अमर श्रीकांत
देहरादून।पर्यावरण को बचाने के लिए करीब चार दशक पहले उत्तराखंड के जिस इलाके से चिपको आंदोलन शुरू हुआ था, पर्यावरण के साथ निरंतर हो रहे खिलवाड़ के कारण वह इलाका आज ध्वस्त हो गया है। सात फरवरी को उत्तराखंड के चमोली जिले में नंदा देवी ग्लेशियर के भ्रंश से अलकनंदा नदी प्रलयंकारी रूप में आ गई, जिसमें अनगिनत लोगों की जानें गईं, कई गांव बह गए, कई गांव मलबे में दब गए, अनगिनत लोग जिंदा ही दब गए और बड़ी तादाद में लोग गंभीर रूप से जख्मी हुए। चमोली के मशहूर रैणी गांव में ऋषिगंगा नदी पर बना पुल लगभग दो दर्जन गांवों के बीच आवागमन का जरिया तो था ही, चीन सीमा तक पहुंचने के लिए सेना भी उसी पुल का इस्तेमाल करती थी, उस पुल को सैलाब समेट ले गया।
रैणी गांव के ऊपर पहाड़ पर बसे दो गांव मुरंडा और पेंग न जाया जा सकता है और न वहां से आया जा सकता है। कोई रास्ता ही नहीं बचा है। ऋषिगंगा हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट पूरी तरह मलबे में तब्दील हो चुका है। ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट रैणी गांव के ठीक नीचे था। ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट जैसी तमाम परियोजनाओं ने उत्तराखंड के पर्यावरण और प्राकृतिक परिवेश का नाश किया है। ऋषिगंगा प्रोजेक्ट की स्थापना की प्रक्रिया में पहाड़ों में लगातार किए गए धमाकों ने आखिरकार इस क्षेत्र को मलबों में परिवर्तित कर दिया। रैणी गांव नंदा देवी नेशनल पार्क की सीमा में आता है। इसे पर्यावरण और जैव-विविधता के मद्देनजर बेहद संवेदनशील माना जाता है। लेकिन यह सब किताबों में और सरकार के औपचारिक साहित्यों की बात रह गई है। उन्हीं सरकारों ने यहां का पर्यावरण नष्ट किया और अदालतों से लेकर नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल जैसी संस्थाएं तक नाकारा साबित हुईं। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने इस क्षेत्र में किए जाने वाले विस्फोटों पर तत्काल रोक लगाने का आदेश दे रखा है। लेकिन सरकारें अदालतों का आदेश अपनी सुविधा के हिसाब से मानती हैं और उसे व्याख्यायित करती हैं। इस क्षेत्र में कभी बारूदी धमाके नहीं रुके, नंदा देवी नेशनल पार्क के दुर्लभ जानवर मरते रहे, मलबों का अंबार जमा होता रहा, सारी गंदगी और मलबा नदी में फेंका जाता रहा, नदियों की शुद्धता बहाल करने की मांग पर साधु संन्यासी आमरण अनशन करते रहे, अपनी जान देते रहे, लेकिन सरकारें और माफिया मिल कर प्राकृतिक संसाधन नृशंसता से लूटते रहे।
सब जानते हैं कि पर्वतीय प्रदेश के संवेदनशील इलाकों में गोपनीय तरीके से जल विद्युत परियोजनाओं को मंजूरी दी जाती रही है और यह क्रम आज भी जारी है। ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट की गुप्त मंजूरी भी इसमें शामिल है। इन हरकतों से हिमालय का पारिस्थितिकीय संतुलन बिगड़ गया है। चमोली के रैणी इलाके में ऋषिगंगा से आई तबाही सरकारों के इसी असंवेदनशीलता का परिणाम है। इस असंतुलन के कारण हिमालय के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। प्राकृतिक संसाधन लूटने वालों ने 2013 की केदारनाथ की भीषण आपदा से तनिक भी सीख नहीं ली।
आश्चर्य तो इस बात का है कि नंदा देवी श्रृंखला के इस क्षेत्र में स्थानीय लोगों को सूखी लकड़ियां या चारे के लिए पत्तियां बटोरने पर भी सरकार ने पाबंदी लगा रखी है, ऐसे संवेदनशील इलाके में ऋषिगंगा प्रोजेक्ट को गुपचुप मंजूरी कैसे दे दी गई? केदारनाथ हादसे के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गठित हुई रवि चोपड़ा कमेटी ने जब अलकनंदा और भागीरथी नदी पर बनी 23 जलविद्युत परियोजनाओं को बंद करने की सिफारिश की थी, तो उस पर अमल क्यों नहीं हुआ? अगर उस अमल हुआ होता तो आज यह विनाश नहीं हुआ होता और सरकार को ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट और विष्णुगढ़ पावर प्रोजेक्ट जैसे खर्चीले प्रोजेक्ट नहीं गंवाने पड़ते। ये दोनों ही प्रोजेक्ट आज तबाह हो चुके हैं। तपोवन स्थित विष्णुगढ़ में नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन का 520 मेगावाट का पावर प्रोजेक्ट निर्माण की प्रक्रिया में था। इसे वर्ष 2022-23 तक बन कर तैयार होना था, लेकिन अब इसके निर्माण पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया है। ऋषिगंगा के पांच किलोमीटर नीचे तपोवन क्षेत्र में निर्माणाधीन एनटीपीसी परियोजना मलबे से ढंक गई और एक सुरंग में 35 से अधिक लोग गुम हो गए।
उत्तराखंड की नदियों पर जल विद्युत परियोजनाओं का जाल फैला हुआ है। टिहरी सहित 98 छोटी-बड़ी परियोजनाएं पहले से चल रही थीं। इनमें 32 परियोजनाएं उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड की और अन्य दूसरी कंपनियों की परियोजनाएं शामिल हैं। इसके अलावा सौ से अधिक परियोजनाओं पर काम चल रहा है। उत्तराखंड सरकार ने वर्ष 2005 से 2010 के बीच ही दो दर्जन से अधिक जलविद्युत परियोजनाओं को मंजूरी दी थी।
केदारनाथ हादसे से सीख लेने की ताकीद करते रह गए वैज्ञानिक
पर्यावरण वैज्ञानिक प्रो. एस. सेनगुप्ता का शोध पत्र ‘तबाही ला सकती हैं हिमालयी झीलें’, वर्ष 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद 3,550 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले 917 ग्लेशियरों का अध्ययन करने के बाद तैयार किया गया था। इसमें वहां के चढ़ते-उतरते तापमान, निगरानी व्यवस्था और बर्फ की जमावट का विषद शोध किया गया। शोध पत्र यह आगाह करता है कि यहां सैकड़ों ग्लेशियर झीलें हैं जो कभी भी बड़ी आपदा का कारण बन सकती हैं। प्रो. सेनगुप्ता ने अपने शोध पत्र में नैनीताल स्थित डोडीताल झील की गहराई व दयारा-गिडारा बुग्याल के ऊपर बनी 16 हजार फुट से ज्यादा ऊंचाई वाली झील में लाखों घनमीटर पानी भरे होने की बात कही है। वर्ष 1978 में भी इसी तरह बादल फटने से कनौडिया गाड में आए मलबे ने गंगनानी में भागीरथी का प्रवाह आठ घंटे रोक दिया था। शोधकर्ता ने झीलों से सम्बन्धित 36 महत्वपूर्ण संदर्भ-दस्तावेजों का गहन अध्ययन किया और पाया कि भारत के हिमालयी क्षेत्र में 1926 में पहली बार ग्लेशियर झील फटने से बाढ़ आई थी। जिसकी वजह से अबुदान गांव सहित आसपास का 400 किलोमीटर का इलाका बर्बाद हो गया था। संग्रह किए गए डाटा और शोध के लिए तैयार किए ग्राफ पर भी सेनगुप्ता ने काफी अध्ययन किया और पाया कि वर्ष 1981 और वर्ष 1988 में हिमाचल प्रदेश के शौन गैरांग ग्लेशियर से बनी कई झीलें अचानक खाली हो गई थीं। ग्लोबल वार्मिंग से ग्लेशियर के पिघलने की गति में वृद्धि हुई है जिससे हिमालय के ऊंचे क्षेत्रों में भी नई झीलों का निर्माण हो रहा है।
प्रो. सेनगुप्ता ने उत्तराखंड की 42 झीलों के टोपोशीट का सूक्ष्म अध्ययन और आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पाया कि इन झीलों की स्थिति काफी नाजुक है। 19 सितम्बर 1880 को नैनीताल में शेर का डांडा में हुए भूस्खलन में 151 लोग मारे गए थे और अब भी नैनीताल झील एक बड़ा खतरा है। त्रिकोणाकार सतोपंथ-ताल विशाल सतोपंथ ग्लेशियर क्षेत्र में है और यह अलकनंदा का स्रोत ताल है। तापमान और बारिश के रिकार्ड यह संकेत दे रहे हैं कि यहां कभी भी चौराबाड़ी (केदारनाथ) की पुनरावृत्ति हो सकती है। षट्कोणाकार डोडीताल उत्तरकाशी की असी गंगा का ही स्रोत है। रुद्रप्रयाग जनपद के हिमालयी तालों में मुख्य रूप से देवरियाताल और बधाणीताल हैं। इसके अलावा वर्ष 2013 में फटने वाला चौराबाड़ी ताल भी रुद्रप्रयाग जनपद में केदारनाथ के ऊपर पहाड़ियों में स्थित है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते इस क्षेत्र में ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बढ़ी है जिससे उनका पानी झीलों में जमा होकर कभी भी यहां आफत का कारण बन सकता है।
चौराबाड़ी ताल से आया था केदारनाथ का प्रलय
16-17 जून 2013 को केदारनाथ में हुआ जलप्रलय चौराबाड़ी झील यानी गांधी सरोवर की ही देन है। यहीं से जलप्रलय की शुरुआत हुई और उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के चार जिले बुरी तरह चपेट में आ गए थे। पिछले पांच दशकों में कई ग्लेशियोलॉजिस्ट्स ने चौराबाड़ी झील का अध्ययन किया और कई चैंकाने वाले तथ्य सामने आए। चौराबाड़ी ग्लेशियर काफी पीछे खिसका है। इस हिमालयी क्षेत्र में 67 फीसद ग्लेशियर हैं जो 38 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले हुए हैं। 19वीं सदी की तुलना में अब ग्लेशियर की मोटाई 50 से 80 मीटर तक कम हो गई है। रिमोट सेंसिंग डाटा के अध्ययन के अनुसार हिमालय के 467 ग्लेशियरों का आकार 1962 में 2077 वर्ग किलोमीटर था, जो अब घटकर 1628 वर्ग किलोमीटर रह गया है।
देहरादून स्थित वाडिया हिमालयन भू-विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ हिमनद विशेषज्ञ डॉ. डीपी डोभाल के अनुसार, चौराबाड़ी झील के लिए पानी का स्रोत सिर्फ बर्फबारी है। यहां तक कि इसमें चौराबाड़ी ग्लेशियर से भी पानी नहीं आता। इसलिए इस झील से आए पानी के सैलाब को लेक आउटबर्स्ट फ्लड (एलओएफ) की संज्ञा दी गई। करीब डेढ़ किलोमीटर में फैली यह झील कहीं-कहीं पर 50 मीटर तक गहरी है। वर्ष 2013 के मई माह में इस झील में बमुश्किल डेढ़ मीटर पानी था। भारी बारिश के कारण जून माह के प्रथम दो सप्ताह में ही इस झील में चार से पांच मीटर पानी भर गया था। 16-17 जून 2013 को हुई भारी बारिश में इसका जलस्तर 9 से 10 मीटर तक पिघल गया था क्योंकि तेज बारिश से चौराबाड़ी ग्लेशियर का निचला हिस्सा पिघल रहा था। इस तरह झील के बीचोबीच स्थित ग्लेशियर का एक बड़ा मृत हिस्सा भी ताल के पानी (बाढ़) के साथ बह गया। यह झील करीब 3900 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। वर्ष 1994 में वाडिया इंस्टीट्यूट ने अपनी एक रिपोर्ट के जरिए चौराबाड़ी झील से केदारनाथ को खतरे की आशंका जताई थी। वैज्ञानिकों ने माना है कि केदारनाथ में आई आपदा के लिए मूल रूप से मानवीय हस्तक्षेप जिम्मेदार है। वैज्ञानिक सुझावों की अनदेखी किए जाने के कारण केदारनाथ में भीषण आपदा आई जिसमें 10 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई और हजारों की संख्या में पर्यटक और तीर्थयात्री लापता हो गए।
प्राकृतिक संसाधनों की बेतहाशा लूट क्यों नहीं बंद हो रही?
देवभूमि उत्तराखंड में हो रहे जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर चल रही अंधी दौड़ पर सम्पूर्ण विराम लगना चाहिए। इस पर्वतीय प्रदेश की मनोरम घाटियों में विकास के नाम पर जिस तरह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन चल रहा है, उसे गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। पूरे उत्तराखंड में छोटी-बड़ी पनबिजली परियोजनाओं का जाल इस तरह फैला हुआ है कि हिमालय पर्वत की कतारें कराहती नजर आ रही हैं। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यह उम्मीद बंधी थी कि इस पर्वतीय प्रदेश का विकास प्राकृतिक संसाधनों के संतुलित इस्लेमाल से होगा, लेकिन इसका ठीक उल्टा हुआ। गंगोत्री के नजदीक तपोवन जैसे निर्जन शांत क्षेत्र में भी पनबिजली परियोजना स्थापित करने के बेजा कोशिशें की गईं, जो अक्षम्य अपराध है। इसके अलावा निजी क्षेत्र की कंपनियों को बिजली उत्पादन में इजाजत दी गई जिसने पर्वतीय क्षेत्रों में नदियों के किनारे खुदाई का मलबा डालने और निचले क्षेत्रों में जल-तबाही लाने का काम धड़ल्ले से किया। इससे पहाड़ों का पूरा संतुलन-सामंजस्य बिगड़ गया। स्थिति यह हो गई कि उत्तराखंड निजी पनबिजली परियोजनाओं का अड्डा बन गया। प्रत्येक छोटी-बड़ी बिजली परियोजना में नदी पर बांध बनता है, पहाड़ों में विस्फोट करके उसे खोखला किया जाता है और वहां सुंरग का निर्माण होता है, इससे प्राकृतिक आपदा का खतरा अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाता है। जोशीमठ में यही हुआ। सितम्बर 2012 में जब उत्तराखंड के उखीमठ में भयंकर भूस्खलन की घटना हुई थी तब उत्तराखंड आपदा प्रबन्धन केंद्र की रिपोर्ट में कहा गया था कि विस्फोट करके पहाड़ों को तोड़ने की कार्रवाई पर रोक लगनी चाहिए। लेकिन इस सिफारिश पर किसी भी सरकार ने ध्यान नहीं दिया। रिपोर्ट कहती है कि विष्णुप्रयाग, धौली गंगा, श्रीनगर, मनेरी भली, सिंगोली भटवारी और फाटा भुयंग पनबिजली परियोजनाएं जल प्रलय के खतरों का जरिया बन सकती हैं।
परियोजनाएं शुरू करने के पहले विषद अध्ययन क्यों नहीं?
विडंबना यह है कि पर्वतीय प्रदेश में छोटी या बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं शुरू करने के पहले परियोजना से क्षेत्र पर पड़ने वाले प्रभावों का विषद अध्ययन नहीं किया जाता। इस वजह से उत्तराखंड का पारिस्थितिकीय संतुलन बिगड़ गया है। लगातार भूस्खलन और भूक्षरण के कारण भीषण खतरा बढ़ता ही जा रहा है। देश के हिमालयी राज्यों में पनबिजली परियोजनाओं की भीड़ लग गई है। उत्तराखंड समेत सारे पहाड़ी राज्य ऊर्जा प्रदेश बनने पर आमादा हैं। प्रदेश में अपना कोई कल कारखाना तो है नहीं, इसलिए अधिकांश उत्पादित बिजली बाहर के राज्यों में बेच दी जाती है। हालत यह है कि एक परियोजना का काम खत्म हुआ नहीं कि दूसरी परियोजना पर काम शुरू हो जाता है। अभी बमुश्किल एक दशक पहले यह स्थिति आ गई थी कि भारी जन विरोध के कारण सरकार को 56 पनबिजली परियोजनाओं का आवंटन निरस्त कर देना पड़ा था। इन योजनाओं के कारण खेती, पशुपालन, जल-स्रोतों, घरों और मार्गों पर पड़ने वाले कुप्रभावों से पीड़ित होकर स्थानीय जनता परियोजनाओं के खिलाफ आंदोलन करने और सड़क पर उतरने को विवश हो गई थी। कई परियोजनाओं के लिए दस-पंद्रह किलोमीटर से भी अधिक लंबी सुरंगों से नदियों का पानी मोड़ा जा रहा है। इनसे एक तरफ कई किलोमीटर नदियों के क्षेत्र सूखे पड़ जाते हैं। जिन गांवों के नीचे से जलविद्युत परियोजनाओं की लंबी-लंबी सुरंगें जाती हैं, उनकी खेती, पशुपालन, जल-स्रोत और आवास सब क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। गांवों का विस्थापन तक करना पड़ता है। चमोली जिले का चाईं गांव इसका सटीक उदाहरण है। उत्तराखंड के लोग कहते हैं कि उत्तराखंड में ऐसी कोई छोटी-बड़ी नदी नहीं बची है जिस पर जलविद्युत परियोजनाएं न लगी हों।
‘पैरा ग्लेशियल जोन’ की परिधि में आते हैं उच्च-हिमालयी क्षेत्र
साल 2013 में केदारनाथ घाटी की आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्ट में उच्च-हिमालयी क्षेत्रों में इस खतरे के बारे में आगाह किया था। समिति ने कहा था कि ये क्षेत्र ‘पैरा ग्लेशियल जोन ’ की परिधि में आते हैं जिन्हें काफी खतरनाक जोन माना जाता है। इस क्षेत्र में डंप किए गए मलबे गंभीर हादसे का कारण बन सकते हैं। इसलिए समिति ने इन क्षेत्रों में बांध-परियोजनाओं को घातक बताया था और उन्हें बंद करने की सिफारिश की थी। लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया, उल्टा बांधों का काम बदस्तूर जारी रखा। गंगा नदी के साथ हो रहे ऐसे आपराधिक दुर्व्यवहार के विरोध में स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद (डॉ. जीडी एग्रवाल) ने वर्ष 2018 में आमरण अनशन किया। प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार ने उनकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया और 115 दिन के अनशन के बाद उनकी मृत्यु भी हो गई। इसके पूर्व भी वर्ष 2003 में स्वामी गोकुलानंद और वर्ष 2011 में स्वामी निगमानंद गंगा की स्वच्छता बहाल करने के सवाल पर आमरण अनशन कर अपना बलिदान दे चुके हैं। स्वामी सानंद की मृत्यु के बाद केंद्र सरकार ने निर्माणाधीन बांधों का निर्माण स्थगित करने की घोषणा भी की, लेकिन निर्माण कार्य नहीं रुका। बहरहाल, चमोली हादसे में दो-दो परियोजनाओं के ध्वस्त हो जाने के बाद एक बार फिर यह सवाल सामने उठा कि केदारनाथ हादसे के बाद से अब तक देश के अरबों रुपए क्यों इस तरह बर्बाद किए गए? घाटियों की धारण क्षमता का अध्ययन कर उसके अनुसार विकास की योजनाएं क्यों नहीं मंजूर की गईं? ये गंभीर सवाल अनुत्तरित हैं।
हिमालय से छेड़छाड़ और विद्युत परियोजनाएं खतरनाक
शोधकर्ता वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है कि हिमालयी क्षेत्रों में पर्यावरण से हो रही छेड़छाड़ आने वाले 50 साल में हिमालयी राज्यों को तहस-नहस कर सकती है। खास तौर पर बीते 20 वर्षों में प्रकृति का अवैज्ञानिक तरीकों से दोहन किया गया जिससे वन्य प्राणियों का भीषण नुकसान हुआ और 50 से ज्यादा उपयोगी वनस्पतियां या तो पूरी तरह विलुप्त हो गईं या विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गईं। उत्तराखंड के जंगल वर्ष 2000 में 84.9 फीसद थे जो वर्ष 2020 में घटकर 52.8 फीसद रह गए। जिस तरह जंगलों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है वह उत्तराखंड में प्रकृति के कुपित होने और आपदा के रूप में तब्दील होने के रूप में दिख रहा है। विडंबना ही तो है कि वर्ष 2012 में ही 1608 हेक्टेयर जंगल आधिकारिक तौर पर खनन के लिए दे दिए गए थे। इसके अलावा जल विद्युत परियोजनाओं से भागीरथी को 60 फीसद और अलकनंदा में 80 फीसद जल प्रवाह पर असर पड़ा। छोटी सहायक नदियों में तो यह आंकड़ा 90 फीसद तक पहुंच गया है। शोधकर्ताओं ने अलकनंदा और भागीरथी बेसिन में 43 पनबिजली परियोजनाओं को उन क्षेत्रों में रखा है जहां भूस्खलन की आशंका सामान्य से अधिक है।
वर्ष 2013 में उत्तराखंड केदारनाथ में आई आपदा में भी जलविद्युत प्रोजेक्ट्स को भारी नुकसान पहुंचा था। भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल ने पहले चरण में साढ़े आठ हजार करोड़ के नुकसान का अनुमान लगाया था। बाद में 30 हजार करोड़ के नुकसान की बात कही गई। विष्णुप्रयाग, श्रीनगर गढ़वाल, फाटा ब्योंग, सिंगोली भटवारी, धौलीगंगा और मनेरी भाली परियोजना को भारी नुकसान पहुंचा था।
उत्तराखंड की जलविद्युत परियोजनाए
उत्तराखंड में अभी 98 जलविद्युत परियोजनाएं कार्यरत हैं और 111 निर्माणाधीन हैं। जो परियोजनाएं काम कर रही हैं उनसे 3600 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है। 21,213 मेगावाट की 200 परियोजनाएं योजनागत हैं। वर्ष 2032 तक उत्तराखंड से 1,32,000 मेगावाट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। विडंबना यह है कि जिन परियोजनाओं पर विभिन्न अदालतों ने रोक लगा रखी है या जो मामले अदालतों में विचाराधीन हैं, उन परियोजनाओं को भी गुपचुप मंजूरी मिलती रही है। ऐसी 70 से अधिक छोटी-बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं हैं, जिन्हें गोपनीय तरीके से सरकारी मंजूरी दी जा चुकी है। उत्तराखंड जलविद्युत निगम लिमिटेड के आधिकारिक आंकड़े ही बताते हैं कि 70 से अधिक छोटी बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं, जिनमें अधिकतर परियोजनाओं पर सुप्रीम कोर्ट और नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) में सुनवाई हो रही है। कई परियोजनाएं ऐसी हैं जिनका निर्माण तेज गति से चल रहा है। ऋषिगंगा हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट और विष्णुगढ़ (विष्णुगाड) हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट भी उनमें शामिल हैं, जो पिछले दिनों हुए हादसे में ध्वस्त हो गए।
उल्लेखनीय है कि टिहरी स्टेज एक, विष्णु प्रयाग, भीलगंगा, मनेरीभाली द्वितीय, काली गंगा (प्रथम), तपोवन विष्णुगाड, सिंगोली भटवारी, बावला नंदप्रयाग, नंदप्रयाग लंगासू, देवसारी, मेलखेत, उर्गम, बनाला, ऋषिगंगा, फाटा भ्योंग, मदमहेश्वर, देवाल, बिरही गंगा, अगुंडा थाटी, झेलम तमक, स्वातीगाड, कर्मोली, अलकनंदा, लाता तपोवन, कोट बूढ़ा केदार, कोटलीमेट प्रथम व द्वितीय, पीनलगाड, असीगंगा की तीनों जलविद्युत परियोजनाओं समेत 70 छोटी बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं पर सुप्रीम कोर्ट और एनजीटी ने रोक लगा लगी रखी थी।