आओ चलो पप्पू हो जाएं

हम जिस पप्पू की बात कर रहे हैं, उसका मौलिक नाम लेने की भी जरूरत नहीं हैं, क्योंकि हमें पता है कि ये काॅलम पढ़ने वाले इतने गधे नहीं हो सकते। पप्पू नामकरण करने वाले, गधे-घोड़े या खच्चर हों, तो मुझे हैरानी भी नहीं होगी। देश का समयकाल बड़े उलट फेर वाला है। पप्पू ही सच्चा साबित हो रहा है…

वीरेंद्र सेंगर

जनाब! नाम में क्या रखा है? ये सवाल लंबे समय से हवा में तैरता आया है। अपनी सुविधा से समय समय पर जबाव भी आते हैं, लेकिन इस यक्ष सवाल का इन जवाबों से पेट कहां भरा है? यही देखो! सालों से पप्पू नाम को हवा दी गयी। एक अच्छे खासे खानदानी चिराग को पप्पू-पप्पू करके छेड़ा गया। ये कोई बच्चों की शरारत नहीं थी, बल्कि देश की एक मात्र गौ जैसी पवित्र सियासी कुनबे का प्रयोग था। जो चल भी रहा है और नहीं भी चल रहा क्योंकि ये राष्ट्रीय पप्पू अब चिढ़ता नहीं है, डिप्रेशन में नहीं जाता। वो तो इतना चतुर सुजान निकला कि अब पप्पू नाम के सृजन कर्ताओं को ही छिछोरे पप्पू साबित करने में लग गया। बैंड बाजे के साथ।

हम जिस पप्पू की बात कर रहे हैं, उसका मौलिक नाम लेने की भी जरूरत नहीं हैं, क्योंकि हमें पता है कि ये काॅलम पढ़ने वाले इतने गधे नहीं हो सकते। पप्पू नामकरण करने वाले, गधे-घोड़े या खच्चर हों, तो मुझे हैरानी भी नहीं होगी। देश का समयकाल बड़े उलट फेर वाला है। पप्पू ही सच्चा साबित हो रहा है। दरअसल, वो नेता नहीं, घंटा ज्यादा हो गया है।

हर रोज ट्विटर-ट्विटर खेलकर ‘एलर्ट’ जारी करता। इतना घंटा हिलाता है कि अवतार पुरुष भी भन्ना जाते हैं। अंत में उसकी राह पर चलना होता है। ये क्या खेल है, जो राष्ट्रीय मंच पर अभी शुरू हुआ है। ‘खूब खेला होबे’ का नारा भी उछाला गया है।

कुछ साल पहले ‘अच्छे दिन‘ का सियासी सपना बेचा गया था। इसकी जमकर मार्केटिंग हुई थी। बस, कुछ भ्रमजाल था। ये नहीं बताया गया था कि किसके ‘अच्छे दिन’ आने वाले हैं? लोगों ने ये सुहावना नारा सुना कि ‘अच्छे दिन‘ एक झांसा है, छलावा है, ये ‘बगावत’ लोगों को अच्छी नहीं लगी। सो, उन्होंने और जोर लगाया। सपने बेचने वाले छलिए को 56वां अवतार मान लिया। कई बार नाम बिगड़ जाता है। कुछ लोग 56वां अवतार कहने के बजाय ‘56 इंच’ कहना शुरू कर दिया, यानी 56 वाला योद्धा।

राजाजी उर्फ योद्धा की सेना बहुत बड़ी है। सो, उसने धमाल मचाना शुरू किया। सामने वाले युवराज को पप्पू कहना शुरू किया। पप्पू की छवि एक मंदबुद्धि और बेवड़े की गढ़ी गयी। इस नामकरण से वे चिढ़ने लगे, उनकी मंडली सालों इस सफाई में लगी रही। यहां तक कि उनका कुंवर, पप्पू नहीं है। वो काबिल है। सालों ये दौर चला। लंबी दाढ़ी और लंबी हो ली, ये दाढ़ी इतनी चर्चा में आयी कि दर्जनों इस पर शोध करके पीएचडी धारक बन सकते थे। सफेद दाढ़ी में बड़े-बड़े गुन होते हैं। ये बात हमें बचपन से सिखाई गयी है।

ये दाढ़ी रवींद्र नाथ टैगोर वाली लगती है तो किसी को कोई तांत्रिक टोटका लगता है। खैर, जनता शोध में लगी है। अब जितनी बड़ी दाढ़ी, उतनी ही बड़ी अटकलें।इधर, गजब हो गया है। राष्ट्रीय पप्पू एक बड़े पापा बनना चाहता है। सो, रोज ट्विटर पर बम दागता है। ताकि अवतार को कुछ शर्म आए और जनता जान ले कि असली पप्पू कौन है? इधर पप्पू भी कुछ ढीठ हो गया है। वो पप्पूपन के मजे लेने लगा है। वो तो कह रहा है, पप्पू, गुड्डू या मुन्ना आपके परिवार में होंगे। पप्पू तो प्यार और मोहब्बत का नाम है। मैं तो इस नाम से खुश हूं। कम से कम वो फेंकू तो नहीं हूं। देश को ठग तो नहीं रहा, उसकी तरह। क्योंकि पप्पू, निर्मल हृदय वाला ही हो सकता है। फेंकू देश के लिए हानिकारक हो सकता है, पप्पू नहीं।

चुप रहने वाला पप्पू अब सियासत का ‘एंग्री मैन’ बन गया है। अवतार पुरुष उसको ‘फेंकू’ बोलता है तो हम इसके सख्त खिलाफ हैं। सत्ता के शीर्ष पुरुष को फेंकू बोलना, एक तरह अश्लीलता है, लेकिन वो रोज सियासी अश्लीलता फैलाता है। हमें तो शर्म आती है। इससे विदेशों में हमारी छवि खराब होती है। क्या तमाशा बना रखा है, उसका पूरा भगवा कुनबा भी उसे पप्पू कहता है। वो कह चुका है, ‘हां, मैं पप्पू हूं…कम से कम झांसेबाज फेंकू से तो अच्छा हूं।’ खैर, ये दोनों बड़े वाले नेता हैं एक से बढ़कर। यह लोकतंत्र की महिमा ही है कि यहां कुछ भी बोलने की आजादी है। सो, पप्पू और फेंकू मंडलियां एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध लड़ रही हैं। एक-दूसरे की टोपी उछाल रही है। दोनों का बचपना लौट आया है। छज्जे में खड़े होकर दोनों एक दूसरे को अंगूठा दिखा रहे हैं। ‘पप्पू-पप्पू’ और ‘फेंकू-फेंकू’ कहकर ठहके लगे रहे। दुनिया इन शुद्ध भारतीयों का स्वांग देख रही है। जनता भी आनंद ले, हैप्पी वाला।

 

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