- हरिद्वार कुंभ के कारण संक्रमण के फैलाव की आशंका कई गुना बढ़ी: प्रो. दुबे
- जनता आगामी 15 दिनों तक बनाए रखें गंगा स्नान से दूरी: प्रो. त्रिपाठी
–डा. श्रीगोपाल नारसन, एडवोकेट, देहरादून।
कुंभ का कैसा यह साया
कोरोना का कहर बरपाया
जिंदगी जैसे थम गई हो
डर से सहम सी गई हो
घर में रहने को मजबूर हैं
बेहाल बेचारे मजदूर हैं
हाथ मिलाना निषेध है
खांसी, छींक से भयभीत हैं
मानव से मानव की दूरी बढ़ी
संक्रमण की बीमारी बढ़ी
एकाकीपन सता रहा है
सेनेटाइजर ही भा रहा है
बचकर रहिए कोरोना से
संक्रमण दूर भगाएं सब
तभी रहम करेगा रब।
मार्च सन 2020 से आज तक का समय देश ही नहीं, दुनिया के लिए कोरोना महामारी के कारण कष्ट और व्यवधान भरा चल रहा है। इसी कारण जिंदगी घरों में कैद होने को फिर सब मजबूर हो गई। बच्चों की पढ़ाई और बड़ों के कारोबार सब ठप होकर रह गए। कुंभ बीच में ही समाप्त कर 28 अप्रैल से हरिद्वार जिले में कर्फ्यू लगा दिया है। जबकि देहरादून में पहले से ही कर्फ्यू जारी है।
आस्था पर भारी अव्यवस्था
शाही स्नान की तैयारियों को लेकर कुंभ मेला और हरिद्वार जिला प्रशासन ने अजीब व्यवस्थाएं की थीं, जिसके तहत उत्तराखंड सीमा पर अन्य राज्यों से यात्रियों को लेकर हरिद्वार आ रही बसों को वहीं रोक दिया गया। जिस कारण यात्रियों को उत्तराखंड सीमा के अंदर खड़ी बसों तक पहुंचने के लिए कई कई किमी पैदल चलना पड़ रहा है। यानी बसों के प्रवेश पर तो रोक है लेकिन पैदल यात्री आ सकते हैं। क्या कोरोना बसों में है जो उन्हें रोक रहे हंै और यात्रियों में नहीं है जो उन्हें पैदल जाने दे रहे हैं। कुंभ के नाम पर स्थानीय लोगों की आवाजाही रोकना भी प्रशासन की मनमानी ही है। मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत आस्था के नाम पर यात्रियों को सुविधा देने के दावे करते रहे, लेकिन हकीकत में उनके अधिकारी ही कुंभ में आने से यात्रियों को रोक सरकार की मंशा पर पलीता लगा रहे। महाकुंभ के आकर्षण का केंद्र विशालकाय शंख के लोकार्पण और ‘हरिद्वार कुंभ-मीडिया का बदलता स्वरूप-समाधान और चुनौतियां’ विषय पर एक मीडिया कार्यशाला का आयोजन करके किया गया। इस बार कुंभ श्रद्धालुओं को शानदार सड़कंे, धर्म और आस्था से ओतप्रोत कलाकृतियां, विभिन्न वेशभूषाओं से सुसज्जित सन्तों के अखाड़े, मां गंगा की नील धारा में फैले रेगिस्तान पर योग साधना के बड़े बड़े वातानुकूलित कक्ष, अस्थायी पुल, प्रेरक उपदेश और प्रवचनों की श्रृंखला को दिव्यता का रूप दे रही थी।
इस कुंभ में सभी शाही स्नान कराये जाने और अपनी आस्था लेकर 30 अप्रैल तक श्रद्धालुओं के आने का दावा किया गया था। परन्तु कड़ी व्यवस्था के तहत श्रद्धालुओं को कुंभ में आने से रोकने के लिए बेवजह की सख्ती करने और फिर भी कुंभ में कोरोना संक्रमितों के बड़ी संख्या में आ जाने से कुंभ बदहाल अवस्था तक जा पहुंचा जिसे समय से पहले ही 28 अप्रैल से कर्फ्यू लगाकर जबरन समेट दिया गया।
98 दिनों का कुंभ 28 दिनों में सिमटा
हरिद्वार में महाकुम्भ या कुंभ होता है तो श्रद्धालु बड़ी संख्या स्नान करते हैं। यहां प्रति बारहवें वर्ष महाकुम्भ का आयोजन होता है। हरिद्वार और प्रयाग में दो महाकुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ भी होता है। यह महाकुम्भ मेला यूं तो मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होना था, क्योंकि उस समय सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और बृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के इस योग को ‘महाकुम्भ स्नान-योग’ भी कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलिक पर्व माना जाता है। कहा जाता है कि पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन ही खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। लेकिन इस बार कोरोना महामारी के चलते महाकुंभ 98 दिनों के बजाय सिर्फ 27 दिन की अवधि में सिमट कर रह गया।
महाकुंभ के आयोजन को लेकर कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूंदें गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार, महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इंद्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हें सारा वृतांत सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हंे दैत्यों के साथ मिल कर क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र ‘जयंत’ अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के निर्देश पर दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ लिया। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस परस्पर मार-काट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक पर कलश से छलक कर अमृत बूंदें गिरी थीं। उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बांटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया।
चूंकि अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। इस कारण कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहां पहुंच नहीं है ऐसा माना जाता है।
जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय महाकुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहां-जहां अमृत बूंद गिरी थी, वहां-वहां महाकुंभ होता है।
ऐतिहासिक महत्व और हादसे
600 ईसा पूर्व के बौद्ध लेखों में नदी मेलों का उल्लेख मिलता है। 400 ईसा पूर्व के सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी दूत ने एक मेले को प्रतिवेदित किया, ऐसा कहा जाता है। विभिन्न पुराणों और अन्य प्राचीन मौखिक परम्पराओं पर आधारित पाठों में पृथ्वी पर चार विभिन्न स्थानों पर अमृत गिरने का उल्लेख हुआ है।
महाकुम्भ में अखाड़ों के स्नान का भी विशेष महत्व है। सर्वप्रथम आगम अखाड़े की स्थापना हुई, कालांतर में विखंडन होकर अन्य अखाड़े बने। 547 ईस्वी में अभान नामक सबसे प्रारम्भिक अखाड़े का लिखित प्रतिवेदन हुआ था। 600 ईस्वी में चीनी यात्री ह्यान-सेंग ने प्रयाग में सम्राट हर्ष द्वारा आयोजित महाकुम्भ में स्नान किया था। 904 ईस्वी मे निरन्जनी अखाड़े का गठन हुआ था जबकि 1146 ईसवी मे जूना अखाड़े का गठन हुआ। 1398 ईस्वी में तैमूर, हिन्दुओं के प्रति सुल्तान की सहिष्णुता के विरुद्ध दिल्ली को ध्वस्त करता है और फिर हरिद्वार मेले की ओर कूच करता है और हजारों श्रद्धालुओं का नरसंहार करता है। जिसके तहत 1398 ईस्वी में हरिद्वार महाकुम्भ नरसंहार को आज भी याद किया जाता है। 1565 ईस्वी मंे मधुसूदन सरस्वती द्वारा दसनामी व्यवस्था की गई और लड़ाका इकाइयों का गठन किया गया। 1678 ईस्वी में प्रणामी संप्रदाय के प्रवर्तक श्री प्राणनाथजी को विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक घोषित किया गया।1684 ईस्वी मंे फ्रांसीसी यात्री तवेर्निए नें भारत में 12 लाख हिन्दू साधुओं के होने का अनुमान लगाया था। 1690 ईस्वी मं नासिक में शैव और वैष्णव साम्प्रदायों में संघर्ष की कहानी आज भी रोंगटे खड़े करती है, जिसमें 60 हजार लोग मरे थेे। 1760 ईस्वी मे शैवों और वैष्णवों के बीच हरिद्वार मेले में संघर्ष के तहत 18 सौ लोगांे के मरने का इतिहास है। 1780 ईस्वी में ब्रिटिशों द्वारा मठवासी समूहों के शाही स्नान के लिए व्यवस्था की स्थापना हुई। 1820 में हरिद्वार मेले में हुई भगदड़ से 430 लोग मारे गए, जबकि 1906 मे ब्रिटिश कलवारी ने साधुओं के बीच मेला में हुई लड़ाई में बीच-बचाव किया और अनेकों की जान बचाई। 1954 में चालीस लाख लोगों अर्थात भारत की उस समय की एक फीसद जनसंख्या ने इलाहाबाद में आयोजित महाकुम्भ में भागीदारी की थी। उस समय वहां हुई भगदड़ में कई सौ लोग मरे थे।
1989 में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने 6 फरवरी के इलाहाबाद मेले में डेढ़ करोड़ लोगों की मौजूदगी प्रमाणित की, जो कि उस समय तक किसी एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी। 1995 में इलाहाबाद के “अर्धकुम्भ” के दौरान 30 जनवरी के स्नान दिवस में 2 करोड़ लोगों की उपस्थिति बताई गई। 1998 में हरिद्वार महाकुम्भ में 5 करोड़ से अधिक श्रद्धालु चार महीनों के दौरान पधारे थे। 14 अप्रैल को एक दिन में ही एक करोड़ लोगांे की उपस्थिति ने सबको चैंका दिया था। 2001 मंे इलाहाबाद के मेले में छह सप्ताहों के दौरान 7 करोड़ श्रद्धालु आने का दावा किया गया था। 24 जनवरी 2001 के दिन 3 करोड़ लोगों के महाकुंभ में पहुंचने की बात की गई। 2003 मे नासिक मेले में मुख्य स्नान दिवस पर 60 लाख लोगों की उपस्थिति महाकुम्भ के प्रति व्यापक जन आस्था का प्रमाण रही है। परन्तु इस हरिद्वार कुंभ में कई सौ करोड़ खर्च करने के बाद भी 28 दिनों में हुए तीन शाही स्नानों ने सौगात में पुण्य दिया या नहीं, यह तो नहीं पता परन्तु कोरोना जरूर फैला गया जिसका परिणाम क्षेत्र की जनता कोरोना बीमारी व कर्फ्यू के रूप में भुगत रही है।
कोरोना संक्रमितों के स्नान से बढ़ा खतरा
कोरोना के साए में महाकुंभ स्नान से हरिद्वार में महामारी का खतरा लगातार बढ़ गया है। तीन शाही स्नान हुए जिनमंे गंगा में लाखांे संतों और श्रद्धालुओं ने डुबकी लगाई थी। इन शाही स्नानों के बाद हरिद्वार जिले में कई हजार लोग कोरोना संक्रमित पाए जा रहे हैं। जिनमें बहुतायत में संत और श्रद्धालु भी शामिल हैं। जिसे लेकर रुड़की आईआईटी के वैज्ञानिक भी का फैलाव कई गुना बढ़ने की आशंका से चिंतित हैं। वैज्ञानिकों का दावा है कि कोरोना का वायरस ड्राई सरफेस की तुलना में गंगा के पानी में अधिक समय तक एक्टिव रह सकता है। गंगा का पानी बहाव के साथ वायरस बांट सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि संक्रमित व्यक्तियों के गंगा स्नान और लाखों की भीड़ जुटने का असर आगामी दिनों में महामारी के रूप में सामने आ सकता है। जैसा की आ भी रहा है।
अखाड़ों से जुड़े अनेक संत कोविड पॉजिटिव आ चुके हैं। अखाड़ा परिषद अध्यक्ष श्रीमहंत नरेंद्र गिरि स्वयं भी अस्पताल में हैं। महामंडलेश्वर कपिल देव दास की कोरोना संक्रमण से मौत हो चुकी है। संक्रमण के फैलाव से रुड़की आईआईटी के जल संसाधन विभाग के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. संदीप शुक्ला महाकुंभ में फैले जल संक्रमण को लेकर चिंतित हैं। वे अपने वरिष्ठ डॉ. संजय जैन के नेतृत्व में कोरोना वायरस पर होने वाली रिसर्च टीम के सदस्य हैं। 12 सदस्यीय टीम कोरोना वायरस के जमा एवं बहते हुए पानी में सक्रियता की अवधि पर रिसर्च कर रही है। डॉ. शुक्ला बताते हैं, इतना तो तय है कि कोरोना का वायरस ड्राई सरफेस और मेटल की तुलना में नमी और पानी में अधिक सक्रिय रहता है। पानी में सक्रियता का ड्यूरेशन कितना अधिक हो सकता है, रिसर्च के बाद खुलासा होगा।
वहीं, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के माइक्रोबायोलॉजी विभागाध्यक्ष प्रो. रमेश चंद्र दुबे का कहना है कि हरिद्वार में कुंभ के कारण संक्रमण के फैलाव की आशंका कई गुना बढ़ गई है। वायरस सामान्य तापमान में जिंदा रहता है और संक्रमित व्यक्ति से मल्टीप्लाई होता रहता है। यदि स्नान के दौरान एक भी संक्रमित व्यक्ति ने डुबकी लगाई तो कई लोगों तक बीमारी फैलने की आशंका बढ़ जाती है। माइक्रो बायोलॉजिस्ट का दावा है कि कोविड संक्रमण पानी में न केवल कई दिन तक एक्टिव रह सकता है, बल्कि गंगा के बहाव के साथ संक्रमण भी फैला सकता है। कोविड का नया स्ट्रेन बेहद घातक है। ऐसे में कुंभ आयोजन और उसमें भी लाखों की भीड़ जुटना और गंगा में स्नान करना बेहद चिंताजनक रहा है। इससे संक्रमण के फैलने की आशंका बढ़ गई है। कुंभ ने वास्तव में कोरोना का खतरा कई गुना बढ़ा दिया है। तीन दिन के स्नान में कितना संक्रमण फैला है इसका असर आने वाले 10 से 15 दिनों में दिखने लगेगा।
महामना मालवीय गंगा नदी विकास एवं जल संसाधन प्रबंधन शोध केंद्र बनारस विश्वविद्यालय के चेयरमैन एवं नदी वैज्ञानिक प्रो. बीडी त्रिपाठी ने आम जनता से अपील की है कि वह आगामी 15 दिनों तक गंगा स्नान से दूरी बनाकर रखें। ऐसे में प्रधानमंत्री का कुंभ को औपचारिक कर देने का सुझाव उचित ही था। जल पुरुष राजेंद्र सिंह भी मानते हैं कि गंगा जल विशेष है, लेकिन वह साथ ही कहते हैं कि ये विशेषताएं अब नहीं रहीं, जो किसी जमाने में हुआ करती थीं। राजेंद्र सिंह द्वारा जल संरक्षण से लेकर सफाई अभियान तक आने वाली सारी रिपोर्ट्स का अध्ययन किया गया है। उनका कहना है कि अब गंगा में नहाएंगे तो पाप मुक्त नहीं होंगे, उल्टा पाप लगेगा। जब गंगा में अविरलता थी, तब निर्मलता थी। अब न अविरलता है, न निर्मलता है। एक जमाना था जब गंगा जल में 17 तरह के रोगाणुओं को नष्ट करने की शक्ति थी, अब गंगा जल में वो शक्ति नहीं बची है।
अपनों के साथ रहने का अवसर
कोरोना से एक अवसर भी मिला है कुछ सोचने का, कुछ समझने का और महसूस भी रहने का। जीवन की इस आपाधापी में हमसे क्या छूट गया? जो अपने थे वह क्यों रूठ गए। कुछ से अच्छे रिश्ते थे जिनमें गांठ पड़ गई। देखे गए सपनों और किये गए संघर्ष के बीच अपनों से जो दूरी बनी, उसे पाटने का अवसर हमें मिला है। क्या उसका फायदा उठा पाए हम। जीवन में जो कुछ सीखना था, कुछ बातें करनी थी, कुछ शौक पूरे करने थे, कुछ जज्बा दिखाना था। कुछ जज्बात भी थे जो तेज गति से गुजरती जिंदगी की गाड़ी से दिखाई नहीं पड़ रहे थे। किंतु अब समय मिला है कि हम ठहर कर वह सब देख सकें। वह सब समझ सकें कि हमने क्या खोया, क्या पाया? जो पाया वह क्या काफी है? जो खोया वह क्या ठीक हुआ? यदि हम ध्यान से देखें तो आज जो चीजें हमारी जिंदगी में वापस आ रही हैं, क्या वह सब नई हैं? शायद नहीं, ये तो वही चीजें हैं जो हमारे साथ बचपन से थीं। इसमें कुछ भी नया नहीं, बल्कि ये सब तो पुरानी है, इतनी पुरानी कि इसे हम भूल भी चुके थे। इसलिए आज हमें ये सब नई सी महसूस हो रही है।
जीवन की ऊंचाइयों को पाने की सोच में हम इतना व्यस्त हो गए थे कि हम यह भी भूल गए कि जीवन में पैसा और प्रसिद्धि ही सबकुछ नहीं है। सबसे जरूरी है खुश रहना। जीवन का असली उद्देश्य है खुश रहना और मुस्कुराना और मुस्कुराहट बांटना भी हमारा कर्तव्य होना चाहिए। अपने परिवार के साथ रहने, निकट आने का यह एक बेहतर अवसर है। बाहर की दुनिया को थोड़ी देर छोड़ कर अपनी घरेलू दुनिया से फिर जुड़ने का यह समय कहा जा सकता है।
यह सब नया नहीं है यह बातें जो हम सब भूल गए थे। अपने घर, परिवार और मित्रों को समय देना कोई नई बात नहीं है, बल्कि यह वह संस्कार है जिसे हम भूल चुके थे। मॉल, क्लब, पार्टी को छोड़कर अपनांे के साथ रहना, अपने आप से बातंे करना भी कोई नहीं बात नहीं, बल्कि यही जिंदगी जीने का सही तरीका कहा जा सकता है। कोरोना महामारी से पहले तक कभी समय ना मिलने की शिकायत करने वाले लोग लॉक डाउन में समय ना कट पाने का रोना रो रहे थे। इस लंबे खाली समय में स्वयं को समझने के लिए शांति व शक्तिशाली बनाए रखने के लिए अध्यात्म का सहारा भी लिया गया। सदियों से हमारी संस्कृति यही बताती है। योग और ध्यान तो 5 हजार वर्ष पुरानी हमारी सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है। कोरोना महामारी के कारण यह सारी बातंे हमें याद आ रही हैं। कोरोना के महादुःख के बाद के हालात सुधरने पर दूसरा पहलू सुखद ही होगा। भले ही दुनिया की जीवन जीने की गति थोड़ी कम हो गई हो। लोगों का घर से निकलना कम हो गया हो। सड़क पर गाड़ियां ना के बराबर चलने लगी हों। इससे हमारी प्रकृति को तो फायदा हुआ है, उसे राहत भी मिली है।
तेज भागती और भीड़ भरी जिंदगी के बीच प्रकृति का भी दम फूल गया था। आज खुला स्वच्छ आसमान, पक्षियों की चहचहाहट के बीच साफ हवा हमसे होकर जाने लगी है जिन्हें हम खो बैठे थे। नई परिस्थिति में हमारे सामने नए हालात में सामंजस्य बिठाने की बड़ी चुनौती है। इस महामारी के बाद हम सबके सामने एक नई शुरुआत करने का अवसर पैदा हुआ है। यानि एक बार फिर से सामान्य जीवन शुरू होगा तो हम सबके हिस्से की दुनिया बदल चुकी होगी। इस बदलाव में हमें अपने अंदर के उस व्यक्ति को बचाए और बनाए रखना है जिसे हम सब ने इस लॉकडाउन में अपनी अंतरात्मा से महसूस किया था। भौतिकता की भागम-भाग से ज्यादा हमको अपनी खुशी और अपनो की खुशी को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। यह सब अपनी पुश्तैनी जड़ों से जुड़ने जैसा अनुभव है। जो है, जैसा है उसमें खुश रहना ही सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। जो ध्यान योग से संभव है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)
कोरोना का कहर बरपाया
जिंदगी जैसे थम गई हो
डर से सहम सी गई हो
घर में रहने को मजबूर हैं
बेहाल बेचारे मजदूर हैं
हाथ मिलाना निषेध है
खांसी, छींक से भयभीत हैं
मानव से मानव की दूरी बढ़ी
संक्रमण की बीमारी बढ़ी
एकाकीपन सता रहा है
सेनेटाइजर ही भा रहा है
बचकर रहिए कोरोना से
संक्रमण दूर भगाएं सब
तभी रहम करेगा रब।
मार्च सन 2020 से आज तक का समय देश ही नहीं, दुनिया के लिए कोरोना महामारी के कारण कष्ट और व्यवधान भरा चल रहा है। इसी कारण जिंदगी घरों में कैद होने को फिर सब मजबूर हो गई। बच्चों की पढ़ाई और बड़ों के कारोबार सब ठप होकर रह गए। कुंभ बीच में ही समाप्त कर 28 अप्रैल से हरिद्वार जिले में कर्फ्यू लगा दिया है। जबकि देहरादून में पहले से ही कर्फ्यू जारी है।
आस्था पर भारी अव्यवस्था
शाही स्नान की तैयारियों को लेकर कुंभ मेला और हरिद्वार जिला प्रशासन ने अजीब व्यवस्थाएं की थीं, जिसके तहत उत्तराखंड सीमा पर अन्य राज्यों से यात्रियों को लेकर हरिद्वार आ रही बसों को वहीं रोक दिया गया। जिस कारण यात्रियों को उत्तराखंड सीमा के अंदर खड़ी बसों तक पहुंचने के लिए कई कई किमी पैदल चलना पड़ रहा है। यानी बसों के प्रवेश पर तो रोक है लेकिन पैदल यात्री आ सकते हैं। क्या कोरोना बसों में है जो उन्हें रोक रहे हंै और यात्रियों में नहीं है जो उन्हें पैदल जाने दे रहे हैं। कुंभ के नाम पर स्थानीय लोगों की आवाजाही रोकना भी प्रशासन की मनमानी ही है। मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत आस्था के नाम पर यात्रियों को सुविधा देने के दावे करते रहे, लेकिन हकीकत में उनके अधिकारी ही कुंभ में आने से यात्रियों को रोक सरकार की मंशा पर पलीता लगा रहे। महाकुंभ के आकर्षण का केंद्र विशालकाय शंख के लोकार्पण और ‘हरिद्वार कुंभ-मीडिया का बदलता स्वरूप-समाधान और चुनौतियां’ विषय पर एक मीडिया कार्यशाला का आयोजन करके किया गया। इस बार कुंभ श्रद्धालुओं को शानदार सड़कंे, धर्म और आस्था से ओतप्रोत कलाकृतियां, विभिन्न वेशभूषाओं से सुसज्जित सन्तों के अखाड़े, मां गंगा की नील धारा में फैले रेगिस्तान पर योग साधना के बड़े बड़े वातानुकूलित कक्ष, अस्थायी पुल, प्रेरक उपदेश और प्रवचनों की श्रृंखला को दिव्यता का रूप दे रही थी।
इस कुंभ में सभी शाही स्नान कराये जाने और अपनी आस्था लेकर 30 अप्रैल तक श्रद्धालुओं के आने का दावा किया गया था। परन्तु कड़ी व्यवस्था के तहत श्रद्धालुओं को कुंभ में आने से रोकने के लिए बेवजह की सख्ती करने और फिर भी कुंभ में कोरोना संक्रमितों के बड़ी संख्या में आ जाने से कुंभ बदहाल अवस्था तक जा पहुंचा जिसे समय से पहले ही 28 अप्रैल से कर्फ्यू लगाकर जबरन समेट दिया गया।
98 दिनों का कुंभ 28 दिनों में सिमटा
हरिद्वार में महाकुम्भ या कुंभ होता है तो श्रद्धालु बड़ी संख्या स्नान करते हैं। यहां प्रति बारहवें वर्ष महाकुम्भ का आयोजन होता है। हरिद्वार और प्रयाग में दो महाकुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ भी होता है। यह महाकुम्भ मेला यूं तो मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होना था, क्योंकि उस समय सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और बृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के इस योग को ‘महाकुम्भ स्नान-योग’ भी कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलिक पर्व माना जाता है। कहा जाता है कि पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन ही खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। लेकिन इस बार कोरोना महामारी के चलते महाकुंभ 98 दिनों के बजाय सिर्फ 27 दिन की अवधि में सिमट कर रह गया।
महाकुंभ के आयोजन को लेकर कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूंदें गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार, महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इंद्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हें सारा वृतांत सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हंे दैत्यों के साथ मिल कर क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र ‘जयंत’ अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के निर्देश पर दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ लिया। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस परस्पर मार-काट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक पर कलश से छलक कर अमृत बूंदें गिरी थीं। उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बांटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया।
चूंकि अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। इस कारण कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहां पहुंच नहीं है ऐसा माना जाता है।
जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय महाकुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहां-जहां अमृत बूंद गिरी थी, वहां-वहां महाकुंभ होता है।
ऐतिहासिक महत्व और हादसे
600 ईसा पूर्व के बौद्ध लेखों में नदी मेलों का उल्लेख मिलता है। 400 ईसा पूर्व के सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी दूत ने एक मेले को प्रतिवेदित किया, ऐसा कहा जाता है। विभिन्न पुराणों और अन्य प्राचीन मौखिक परम्पराओं पर आधारित पाठों में पृथ्वी पर चार विभिन्न स्थानों पर अमृत गिरने का उल्लेख हुआ है।
महाकुम्भ में अखाड़ों के स्नान का भी विशेष महत्व है। सर्वप्रथम आगम अखाड़े की स्थापना हुई, कालांतर में विखंडन होकर अन्य अखाड़े बने। 547 ईस्वी में अभान नामक सबसे प्रारम्भिक अखाड़े का लिखित प्रतिवेदन हुआ था। 600 ईस्वी में चीनी यात्री ह्यान-सेंग ने प्रयाग में सम्राट हर्ष द्वारा आयोजित महाकुम्भ में स्नान किया था। 904 ईस्वी मे निरन्जनी अखाड़े का गठन हुआ था जबकि 1146 ईसवी मे जूना अखाड़े का गठन हुआ। 1398 ईस्वी में तैमूर, हिन्दुओं के प्रति सुल्तान की सहिष्णुता के विरुद्ध दिल्ली को ध्वस्त करता है और फिर हरिद्वार मेले की ओर कूच करता है और हजारों श्रद्धालुओं का नरसंहार करता है। जिसके तहत 1398 ईस्वी में हरिद्वार महाकुम्भ नरसंहार को आज भी याद किया जाता है। 1565 ईस्वी मंे मधुसूदन सरस्वती द्वारा दसनामी व्यवस्था की गई और लड़ाका इकाइयों का गठन किया गया। 1678 ईस्वी में प्रणामी संप्रदाय के प्रवर्तक श्री प्राणनाथजी को विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक घोषित किया गया।1684 ईस्वी मंे फ्रांसीसी यात्री तवेर्निए नें भारत में 12 लाख हिन्दू साधुओं के होने का अनुमान लगाया था। 1690 ईस्वी मं नासिक में शैव और वैष्णव साम्प्रदायों में संघर्ष की कहानी आज भी रोंगटे खड़े करती है, जिसमें 60 हजार लोग मरे थेे। 1760 ईस्वी मे शैवों और वैष्णवों के बीच हरिद्वार मेले में संघर्ष के तहत 18 सौ लोगांे के मरने का इतिहास है। 1780 ईस्वी में ब्रिटिशों द्वारा मठवासी समूहों के शाही स्नान के लिए व्यवस्था की स्थापना हुई। 1820 में हरिद्वार मेले में हुई भगदड़ से 430 लोग मारे गए, जबकि 1906 मे ब्रिटिश कलवारी ने साधुओं के बीच मेला में हुई लड़ाई में बीच-बचाव किया और अनेकों की जान बचाई। 1954 में चालीस लाख लोगों अर्थात भारत की उस समय की एक फीसद जनसंख्या ने इलाहाबाद में आयोजित महाकुम्भ में भागीदारी की थी। उस समय वहां हुई भगदड़ में कई सौ लोग मरे थे।
1989 में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने 6 फरवरी के इलाहाबाद मेले में डेढ़ करोड़ लोगों की मौजूदगी प्रमाणित की, जो कि उस समय तक किसी एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी। 1995 में इलाहाबाद के “अर्धकुम्भ” के दौरान 30 जनवरी के स्नान दिवस में 2 करोड़ लोगों की उपस्थिति बताई गई। 1998 में हरिद्वार महाकुम्भ में 5 करोड़ से अधिक श्रद्धालु चार महीनों के दौरान पधारे थे। 14 अप्रैल को एक दिन में ही एक करोड़ लोगांे की उपस्थिति ने सबको चैंका दिया था। 2001 मंे इलाहाबाद के मेले में छह सप्ताहों के दौरान 7 करोड़ श्रद्धालु आने का दावा किया गया था। 24 जनवरी 2001 के दिन 3 करोड़ लोगों के महाकुंभ में पहुंचने की बात की गई। 2003 मे नासिक मेले में मुख्य स्नान दिवस पर 60 लाख लोगों की उपस्थिति महाकुम्भ के प्रति व्यापक जन आस्था का प्रमाण रही है। परन्तु इस हरिद्वार कुंभ में कई सौ करोड़ खर्च करने के बाद भी 28 दिनों में हुए तीन शाही स्नानों ने सौगात में पुण्य दिया या नहीं, यह तो नहीं पता परन्तु कोरोना जरूर फैला गया जिसका परिणाम क्षेत्र की जनता कोरोना बीमारी व कर्फ्यू के रूप में भुगत रही है।
कोरोना संक्रमितों के स्नान से बढ़ा खतरा
कोरोना के साए में महाकुंभ स्नान से हरिद्वार में महामारी का खतरा लगातार बढ़ गया है। तीन शाही स्नान हुए जिनमंे गंगा में लाखांे संतों और श्रद्धालुओं ने डुबकी लगाई थी। इन शाही स्नानों के बाद हरिद्वार जिले में कई हजार लोग कोरोना संक्रमित पाए जा रहे हैं। जिनमें बहुतायत में संत और श्रद्धालु भी शामिल हैं। जिसे लेकर रुड़की आईआईटी के वैज्ञानिक भी का फैलाव कई गुना बढ़ने की आशंका से चिंतित हैं। वैज्ञानिकों का दावा है कि कोरोना का वायरस ड्राई सरफेस की तुलना में गंगा के पानी में अधिक समय तक एक्टिव रह सकता है। गंगा का पानी बहाव के साथ वायरस बांट सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि संक्रमित व्यक्तियों के गंगा स्नान और लाखों की भीड़ जुटने का असर आगामी दिनों में महामारी के रूप में सामने आ सकता है। जैसा की आ भी रहा है।
अखाड़ों से जुड़े अनेक संत कोविड पॉजिटिव आ चुके हैं। अखाड़ा परिषद अध्यक्ष श्रीमहंत नरेंद्र गिरि स्वयं भी अस्पताल में हैं। महामंडलेश्वर कपिल देव दास की कोरोना संक्रमण से मौत हो चुकी है। संक्रमण के फैलाव से रुड़की आईआईटी के जल संसाधन विभाग के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. संदीप शुक्ला महाकुंभ में फैले जल संक्रमण को लेकर चिंतित हैं। वे अपने वरिष्ठ डॉ. संजय जैन के नेतृत्व में कोरोना वायरस पर होने वाली रिसर्च टीम के सदस्य हैं। 12 सदस्यीय टीम कोरोना वायरस के जमा एवं बहते हुए पानी में सक्रियता की अवधि पर रिसर्च कर रही है। डॉ. शुक्ला बताते हैं, इतना तो तय है कि कोरोना का वायरस ड्राई सरफेस और मेटल की तुलना में नमी और पानी में अधिक सक्रिय रहता है। पानी में सक्रियता का ड्यूरेशन कितना अधिक हो सकता है, रिसर्च के बाद खुलासा होगा।
वहीं, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के माइक्रोबायोलॉजी विभागाध्यक्ष प्रो. रमेश चंद्र दुबे का कहना है कि हरिद्वार में कुंभ के कारण संक्रमण के फैलाव की आशंका कई गुना बढ़ गई है। वायरस सामान्य तापमान में जिंदा रहता है और संक्रमित व्यक्ति से मल्टीप्लाई होता रहता है। यदि स्नान के दौरान एक भी संक्रमित व्यक्ति ने डुबकी लगाई तो कई लोगों तक बीमारी फैलने की आशंका बढ़ जाती है। माइक्रो बायोलॉजिस्ट का दावा है कि कोविड संक्रमण पानी में न केवल कई दिन तक एक्टिव रह सकता है, बल्कि गंगा के बहाव के साथ संक्रमण भी फैला सकता है। कोविड का नया स्ट्रेन बेहद घातक है। ऐसे में कुंभ आयोजन और उसमें भी लाखों की भीड़ जुटना और गंगा में स्नान करना बेहद चिंताजनक रहा है। इससे संक्रमण के फैलने की आशंका बढ़ गई है। कुंभ ने वास्तव में कोरोना का खतरा कई गुना बढ़ा दिया है। तीन दिन के स्नान में कितना संक्रमण फैला है इसका असर आने वाले 10 से 15 दिनों में दिखने लगेगा।
महामना मालवीय गंगा नदी विकास एवं जल संसाधन प्रबंधन शोध केंद्र बनारस विश्वविद्यालय के चेयरमैन एवं नदी वैज्ञानिक प्रो. बीडी त्रिपाठी ने आम जनता से अपील की है कि वह आगामी 15 दिनों तक गंगा स्नान से दूरी बनाकर रखें। ऐसे में प्रधानमंत्री का कुंभ को औपचारिक कर देने का सुझाव उचित ही था। जल पुरुष राजेंद्र सिंह भी मानते हैं कि गंगा जल विशेष है, लेकिन वह साथ ही कहते हैं कि ये विशेषताएं अब नहीं रहीं, जो किसी जमाने में हुआ करती थीं। राजेंद्र सिंह द्वारा जल संरक्षण से लेकर सफाई अभियान तक आने वाली सारी रिपोर्ट्स का अध्ययन किया गया है। उनका कहना है कि अब गंगा में नहाएंगे तो पाप मुक्त नहीं होंगे, उल्टा पाप लगेगा। जब गंगा में अविरलता थी, तब निर्मलता थी। अब न अविरलता है, न निर्मलता है। एक जमाना था जब गंगा जल में 17 तरह के रोगाणुओं को नष्ट करने की शक्ति थी, अब गंगा जल में वो शक्ति नहीं बची है।
अपनों के साथ रहने का अवसर
कोरोना से एक अवसर भी मिला है कुछ सोचने का, कुछ समझने का और महसूस भी रहने का। जीवन की इस आपाधापी में हमसे क्या छूट गया? जो अपने थे वह क्यों रूठ गए। कुछ से अच्छे रिश्ते थे जिनमें गांठ पड़ गई। देखे गए सपनों और किये गए संघर्ष के बीच अपनों से जो दूरी बनी, उसे पाटने का अवसर हमें मिला है। क्या उसका फायदा उठा पाए हम। जीवन में जो कुछ सीखना था, कुछ बातें करनी थी, कुछ शौक पूरे करने थे, कुछ जज्बा दिखाना था। कुछ जज्बात भी थे जो तेज गति से गुजरती जिंदगी की गाड़ी से दिखाई नहीं पड़ रहे थे। किंतु अब समय मिला है कि हम ठहर कर वह सब देख सकें। वह सब समझ सकें कि हमने क्या खोया, क्या पाया? जो पाया वह क्या काफी है? जो खोया वह क्या ठीक हुआ? यदि हम ध्यान से देखें तो आज जो चीजें हमारी जिंदगी में वापस आ रही हैं, क्या वह सब नई हैं? शायद नहीं, ये तो वही चीजें हैं जो हमारे साथ बचपन से थीं। इसमें कुछ भी नया नहीं, बल्कि ये सब तो पुरानी है, इतनी पुरानी कि इसे हम भूल भी चुके थे। इसलिए आज हमें ये सब नई सी महसूस हो रही है।
जीवन की ऊंचाइयों को पाने की सोच में हम इतना व्यस्त हो गए थे कि हम यह भी भूल गए कि जीवन में पैसा और प्रसिद्धि ही सबकुछ नहीं है। सबसे जरूरी है खुश रहना। जीवन का असली उद्देश्य है खुश रहना और मुस्कुराना और मुस्कुराहट बांटना भी हमारा कर्तव्य होना चाहिए। अपने परिवार के साथ रहने, निकट आने का यह एक बेहतर अवसर है। बाहर की दुनिया को थोड़ी देर छोड़ कर अपनी घरेलू दुनिया से फिर जुड़ने का यह समय कहा जा सकता है।
यह सब नया नहीं है यह बातें जो हम सब भूल गए थे। अपने घर, परिवार और मित्रों को समय देना कोई नई बात नहीं है, बल्कि यह वह संस्कार है जिसे हम भूल चुके थे। मॉल, क्लब, पार्टी को छोड़कर अपनांे के साथ रहना, अपने आप से बातंे करना भी कोई नहीं बात नहीं, बल्कि यही जिंदगी जीने का सही तरीका कहा जा सकता है। कोरोना महामारी से पहले तक कभी समय ना मिलने की शिकायत करने वाले लोग लॉक डाउन में समय ना कट पाने का रोना रो रहे थे। इस लंबे खाली समय में स्वयं को समझने के लिए शांति व शक्तिशाली बनाए रखने के लिए अध्यात्म का सहारा भी लिया गया। सदियों से हमारी संस्कृति यही बताती है। योग और ध्यान तो 5 हजार वर्ष पुरानी हमारी सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है। कोरोना महामारी के कारण यह सारी बातंे हमें याद आ रही हैं। कोरोना के महादुःख के बाद के हालात सुधरने पर दूसरा पहलू सुखद ही होगा। भले ही दुनिया की जीवन जीने की गति थोड़ी कम हो गई हो। लोगों का घर से निकलना कम हो गया हो। सड़क पर गाड़ियां ना के बराबर चलने लगी हों। इससे हमारी प्रकृति को तो फायदा हुआ है, उसे राहत भी मिली है।
तेज भागती और भीड़ भरी जिंदगी के बीच प्रकृति का भी दम फूल गया था। आज खुला स्वच्छ आसमान, पक्षियों की चहचहाहट के बीच साफ हवा हमसे होकर जाने लगी है जिन्हें हम खो बैठे थे। नई परिस्थिति में हमारे सामने नए हालात में सामंजस्य बिठाने की बड़ी चुनौती है। इस महामारी के बाद हम सबके सामने एक नई शुरुआत करने का अवसर पैदा हुआ है। यानि एक बार फिर से सामान्य जीवन शुरू होगा तो हम सबके हिस्से की दुनिया बदल चुकी होगी। इस बदलाव में हमें अपने अंदर के उस व्यक्ति को बचाए और बनाए रखना है जिसे हम सब ने इस लॉकडाउन में अपनी अंतरात्मा से महसूस किया था। भौतिकता की भागम-भाग से ज्यादा हमको अपनी खुशी और अपनो की खुशी को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। यह सब अपनी पुश्तैनी जड़ों से जुड़ने जैसा अनुभव है। जो है, जैसा है उसमें खुश रहना ही सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। जो ध्यान योग से संभव है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)