- कोरोना ने बदली विदेशी कारोबारियों के आने की दशकों पुरानी रीत
- बीते पांच दशकों में पहली बार व्यवसायी नहीं पहुंचे डेहरी-आन-सोन
हजारों मीलों की उड़ान भर हिमालय की बर्फ लदी ऊंची चोटियों को पार कर तिब्बत, चीन, साइबेरिया से पहुंचा प्रवासी पक्षियों का झुंड हर साल जाड़ा शुरू होते ही तीन किलोमीटर चैड़े पाट वाले बिहार के सोन नदी के किनारे अपना बसेरा बना लेता है। इसी तरह दुनिया की छत कहे जाने वाले तिब्बत के शरणार्थी भी सोन तट के सबसे बड़े शहर डेहरी-आन-सोन में शिविर डालते हैं। प्रवासी पक्षियों और शरणार्थी विदेशियों के सोन तट पर पहुंचने और वापस लौटने का समय भी करीब-करीब एक ही है। प्रवासी पक्षी हिमालयी देशों में बर्फ जमने से भोजन की कमी के कारण अपेक्षाकृत गर्म देशों में अनुकूल जलीय क्षेत्र में अस्तित्व रक्षा के लिए प्रजनन करने आते हैं और अपनी नई संतति के साथ वापस लौटते हैं। तिब्बती शरणार्थी भी पांच दशकों से दशहरे के बाद जाड़ा शुरू होने से पहले हर साल गर्म ऊनी कपड़ों के यायावर कारोबारी के रूप में डेहरी-आन-सोन में सपरिवार दस्तक देते हैं और तीन महीनों का अस्थाई बाजार लगाकर अपने ठिकाने पर वापस लौट जाते हैं। इनके काफिले में अब इनकी तीसरी पीढ़ी शामिल हो चुकी है। लेकिन, बीते पांच दशकों में 2020 ऐसा पहला साल है, जब कोविड-19 के प्रतिबंध-प्रावधान के कारण शरणार्थी विदेशी कारोबारी डेहरी-आन-सोन नहीं आ सके।
दलाई लामा और तिब्बतियों को भारत ने दी शरण
61 साल पहले तिब्बत पर चीन के आक्रमण के बाद तिब्बत के राष्ट्र अध्यक्ष रहे 14वें दलाई लामा को उनके अनुयायी तिब्बतवासियों के साथ भारत में शरण मिली थी। दलाई लामा, उनके परिवार, उनकी निर्वासित सरकार के सदस्यों को हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में और अन्य तिब्बतियों को पूर्वोत्तर भारत, उत्तर भारत के विभिन्न जगहों में रहने की व्यवस्था की गई। तिब्बत सरकार के अपने देश से निर्वासन के 60 साल पूरे होने पर निर्वासित तिब्बत सरकार के निर्देश पर भारत सहित दुनिया के तीन दर्जन देशों में शरण ले रखे तिब्बती शरणार्थियों ने अपनापन का माहौल देने के लिए संरक्षणदाता देशों के प्रति 2019 को धन्यवाद ज्ञापन वर्ष के रूप में मनाया था और शरणदाता देशों में डेहरी-आन-सोन सहित अपने सभी कार्य-व्यापार स्थलों पर स्थानीय समाज के गरीब बच्चों को निशुल्क गर्म कपड़े बांटकर सार्वजनिक तौर पर आभार प्रकट किया था।
भोट देश का बिहार से प्राचीन रिश्ता
डेहरी-आन-सोन आने वाले तिब्बती शरणार्थियों को पता है कि सोन नद घाटी के पार पूरब के मगध क्षेत्र से इनके भोट देश का, इनके पुरखों का सदियों पुराना गहरा सांस्कृतिक रिश्ता-नाता रहा है। इन्हें पता है कि भारत इनका धर्मगुरु देश है और भारत ने ही दुनिया में इन्हें लामा धर्म की पहचान दी है। किन्नरदेवों के हिमालयी देश तिब्बत के शरणार्थी वंशजों को पता है कि नालंदा विश्वविद्यालय (बिहार) के आचार्य धर्मरक्षित की सातवीं सदी में और विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्रमुख आचार्य पद्मसंभव की 11वीं सदी में तिब्बत में लामा धर्म को मजबूती से स्थापित करने में मुख्य भूमिका रही थी। उनके पुरखे बिहार के सोन नद के इस इलाके के हम-मजहब और हम-तहजीब रहे हैं। इन्हें यह भी जानकारी है कि भारत में हजारों सालों के संचित ज्ञान के बिहार के दो महान केंद्रों नालंदा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला विश्वविद्यालय के मुस्लिम आक्रामकों द्वारा नष्ट किए जाने के बाद तिब्बत में अनुदित बौद्ध ग्रंथ ही भारतीय संस्कृति-इतिहास को पुनस्र्थापित करने के प्रकाश-स्तंभ बने।
मौसमी तिब्बती मार्केट का दशकों पुराना इतिहास
दक्षिण भारत में तिब्बतियों के पांच शरणार्थी गांव हैं, बेलाकोपा में दो और कोलगेल, होनसर, मुनगोट में एक-एक। इन गांवों में करीब 40 हजार तिब्बती शरणार्थी हैं। अधिसंख्य तिब्बती युवाओं के बड़े शहरों में नौकरी करने के कारण इन गांवों में मुख्यत: बुजुर्ग-बच्चे ही रहते हैं। इन गांवों में रहने वाले सहकारी शरणार्थी खेती, कढ़ाई-बुनाई आदि काम करते हैं। इन्हें भारत सरकार द्वारा खाद, बीज अनुदान पर और खेती के लिए कर्ज कम ब्याज दर पर मिलता है। सरकार की ओर से शरणार्थी गांवों में 12वीं तक विद्यालय, शिक्षक, पाठ्य सामग्री की निशुल्क व्यवस्था है। पिछले वर्ष 2019 कर्नाटक के कोलेगल से दूसरी, तीसरी पीढ़ी का 36 तिब्बती परिवार टीम लीडर जिन्पा (महिला) और यांगचेन तसोमो (पुरुष) के नेतृत्व में डेहरी-आन-सोन आया था और अस्थाई ल्हासा रिफ्यूजी तिब्बती मार्केट में नौ दुकानें लगाई थी। डेहरी-आन-सोन के शंकर लॉज के संचालक दयानिधि श्रीवास्तव उर्फ भरत लाल के अनुसार, पहली बार 1969 में आए शरणार्थी तिब्बती व्यापारी शंकर लॉज में ही ठहरे थे। तब हर साल शंकर लॉज में ही इनका दल ठहरता रहा है। इन कारोबारी शरणार्थियों की तस्वीर के साथ संक्षिप्त परिचय नियमानुसार, रोहतास के कलेक्टर, एसपी और ठहरने की जगह के प्रबंधक के लिए धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) के दलाई लामा कार्यालय से जारी होता था, लेकिन अब भारत में पैदा हुए तिब्बतियों का तो आधार कार्ड भी बन चुका है।
दून में सबसे पहले हुई फेरी लगाने की शुरुआत
जिन्पा और छांबा के अनुसार, लुधियाना (पंजाब) के दो दर्जन कारखानों में केवल तिब्बतियों के लिए ही गर्म कपड़ों (स्वेटर), शॉल, मफलर, चादर, कोट आदि का निर्माण होता है। लुधियाना से थोक में गर्म कपड़े खरीदने के बाद उन कपड़ों को बेचे जाने योग्य बनाने में महीना भर का समय लगता है। नवम्बर में इनकी दुकानें लग जाती हैं। माल बेचकर वे जनवरी के तीसरे हफ्ते में अपना धार्मिक नववर्ष मनाने अपने शरणार्थी गांव लौट जाते हैं। सबसे पहले देहरादून में फेरी लगाने की शुरुआत हुई थी। दलाई लामा अरुणाचल से सड़क मार्ग होकर हिमालय पर्वत स्थित मसूरी (देहरादून जिला) पहुंचे थे। फिर शरणार्थियों ने दिल्ली में फेरी लगाने की शुरुआत की। गर्म कपड़ों का पहला तिब्बती बाजार दिल्ली में लाल किला के सामने 1967 में लगा। आज भारत के दो सौ से ज्यादा शहरों में ढाई सौ से अधिक मौसमी तिब्बती बाजार सजते हैं। इन बाजारों के करीब चार हजार दुकानों में कोई तीस हजार तिब्बती शरणार्थियों को रोजगार मिलता है।
डेहरी-आन-सोन में पांच दशक पहले गली-गली फेरी लगाकर गर्म कपड़ों के बाजार की संभावना तलाशी गई थी और स्टेशन रोड में फुटपाथ पर दुकानें लगाई गई थीं। अपनी व्यापारिक विश्वसनीयता और खुशमिजाज व्यवहार की साख की बदौलत गर्म कपड़ों के तिब्बती शरणार्थी कारोबारी दूर-दराज के गांव-गांव तक जाने जाते हैं। पुराने जमाने के परदेसी खानाबदोश काबुली वाले की तरह ही स्थानीय लोगों को तिब्बतियों के रिफ्यूजी ल्हासा मार्केट के हर साल जाड़ा के मौसम में लगने और खरीदारी करने का इंतजार होता हैं। जनवरी के तीसरे सप्ताह में सोन नद तट के तिब्बती शरणार्थियों का दल अपना धार्मिक नववर्ष के मौके पर अपने शिविर गांव (कोलगेल) के लिए इस संदेश भाव के साथ कूच कर जाता रहा है कि थैंक यू इंडिया, तुमने शरण दी, दिया रोजगार, अलविदा…आभार सोन, फिर मिलेंगे अगली बार! मगर 50 सालों में पहली बार ऐसा इस साल ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि कोरोना महामारी के कारण कारोबारी विदेशी शरणार्थियों की दस्तक नहीं हुई।
-कृष्ण किसलय, पटना