बिछड़े सभी बारी-बारी…

सियासतः हरीश रावत कर रहे ‘एकला चलो’ की राजनीति

सल्ट उप चुनाव के बाद भी कांग्रेस के भीतर अंतर्कलह थम नहीं रही  

राम प्रताप मिश्र ‘साकेती’

बंगाल में एक कहावत है- ‘जोदि तोर दक शुने केऊ ना ऐसे तबे एकला चलो रे…’। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि आपकी बात का कोई उत्तर नहीं देता है, तब अपने ही तरीके से अकेले चलो। यह एक बंगाली देशभक्ति गीत है जिसे 1905 में राष्ट्र कवि रबीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा था। बंगाल की उक्त पंक्ति आज उत्तराखंड के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में चरितार्थ हो रही है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में से एक हरीश रावत इसी पंक्ति का अनुपालन कर रहे हैं। जिसके कारण उनके सभी पुराने साथी एक-एक कर उनका साथ छोड़ रहे हैं और हरीश रावत अपने साथियों को छोड़कर अकेले चल रहे हैं। राजनीति में यह परंपरा अच्छी नहीं मानी जा सकती।

उत्तराखंड में सल्ट उप चुनाव समाप्त हो गया है। जनता ने अपने मन का प्रत्याशी चुन लिया है, लेकिन इस उप चुनाव में कांग्रेस के भीतर भितरघात का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ है, वह कहां जाकर थमेगा कुछ कह पाना संभव नहीं है। एक बारगी डॉ. मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गज को जमीन के तारे दिखाने वाले हरीश रावत अपनी ही पार्टी में लगातार अकेले पड़ते जा रहे हैं। उनके सभी साथी धीरे-धीरे उनसे किनारा कर रहे हैं। किनारा करने के साथ-साथ ही उन पर गंभीर आरोप भी लगा रहे हैं। चाहे पूर्व पीसीसी प्रमुख किशोर उपाध्याय रहे हों या हरीश रावत के हनुमान माने जाने वाले रणजीत सिंह रावत, सबने हरीश रावत पर चाहे-अनचाहे प्रहार ही किया है। हाल-फिलहाल रणजीत सिंह रावत ने जो प्रहार किया है, वह काफी गंभीर माना जा रहा है।

रणजीत सिंह रावत मानते हैं कि हरीश रावत से बड़ा ढोंगी और अंधविश्वासी नेता कांग्रेसट में नहीं है। उनका कहना है कि 35 साल से वह हरीश रावत के सहयोगी रहे हैं, उस समय जब हरीश रावत को उनके समर्थन की जरूरत थी तब उन्होंने कंधे से कंधा मिलाकर समर्थन दिया, लेकिन अब हरीश रावत बदल गए। रणजीत सिंह रावत का दावा है कि हरीश रावत जब जनता के मुद्दों के लिए लड़ते थे तब उन्हें सहयोगियों की सख्त जरूरत थी, लेकिन आज वह पूरी तरह डरे हुए हैं। अंधविश्वास कूट-कूट कर भरा हुआ है। बकौल रणजीत सिंह रावत वह आज जनता के बीच भाजपा को उपचुनाव में वाक-ओवर देने की बात कह रहे थे लेकिन अंधविश्वासी हरीश रावत 2016 में राष्ट्रपति शासन लगने के बाद अपने गले में 13-15 मालाएं पहनने लगे थे, जो अपने आप में इस बात का प्रतीक है कि वह राजनेता कम, अंधविश्वासी ज्यादा हैं। इतना ही नहीं, रणजीत सिंह रावत का यह भी आरोप है कि सत्ता पाने के लिए हरीश रावत ने तांत्रिक क्रियाएं भी कराई और पशुओं की बलि भी दी जो अपने आप में इतने बड़े नेता के लिए ठीक नहीं है।

हरीश रावत के निकटतम सहयोगी रहे रणजीत सिंह रावत रामनगर से 2017 का चुनाव लड़े थे। मुख्यमंत्री हरीश रावत के कार्यकाल में उनकी तूती बोलती थी, लेकिन आपसी मनमुटाव के कारण चुनाव के बाद हरीश रावत और रणजीत सिंह रावत में दूरियां बढ़ने लगी। जिस समय हरीश रावत नैनीताल ऊधमसिंह नगर से लोकसभा सीट के प्रत्याशी थे, उस समय में उन्हें भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष अजय भट्ट ने करारी शिकस्त दी थी। इसका कारण राजनीतिक जानकार बताते हैं कि रणजीत सिंह रावत ने इस पूरे चुनाव में हरीश रावत से दूरी बना ली थी जिसके कारण हरीश रावत को हार का सामना करना पड़ा। ठीक यही स्थिति डॉ. इंदिरा हृदयेश की भी रही। हरीश रावत ने पहले नगर निकाय चुनाव में इंदिरा हृदयेश के पुत्र सुमित हृदयेश को महापौर नहीं बनने दिया और उनकी पराजय में अच्छी खासी भूमिका निभाई।

यही स्थिति लोकसभा चुनाव के दौरान डॉ. इंदिरा हृदयेश की रही जिन्होंने हरीश रावत को प्रकारान्तर में धूल चटाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। इतना ही नहीं, आज पीसीसी प्रमुख प्रीतम सिंह भी हरीश रावत के प्रबल पक्षधर नहीं है, भले ही हरीश रावत राष्ट्रीय नेतृत्व की पसंद हैं लेकिन उनके सहयोगियों की संख्या निरंतर घटती जा रही है। इसका कारण

हरीश रावत का अपने को सर्वश्रेष्ठ नेता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास है। वह अपने आगे किसी अन्य नेता को न तो भाव देते हैं और उसका प्रभाव बढ़ने देते हैं। कुछ पुराने सहयोगियों को छोड़ दिया जाए तो इनके अधिकांश मित्रों ने हरीश रावत से कन्नी काटने में ही भलाई समझी है।

गोरखा समाज के प्रमुख नेता नरेन्द्र कुमार क्षेत्री भी एक बार हरीश रावत के खासमखास लोगों में थे लेकिन वह भी आज काफी दूर हैं। यह श्रृंखला काफी लंबी है। लोगों का मानना है कि हरीश रावत ने पूर्व मुख्यमंत्री एवं उत्तराखंड के दिग्गज नेताओं में से एक पंडित नारायण दत्त तिवारी को जिस तरह से हर समय घेरे रखा और उन्हें चैन से नहीं बैठने दिया, उसी प्रकार अब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत को चैन से नहीं बैठने दे रहे हैं। केवल नारायण दत्त तिवारी ही नहीं, उत्तराखंड की कांग्रेस की पूर्ववर्ती सरकार ने जब आलाकमान ने हरीश रावत के स्थान पर विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बना दिया तो हरीश रावत ने उनके विरूद्ध भी मोर्चा खोल दिया और परिणाम यह हुआ कि बजट सत्र के दौरान ही भाजपा के तमाम नेताओं ने हरीश रावत को छोड़ दिया। यह बात अलग रही कि हरीश रावत उस समय अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे लेकिन उनके सहयोगी एक-एक कर बिछड़ते रहे और उन पर आरोप-प्रत्यारोप भी लगाते रहे। एक व्यक्ति के विरूद्ध इतने राजनेताओं का विरोध इस बात का संकेत है कि कहीं न कहीं हरीश रावत में भी कोई ऐसी कमी है जो उन्हें लोगों से जोड़ने की बजाय लोगों से अलग करने का काम कर रही है।

आने वाले चुनाव के लिए भी हरीश रावत जिस तरह अपना नाम आगे करना चाह रहे हैं वह इसी बात का संकेत है कि वह इस बार भी केवल अपने को ही आगे रखना चाहते हैं लेकिन राजनीति किसी एक की बपौती नहीं होती लेकिन हरीश रावत इस सच को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं जिसके कारण एक-एक कर उनके सारे सहयोगी अपना रास्ता अलग कर रहे हैं। कहीं ऐसा न हो हरीश रावत बाद में केवल अकेले ही रह जाएं।

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