- लॉकडाउन के कारण ठप गतिविधियों को रफ्तार देना बड़ी चुनौती
- वर्ल्ड इकोनॉमी आउटलुक को उम्मीद, नए साल में बेहतर होगी अर्थव्यवस्था
आलोक भदौरिया
नई दिल्ली। पिछला साल कोरोना के साये में बीत गया। मार्च, अप्रैल के लॉकडाउन के कारण ठप गतिविधियां अब तक पूरी रफ्तार नहीं पकड़ सकी हैं। 2020 की दूसरी तिमाही से भले ही उम्मीदें जगी हों, लेकिन, आर्थिक दुश्वारियां अभी जल्द पीछा नहीं छोड़ने वाली हैं। सवाल है कि कारोबार और कारोबारियों के हालात किस करवट बैठेंगे? क्या डूबत कर्ज की समस्या से हम जल्द पार पा सकेंगे? जीडीपी के आंकड़ों में सुधार होना तय है, पर आम आदमियों को बेरोजगारी और घटती आय से छुटकारा कब तक मिल सकेगा?
नोवल कोरोना वायरस ने समूची दुनिया में कहर बरपा दिया था। यह सही है कि पिछले कुछ समय से आर्थिक गतिविधियां तेजी पकड़ रही हैं। पिछले साल की शुरुआत के मुकाबले लॉकडाउन धीरे-धीरे खुलने से स्थितियां काफी बेहतर नजर आ रही हैं। लेकिन, अर्थव्यवस्था पर मंडराता खतरा टला नहीं है। वायरस की प्रकृति में म्युटेशन (बदलाव) का गुण होता है। यह अमूमन अपनी संरचना में बदलाव करता रहता है। इसीलिए इस पर पूरी तरह से काबू पाने में समय लगना तय है।
फिर से कई देशों में एहतियात बरतनी शुरू
हाल में ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका में एक परिवर्तित नया कोरोना वायरस मिला है। इसके चलते एक बार फिर से कई देशों में एहतियात बरतनी शुरू कर दी गई है। कई देशों ने वहां से आने वाली उड़ानों पर अंकुश लगा दिया है। यही नहीं, इस नए वायरस के मिलने से पहले भी कई देशों ने आंशिक लॉकडाउन लगाना शुरू कर दिया था। इनमें अमेरिका, कनाडा, फ्रांस आदि प्रमुख हैं। इस बार पूरे राज्य में न होकर कुछ क्षेत्रों में ही लॉकडाउन लगाया गया है।
कारोबार पर असर पड़ना तय
जाहिर है इन सबका कारोबार पर असर पड़ना तय है। धीरे-धीरे सामान्यीकरण की ओर बढ़ते हालात फिर से बंदिशों से घिरने लगेंगे। यही चेतावनी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी हाल में जारी रिपोर्ट में जताई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2021 में कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए भले ही कई वैक्सीन बाजार में उपलब्ध हो जाएं, लेकिन सब लोगों तक इसकी पहुंच होने में वक्त लगेगा। तब तक इसकी रोकथाम और बचाव के लिए सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना ही होगा। यह स्थिति कार्यस्थल पर बड़े पैमाने पर बदलाव लाएगी।
कर्मचारियों की संख्या घटानी पड़ेगी
उत्पादन के लिए पहले जितने कर्मचारी काम करते थे, अब उतनी जगह में कर्मचारियों की संख्या घटानी पड़ेगी। इसका असर उत्पादन पर पड़ना तय है। उत्पादन कम होगा तो इसका खामियाजा कंपनियों के मुनाफे पर पड़ेगा। यह अंतत: कर्मचारियों के वेतन पर होगा। इस चक्र का दूसरा पहलू मांग में कमी के तौर पर सामने आएगा। यह सिलसिला वायरस के पूरे खात्मे तक चलता रहेगा।
एयरलाइंस, पर्यटन और हॉस्पिटैलिटी पर दिख रहा है असर
वर्ल्ड इकोनॉमी आउटलुक में अगले वित्तीय वर्ष यानी 2021-22 में दुनिया में विकास दर के पॉजिटिव दायरे में अनुमान जताया गया है। लेकिन, कुछ सेक्टर पर इसके व्यापक असर की ओर इशारा किया गया है। मुद्रा कोष की रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि मांग में कमी-उत्पादन में कमी-लागत में बढ़ोतरी-श्रम मूल्यों पर कटौती का उद्योगों और कॉरपोरेट पर दुष्प्रभाव अवश्यंभावी है। इसके कारण कई कंपनियां कर्ज चुकाने में नाकाम हो सकती है। नतीजतन, ढेरों कंपनियों के दिवालिया होने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। सबसे ज्यादा असर एयरलाइंस, पर्यटन और हॉस्पिटैलिटी पर अभी से दिख रहा है। उड़ानों पर अक्सर लगने वाले प्रतिबंध एयरलाइंस की कमर तोड़ रहे हैं। कॉरपोरेट की मीटिंग कम होने से या वीडियो मीटिंग की ओर रुख करने से होटल और ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री की हालत पहले जैसी होने की निकट भविष्य में उम्मीद नजर नहीं आ रही है।
इन स्थितियों से भारत भी जुदा नहीं
दुनिया भर में फैली इन स्थितियों से भारत भी जुदा नहीं है। देश में पहले से ही विकास दर लगातार धीमी होती जा रही थी। पिछले वित्तीय वर्ष में जीडीपी विकास दर महज 4.2 फीसद रही थी। काबिलेगौर है कि 2019-20 वित्तीय वर्ष में लॉकडाउन मार्च के आखिरी सप्ताह में लगा था। यानी कोरोना काल से पहले ही हम सुस्ती के शिकार थे। मौजूदा वित्तीय वर्ष में पहली तिमाही में 23.9 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई थी। दूसरी तिमाही में यह सुधर कर 7.5 फीसदी तक ही संकुचन का शिकार रही। तकनीकी तौर पर यह मंदी का दौर माना जाता है। क्योंकि दो लगातार तिमाहियों में संकुचन (माइनस) होने को विकास दर में मंदी कहा जाता है।
सरकार पीट रही ढोल
जुलाई-सितंबर तिमाही में मैन्युफैक्चरिंग नेगेटिव दायरे से बाहर निकल कर दशमलव छह प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई। आर्थिक गतिविधियां शुरू हो चुकी हैं। सरकार इसका ढोल पीट रही है। लेकिन, मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम ने साफ कहा है कि स्थितियां बेहतर जरूर हुई हैं। इसके बावजूद तीसरी और चौथी तिमाही के जीडीपी के आंकड़े के पॉजिटिव दायरे में आने से वह इत्तेफाक नहीं रखते हैं। केंद्रीय रिजर्व बैंक ने भी विकास दर के अनुमान में संशोधन कर इसे साढ़े सात फीसद कर दिया है। जबकि पहले यह साढ़े नौ फीसद तक रहने का अनुमान जताया गया था। अन्य रेटिंग एजेंसी क्रिसिल और एस एंड पी ने भी विकास दर में संकुचन कम होने का अनुमान लगाया है।
हाल में रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने भी अर्थव्यवस्था में सुधार को स्थायी और लगातार नहीं माना है। दास भी कदम फंूक-फंूक रख रहे हैं। मॉनिटरी पॉलिसी कमेटी की बैठक के बाद उन्होंने कहा कि जीडीपी के पिछली ऊंचाइयों तक पहुंचने में एक साल या इससे ज्यादा भी वक्त लगने से इनकार नहीं किया जा सकता है। केंद्रीय बैंक ने इस बार फिर नीतिगत दरों में कोई बदलाव नहीं किया है। इसकी मुख्य वजह महंगाई का बढ़ना है। खुदरा महंगाई दर नवंबर में 6.93 प्रतिशत रही। जबकि अकतूबर में यह 7.61 प्रतिशत थी। इसमें सुधार जरूर हुआ। लेकिन, थोक मूल्य आधारित सूचकांक अक्तूबर के 1.48 फीसद से बढ़कर नवंबर माह में 1.55 फीसद हो गया। लगातार तीसरी तिमाही महंगाई दर छह फीसद से ज्यादा रह रही है। दरअसल, यही परेशानी की वजह है। अनुमान है कि बाजार में मांग बढ़ने के साथ ही महंगाई दरों में भी वृद्धि हो सकती है। अगली छमाही में भी महंगाई दर 4.6 से 5.2 प्रतिशत के दायरे में रहने के आसार हैं। लिहाजा नीतिगत दरों में बदलाव के आसार नहीं हैं।
पोटली खोलकर खर्च बढ़ाने से ही अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट सकेगी?
असली सवाल यह है कि दो साल की सुस्ती और कोरोना का कहर क्या आसानी से दूर हो सकेगा? नए साल की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि बाजार में मांग कैसे बढ़ाई जाए और फिर इसे कैसे बरकरार रखा जाए? एक तरीका सरकार का अपनी अंटी खोलकर खर्च बढ़ाना है। यानी इंफ्रास्ट्रक्चर को गति देने के लिए उसे अपनी पोटली खोलनी पड़ेगी। बजट पोटली में पेश करने से नहीं, बल्कि पोटली खोलकर खर्च बढ़ाने से ही अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट सकेगी? क्या सरकार इस पर अमल करने जा रही है?
पिछले एक साल में तीन आत्मर्निभर पैकेज आ चुके हैं
पते की बात है कि सरकारी खर्च में बढ़ोत्तरी के बाद ही आर्थिक गतिविधियों में तेजी बरकरार रह सकती है। पिछले एक साल में तीन आत्मर्निभर पैकेज आ चुके हैं। लेकिन, जमीनी स्तर पर कोई खास असर नहीं छोड़ पाए हैं। पहला आर्थिक पैकेज 12 मई को बीस लाख करोड़ का धूमधड़ाके से घोषित किया गया। विशेषज्ञों के मुताबिक, यह महज कर्ज देने वाला पैकेज था। दूसरा पैकेज 12 अक्तूबर को 73 हजार करोड़ का कब आया, पता ही नहीं चला। मीडिया ने भी इसे कोई तवज्जो नहीं दी। तीसरा पैकेज 2.65 लाख करोड़ का 12 नवंबर को आया। इसमें उत्पादन आधारित प्रोत्साहन (पीएलआई) पर खूब जोर दिया गया।
देश भर में कोई दस हजार से ज्यादा इकाइयां हैं
यह योजना भी पहले की भांति खूब आकर्षक बताई गई। लेकिन, बारीकी से इसकी पड़ताल की जाए तो पता चलता है कि एक बड़े सेक्टर के लिए निर्धारित प्रोत्साहन की रकम काफी कम है। उदाहरण के तौर पर टेक्सटाइल को ही लें। देश भर में कोई दस हजार से ज्यादा इकाइयां हैं। लेकिन, इस मद में प्रोत्साहन राशि महज 10683 करोड़ रुपए है। आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसका प्रभाव कितना व्यापक होगा या किन लोगों तक पहुंचेगा।
अमेरिका जैसे विकसित देशों ने जीडीपी का दहाई में पैकेज दिया
अमेरिका जैसे विकसित देशों ने जीडीपी का दहाई में पैकेज दिया गया। दिसंबर में वहां एक बार फिर सात सौ अरब डॉलर का पैकेज दिया गया। लेकिन, इसके विपरीत भारत में पहले से चली आ रही सब्सिडी या योजना को भी इस पैकेज में शामिल कर इसे बड़ा रूप दिया गया। पहले पैकेज में किसान सम्मान निधि की राशि को इसमें शामिल किया गया था। तीसरे पैकेज में फर्टिलाइजर की सब्सिडी को पैकेज में शामिल कर लिया गया।
जब तक सरकार अपनी पोटली खोल कर खर्च नहीं करेगी। अर्थव्यवस्था के सूरते हाल में खास बदलाव नहीं होने वाला है। काबिलेगौर है कि 2019-20 में कॉरपोरेट को टैक्स छूट में 1.45 लाख करोड़ की छूट दी गई थी। मकसद था कि इस छूट का फायदा अंतत: कॉरपोरेट द्वारा निवेश बढ़ाने के तौर पर सामने आएगा। इसके कारण नौकरियां बढ़ेंगी। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। अब देखना यह है कि पीएलआई का फायदा बाजार में उत्पादन बढ़ाने में कितनी भूमिका निभाएगा?
यही पेंच है। कारोबारी उत्पादन तब बढ़ाएंगे जब बाजार में मांग बढ़ेगी। जब मांग ही घट गई है तो उपभेग भी कम होगा। इसकी एक वजह आय में कमी होना है। नतीजतन, क्रय शक्ति घटना है। यह चक्र है। और, इसे तोड़ने के लिए सरकार को आगे आना होगा। अभी तक घोषित सारे पैकेज सप्लाई पक्ष की समस्या से निपटने के लिए माने जा रहे हैं। लेकिन, मांग को केंद्रित कर सरकारी कदम उठाने ही पड़ेंगे।
सिर्फ वैक्सीन के भरोसे ही नहीं रहा जा सकता है। सरकार ने भले ही बिहार विधानसभा चुनाव में सबको वैक्सीन देने की बात कही हो, बाद में सरकारी अफसरों ने गफलत दूर कर दी कि ऐसा मुमकिन नहीं है और न ही जरूरी है। जाहिर है विकास को पटरी पर लौटने में वक्त लगना तय है। आर्थिक सेहत के साथ ही सरकार के सामने एक और बड़ी चुनौती लोगों की सेहत की भी है। स्वास्थ्य सेवाओं को निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़कर बात नहीं बनने वाली है। सेहत पर बढ़ते खर्च की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। ऐसे हालात में अप्रैल से नए वेज बिल के कारण लोगों के हाथों में खर्च के लिए कम पैसा आएगा। एक तरफ सारा जोर बाजार में मांग पैदा करने पर है, दूसरी तरफ लोगों के हाथों में कम पैसा आने से क्या ऐसा मुमकिन हो सकेगा? ’