के समर्थन के रूप में प्रचारित करेगी और किसान आंदोलन को अपना बोरिया-बिस्तर बांधने के लिए एक बार फिर मजबूर करेगी। शायद इस बार पहले से ज्यादा सख्ती के साथ। पर फिर भी यह बहुत आसान नहीं होगा। हो सकता है कि पिछला इतिहास दोहरा दिया जाए। पिछली बार राकेश टिकैत के आंसुओं ने आंदोलन को संजीवनी प्रदान की थी। इस बार कोई और चीज वजह बन जाए। - अमरेंद्र कुमार राय, नई दिल्ली।
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