वीरेंद्र सेंगर
नई दिल्ली: बिहार की चुनावी लीला संपन्न हो गई(Bihar’s election campaign is over)। गाजे-बाजे भी बजे, दिवाली के पहले ही दिवाली मना ली गई। खुशी भी है, गम भी है, उल्लास भी है और आशंकाएं भी हैं। चुनाव आयोग की मुहर लग चुकी है। मुख्यमंत्री नीतीश सातवीं बार शपथ लेने का रिकॉर्ड अपने नाम कर चुके हैं। बधाई, इस रिकॉर्ड धारी को! रवायत के चलते उन्हीं को हीरो माना जाना चाहिए, लेकिन मेरे आकलन वे हैं, वैशाखी नंदन। कृपा उनकी जिनके रण कौशल से वे सत्ता सिंहासन पर विराजे हैं। उन्हें बिहार की जनता से ज्यादा दिल्ली का शुक्रगुजार होना चाहिए। अब इनकी वफादारी में भी खरा उतरना चाहिए। राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के खेवनहार तेजस्वी यादव सही मायने में इस चुनाव के ‘हीरो’ बनकर उभरे हैं, तो वह सत्ता से रपट गए, इस बार!
अपने यहां चुनाव चाहे ग्राम प्रधानी का हो या राज प्रधानी का, रंगारंग तो जमकर होता है। तमाम कोशिशों के बावजूद चुनाव में जातियों की गिरोह बंदी तेज हो जाती है। मुद्दों के तौर पर तमाम जुमले उछाले जाएं, लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश में फिलहाल जाति एक प्रभावी कारक है, उसी के दिग्दर्शन इस बार भी हुए। जबकि राजनीतिक प्रेक्षकों का अनुमान हो चला था कि बेरोजगारी के मुद्दे पर चली बयार मुकाम तक पहुंचते-पहुंचते जीत में तब्दील हो जाएगी और जातियों की जकड़न ढीली हो जाएगी। ऐसा कहां हो पाया? फाइनल बॉल ठप्पा खाते-खाते धुव्रीकरण के गोबर में ही गिरा। अंततः गोबर से जो आने चाहिए वे ही, एकदम गुबरैला दुर्गंध से भरे।
मतगणना के पहले ‘एग्जिट पोल’ में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार तय मानी गई थी। एक लब्ध प्रतिष्ठित पोल में तो दावा कर दिया गया था, कि इस गठबंधन को 243 में से 180 सीटें तक मिल रही हैं। कई चुनाव में इस एजेंसी के परिणाम सटीक बैठे थे, लेकिन अंतिम दौर में तेजस्वी की कुर्सी दूर चली गई। 10 नवंबर को मतगणना शुरू हुई। पोस्टल मत पत्रों की गिनती शुरू हुई तो महागठबंधन को जमकर बढ़त मिली, लेकिन ‘ईवीएम’ का जब पिटारा खुला तो ग्राफ घटता-बढ़ता रहा। मतगणना बहुत धीरे हुई इसका कारण चुनाव आयोग ने ‘कोरोना प्रोटोकॉल’ बताया।
राजनीतिक प्रेक्षकां के अनुसार, असली खेल शाम 4 बजे के बाद ही उजागर होने लगा था। आशंका ‘ईवीएम’ में संभावित हेरा-फेरी को लेकर उठने लगी थी, (देखें बॉक्स) लेकिन महागठबंधन के नेताओं को कहीं ना कहीं उम्मीद थी कि अंततः सत्ता उनके हाथ लगेगी। इस पर जमकर चिल्लम पौ क्यों करें? वैसे भी इसका कोई पुख्ता सबूत तो था नहीं, लेकिन रात 9 बजे के बाद जब करीब दो दर्जन सीटों पर ‘महा खेल’ की आशंका हुई तो बवाल शुरू हुआ। चुनाव आयोग की वेबसाइट पर करीब 15 लोगों को विजेता दिखा दिया गया था। वह उल्लास मनाने में जुट गए थे, बाद में उन्हें जीत का प्रमाण पत्र देने में आनाकानी शुरू हुई, फिर कइयों को बताया गया कि वह हार गए।
बाजी इन्ही क्षणां में महागठबंधन के हाथ से निकल गई थी। करीब आधी रात को राजद प्रवक्ता के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल दिल्ली में चुनाव आयोग पहुंच गुहार लगाई। ‘ईवीएम’ में हेराफेरी और चुनाव अधिकारियों पर ‘ऊपर’ के दबाव का आरोप लगाया। वह सूची रिकॉर्ड जिसमें आयोग की वेबसाइट में उनके उम्मीदवारों की जीता हुआ दिखाया गया, बाद में हारा हुआ बताया गया। राजद प्रवक्ता प्रोफेसर मनोज झा ने चुनाव आयोग के अधिकारियों से मुलाकात के बाद मीडिया से भी बात की। तमाम आरोप लगाए। धांधली के भी आरोप लगाए कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राज्य के मुख्य सचिव के जरिए तमाम जिलाधिकारियों पर हेरफेर करने का दबाव डालते रहे। उन्होंने जन आंदोलन करने और मामले को उच्चतम न्यायालय तक ले जाने की बात भी कही।
अब आगे देखिये! यह रार कहां तक जाती है। रात में करीब 1 बजे चुनाव आयोग की मीडिया कांफ्रेंस हुई इसमें राजद प्रवक्ता के तमाम आरोपों को बेबुनियाद बताया गया। उधर, बिहार में परिणाम जारी होते रहे। अंतिम परिणाम अल सुबह करीब सवा चार घोषित कर दिया गया। चुनाव आयोग की आधिकारिक सूची में ऐलान किया गया कि मुख्यमंत्री नीतीश के नेतृत्व वाली एनडीए को 125 सीटें मिल गईं जो कि सामान्य बहुमत से अधिक है। यानी सत्ता के ‘बाजीगर’ नीतीश कुमार ही हैं। परिणाम इस तरह रहे कि भाजपा 74 जदयू 43 हम चार व वीआईपी को चार, ये सभी एनडीए के घटक हैं। जबकि महागठबंधन में राजद को 75, कांग्रेस को 19 व वामदलों को 16 सीटें मिलीं। इनका योग 110 सीटों का है। जबकि एनडीए का कुल योग 125 सीटों का है। एक सीट चिराग पासवान की पार्टी एलजेपी के हाथ भी लगी।
अब राज्य में चैथी पारी खेलने के लिए नीतीश कुमार मैदान में हैं। यद्यपि उनकी अपनी पार्टी भाजपा के मुकाबले काफी कम सीटें जीत पाई है। 10 नवंबर को रात तक कयास लगाए जा रहे थे, कि शायद मुख्यमंत्री का चेहरा भाजपा का हो। दूसरी एक वजह यह भी थी कि भाजपा के एक स्थानीय कद्दावर नेता और केंद्रीय राज्य मंत्री ने मीडिया में ऐलान किया था कि नीतीश बाबू के लिए केंद्र में कैबिनेट मंत्री बनने का विकल्प भी खाली है, इस बयान के बाद तमाम सियासी कयास बाजी शुरू हो गई थी।
यह भी चर्चा शुरू हुई कि मुख्यमंत्री की कुर्सी खींची गई तो नीतीश और तेजस्वी के बीच तालमेल हो सकता है। क्योंकि आज की सियासत में कुछ भी असंभव नहीं है। वैसे भी 2015 का चुनाव राजद और जदयू साथ लड़ भी चुके हैं। इसी बयानबाजी के बाद भाजपा नेताओं ने जोर देकर कहा के मुख्यमंत्री नीतीश ही रहेंगे। अंततः वही हुआ भी मुख्यमंत्री नीतीश ही बने।
अब राजनीतिक दलों में जोरदार कयासबाजी यह है कि नीतीश क्या पूरे पांच साल के लिए पारी खेल पाएंगे? क्योंकि इस पूरे प्रकरण में यही संदेश गया है कि नीतीश बाबू को मोदी की ‘अनुकंपा’ पर इस बार सत्ता मिली। भाजपा एनडीए नेतृत्व पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश की तरह यहां भी अपने बलबूते की सरकार बनाने का सपना पाले हैं। एक बड़े दल के नेता होने के नाते उसकी महत्वाकांक्षा अनुचित भी नहीं है। वैसे भी बिहार में भाजपा ने अब तमाम सामाजिक समीकरण मजबूती से साध लिए हैं। पिछले साल हुए लोकसभा के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी जी का करिश्मा ही चला था। इस चुनाव में भी डूबती नाव को मोदी जी की लोकप्रियता का काफी सहयोग मिला है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती।
इस चुनाव में भाजपा कम सीटों पर लड़ी लेकिन उसने 2015 के मुकाबले बहुत बेहतर प्रदर्शन किया। उसे करीब 20 सीटें ज्यादा मिलीं। इसके लिए मोदी फैक्टर ही महत्वपूर्ण माना जा रहा है। वैसे सियासी तौर पर यह हैरान करने वाली बात है कि केंद्र सरकार की उपलब्धियों से ज्यादा उसकी असफलताएं रही हैं। नोटबंदी, बेरोजगारी, महंगाई और करोनाकल में यहां के प्रवासी मजदूर परिवारों ने काफी जिल्लत झेली है। फिर भी बहुत गुस्सा नहीं फूटा। इसे एक हद तक ‘मोदी मैजिक’ ही कहा जा सकता है। हैरान करने वाली बात है कि चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री की रैलियों में भी ज्यादा जोश नहीं दिखा। जबकि संसाधनों की भरमार थी। दो दर्जन से ज्यादा हेलीकॉप्टर उड़ते रहे। दूसरी तरफ, एनडीए का चुनावी ‘चक्रव्यूह’ भेदने के लिए ‘अभिमन्यु’ की तरह तेजस्वी यादव लगे रहे। कम संसाधनों के बावजूद उनकी रैलियों में लोग जमकर जुटे और जोश में भरे भी दिखे।
31 वर्षीय तेजस्वी सुनाम धन्य लालू प्रसाद और राबड़ी देवी जी के सुपुत्र हैं। शुरुआती करियर क्रिकेट से शुरू किया। अच्छा बुरा दोनों खेले, बाद में पारिवारिक ‘धंधा’ सियासत में उतर आए। 2015 में सीधे उप मुख्यमंत्री बन गए थे। लेकिन कुछ महीने में ही चाचा मुख्यमंत्री और भतीजे उपमुख्यमंत्री के सियासी रिश्ते टूट गए। बाकी सब इतिहास है। भाजपा गठबंधन से अलग होने के बाद नीतीश बाबू ने ऐलान किया था कि जीते जी कभी भी संघियों से सियासी तालमेल नहीं करेंगे। सेक्यूलर नीतीश बाबू का यह ऐलान भी 2017 आते-आते महज जुमला साबित हुआ। भाजपा से सत्ता साझेदारी करने के बाद भी वह खांटी ‘सेक्यूलर’ बने रहने का दावा करते रहे। आज भी कर रहे हैं। तेजस्वी यादव भी एक दौर में चाचा नीतीश की खूब तारीफ करते थे। अब सिर्फ कोसते हैं। यह सब हमारे देश में आम प्रचलित सियासी दांव हैं। इससे काम नहीं चलता। इससे हर संभावना बनी रहती है। यह आशंका नहीं होती, बल्कि संभावना होती है। अब तो बेशर्मी से दोहराया जाता है कि राजनीति संभावनाओं का खेल है। दरअसल, बेशर्म नेताओं ने अपने ‘पाप’ छिपाने के लिए यह सुंदर मुहावरा गढ़ लिया है जय हो!
कांग्रेस को लेकर कई तरह के ‘तंज’
इस चुनाव परिणामों के बाद कांग्रेस को लेकर कई तरह के ‘तंज’ किए जा रहे हैं। उसके हिस्से में 70 सीटें आई थीं, लेकिन जीत हासिल हुई महज 19 सीटों पर। कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने ज्यादा सीटें नहीं छीनी होती तो संभव होता सत्ता महागठबंधन के पास ही आती। वैसे पिछली बार के मुकाबले भी कांग्रेस को कम सफलता मिली। पिछली बार उसने 27 सीटें जीत ली थी। जबकि 51 सीटों पर ही लड़ी थी। कांग्रेस नेताओं का ‘ऑफ रिकॉर्ड’ कहना है कि तेजस्वी के कोर यादव वोट कांग्रेस में पूरे नहीं आए, इससे बेहतर परिणाम की भी आ सकते थे। जबकि राजनीतिक जानकारों का मानना है कि कांग्रेस के पास 40 से ज्यादा ‘दमदार’ उम्मीदवार ही नहीं थे। वामदलों का प्रदर्शन तो ‘करिश्माई’ ही रहा। 30 से कम सीटों पर चुनाव लड़े और 16 सीटें जीत लीं। बिहार से इस बार वामदलों की चुनावी राजनीति को नया दम मिल गया है। माना जा रहा है कि इसका अगले साल होने वाले पश्चिम बंगाल के चुनाव पर भी असर पड़ेगा।
आम आकलन है कि चिराग पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी ने एनडीए का काफी नुकसान किया है। खासतौर पर नीतीश कैंप का। इस पार्टी का केवल एक ही उम्मीदवार जीत पाया है। उसे करीब 5 दशमलव 45 फीसदी वोट मिले हैं। पिछली बार इस पार्टी की मत भागीदारी लगभग इतनी ही थी, हां उसे 2 सीटें जरूर मिली थी। यह चर्चा हो रही है कि ‘चिराग’ भाजपा के इशारे पर ही नीतीश का ‘कद’ बौना करने का खेल करने आए थे। वह इसमें काफी सफल रहे। महागठबंधन का नुकसान ‘एआईएमआईएम’ के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने काफी किया। मुस्लिम बाहुल्य इलाके सीमांचल में उन्होंने मुस्लिम वोटों में जरूर सेंधमारी की। वह अपनी पार्टी को 5 सीट जीतने में कामयाब रहे। ओवैसी पर आरोप है कि वह भाजपा की ही ‘बी’ टीम है इनको दिल्ली से अरबों का फंड मिलता है। भाजपा नेतृत्व उन्हें ‘सांप्रदायिक’ कहकर कोसती है, लेकिन ओवैसी के सियासी पत्ते अब छिपे नहीं रहे। आगे आने वाले दौर में भी भाजपा की राजनीति के लिए और काम के घोड़े साबित हो सकते हैं!
ईवीएम को लेकर सवाल-दर-सवाल
‘ईवीएम’ को लेकर दशकों से विवाद जारी है। कभी-कभी यह विवाद कुछ ज्यादा ही गहरा जाता है। इस बार बिहार चुनाव से इसके खिलाफ आवाज तेज हुई है। आरोप है कि ‘दिल्ली’ की सुपर सत्ता बहुत होशियारी से अपने पक्ष में इसे ‘हैक’ कराती है। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने भी अब स्वर तेज किए हैं। यह अलग बात है कि किसी भी दल के पास ‘पुख्ता’ सबूत नहीं हैं। ईवीएम की भूमिका पर ही नहीं, चुनाव आयुक्तों की भूमिका पर लगभग पूरे प्रमुख विपक्ष को अविश्वास सा है। राजद प्रवक्ता डॉ. मनोज झा कहते हैं कि चुनाव आयोग ने अपनी गरिमा खत्म कर दी है। वह केंद्रीय सत्ता की ‘कठपुतली’ बन गया है। यह पहला मौका नहीं है कि जब चुनाव आयोग पर रीढ़विहीन होने का आरोप लगा है। कई मौकों पर चुनाव आयोग ‘डरपोक’ की भूमिका में हम सबको दिखा भी है। आम लोगों के बीच इस स्वायत्तता संवैधानिक संस्थान के साख बहुत कमजोर हुई है। मुख्य चुनाव आयुक्त से इसी परिप्रेक्ष्य में अपने गिरेबान में आत्मरक्षा अपेक्षित है।
दुनिया के तमाम विकसित मुल्कों में बेलेट पेपर से चुनाव होता है। फ्रांस जैसे देशों में ‘ईवीएम’ को नकार दिया गया है। 2009 में भाजपा के शीर्ष पुरुष रहे लालकृष्ण आडवाणी ने ‘ईवीएम’ को लेकर गहरी आशंका जाहिर की थी। उनके एक सियासी ‘कारिंदे’ ने इस पर एक किताब भी लिख मारी थी। ऐसे भी ईवीएम पर पुनर्विचार क्यों ना हो!