- असम विधानसभा चुनाव
- विकास और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घिरती सोनोवाल सरकार
- सरकार पर चुनाव वादों को पूरा नहीं करने के लग रहे आरोप
अनिरूद्ध यादव
गुवाहाटी, असम: 2021 में असम विधानसभा चुनाव होने हैं। लेकिन अभी से सभी पार्टियां चुनावी तैयारियों में जुट गई हैं। राजनीतिक दल एक-दूसरे के खिलाफ आरोप-प्रत्यारोप लगाने में व्यस्त हो गये हैं। कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति पर लोगों की वाहवाही लेने वाली सोनोवाल सरकार अपने कार्यकाल के अंतिम वर्ष में पहुंचते-पहुंचते भ्रष्टाचार से घिरी नजर आ रही है। ऐसे में अब भाजपा की राज्य इकाई उत्तर भारत में भाजपा की ओर से संचालित मुद्दों को आयातित कर अगला चुनाव लड़ना चाहती है, जो पूर्वोत्तर भारत के इतिहास में पहला प्रयोग होगा।
याद रहे कि इन दिनों राज्य में चर्चित एसआई प्रश्नपत्र लीक मामले को लेकर मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल विपक्ष के निशाने पर हैं। उन्हें भारी आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है। सरकार पर 2016 विस चुनाव में किए गए वादों को पूरा नहीं करने के आरोप भी लग रहे हैं। उल्लेखनीय है कि असम में सोनोवाल सरकार 6 जनगोष्ठियों को जनजाति का दर्जा दिलाने, बांग्लादेशियों को बाहर निकालने व एनआरसी अद्यतन का काम, बड़े नदी बांध का विरोध, बांग्लादेश के साथ भूमि अदला-बदली का विरोध जैसे वादों के बल पर सत्ता में आई थी। इसके अलावा चाय बागान के मजदूरों को 351 रु प्रति माह देने और बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराने का चुनावी वादा भी किया गया था। इन वादों को पूरा करने में राज्य सरकार विफल रही है।
माना जा रहा कि इन वादों को पूरा करने में सरकार को भारी विरोध झेलना पड़ सकता है। साथ ही, चर्चा है कि सरकार उत्तर भारत के चुनावी मुद्दे को पूर्वोत्तर मेें इस्तेमाल कर सकती है। अब इन्हीं मुद्दों के सहारे असम चुनाव 2021 फतह करने की तैयारी है। असम में 2016 में चुनावी पिच तैयार करने में अहम भूमिका निभाने वाला आरएसएस अब धार्मिक मुद्दों को शह दे रहा है। जानकारों का कहना है कि असम के सरकारी मदरसे बंद करना ऐसा ही कदम है। यहां अब लव-जेहाद, मंदिर, धार्मिक सहिष्णुता और मियां म्यूजियम की मांग चुनावी मुद्दा बनने के आसार बन रहे हैं।
सर्वानंद सोनोवाल सरकार के शुरुआती 200 दिनों में काफी तेजी के साथ काम होता दिखा था। अपने कई चुनावी वादे पूरा करने के मामले में मुख्यमंत्री सोनोवाल खरे उतरे थे। सबका साथ, सबका विकास यानी असम में जाति, माटी और भाटी (स्वाभिमान) की रक्षा करने में काफी हद तक सफल दिखे थे। इसके अलावा भ्रष्टाचार का खात्मा असम सरकार की प्राथमिकता रही। उनके कार्यकाल के पहले दो साल तक भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाये गए। असम लोक सेवा आयोग (एपीएससी) में वर्षों से चली आ रही गड़बड़ियों के पर्दाफाश के बाद एपीएससी अध्यक्ष राकेश पाल को गिरफ्तार किया गया। इसके साथ ही इस घोटाले के अन्य लोगों की भी गिरफ्तारी हुई। इससे लगा कि सरकार भ्रष्टाचार मुक्त असम बनाने के प्रति दृढ़ संकल्प है। सरकार के इस कदम का राज्य में अच्छा प्रभाव पड़ा, विशेष कर राज्य के शिक्षित बेरोजगार युवा सर्वानंद सोनोवाल के मुरीद हो गए।
विदेशी मुक्त असम के वादे का जहां तक सवाल है, इस क्षेत्र में भी कई काम किये गये। कुछ अवैध बांग्लादेशियों को बांग्लादेश वापस भेजा गया। लेकिन कार्यकाल के अंतिम वर्ष आते-आते राज्य सरकार आरोपों से घिरने लगी। चुनावी वादों में शामिल असम के 6 जातीय समुदाय (कोच, मरान, मटक, चुतिया, कोच राजवंशी, ताई आहोम व चायजन) को जनजाति का दर्जा देना स्वीकार तो कर लिया गया,लेकिन आज तक उसे पूरा नहीं किया जा सका। सच्चाई है कि इसे पूरा करने के लिए संवैधानिक बदलाव करने पड़ेंगे। और ऐसा करने से देश के अन्य हिस्सों में भी इससे मिलती-जुलती मांग तेज होगी, जो एक नई समस्या को जन्म देगी। उदाहरण के तौर पर चाय समुदाय के अंतर्गत असम में तेली, साहू, धनवार, कुर्मी जातियां अपने मूल राज्यों में ओबीसी के तहत आती हैं। अब इनको असम में एसटी (जनजाति) का दर्जा कैसे दिया जा सकता है। कोच राजवंशी समुदाय का संबंध राजघराने से है, दूसरी ओर पश्चिम बंगाल में ये जातियां ओबीसी में आती हैं, इनको कैसे असम में एसटी का दर्जा दिया जा सकता है।
दूसरी ओर है नगा समझौता जिस पर केंद्र सरकार ने 2015 में दस्तखत कर दिया, परंतु अब तक उसे सार्वजनिक नहीं किया जा रहा। इसका मुख्य कारण है कि इस समझौते के प्रारुप के तहत असम, मणिपुर और अरुणाचल के कुछ नगा बहुल इलाके को ग्रेटर नगालिम में शामिल करना है, जो इन राज्यों को मंजूर नहीं होगा। दूसरी ओर, अदालत की राय के आलोक में राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में सरकार के शुरुआती दिनों में कथित संदिग्ध नागरिकों के खिलाफ अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाया गया जिसमें सरकार को काफी हद तक सफलता मिली थी। सरकार के इस कदम से असम में स्वच्छ भारत अभियान व अतिक्रमण मुक्त असम बनाने के अभियान बल मिला, परंतु केंद्र की ओर से घोषित गुवाहाटी को स्मार्ट सिटी बनाने में सफलता नहीं मिल पाई। लगता है कि अब अगली सरकार में ही गुवाहाटी स्मार्ट सिटी बन पाएगी।
बिहार के नतीजे तय करेंगे असम चुनाव का रुख
बिहार के नतीजों का असम में होने वाले चुनाव पर असर जरूर होगा। असम, पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे खासतौर पर असम और पश्चिम बंगाल का रुख तय करेंगे। असम में कांग्रेस के महागठबंधन और भाजपा गठबंधन के बीच मुकाबला है। बताते चलें कि असम में हिंदीभाषियों की संख्या सात प्रतिशत से अधिक है, जो राज्य के डेढ़ दर्जन सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं। खासतौर पर बराक वैली में उनकी संख्या 30 प्रतिशत से अधिक है और उनमें अधिकांश भोजपुरी बोलने वाले हैं। इसलिए भाजपा सहित राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा हिंदीभाषी मतदाताओं को विशेष महत्व दे रही हैं। हाल ही में हिंदी विषय के 11 सौ अधिक से अधिक शिक्षकों की बहाली की घोषणा की गई।
बिहार की तरह असम में भी कांग्रेस लेफ्ट पार्टियों के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में जबरदस्त जीत के बाद भाजपा सिर्फ हरियाणा में किसी तरह सत्ता तक पहुंचने में सफल रही। दिल्ली चुनाव में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। पश्चिम बंगाल में हिंदी भाषियों की तादाद करीब 13 फीसद है। इनमें उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों की संख्या लगभग 8 प्रतिशत है। यह मतदाता वर्ग क्षेत्रीय दलों के बजाए राष्ट्रीय पार्टियों को वोट करते हैं। जब तक बंगाल में कांग्रेस मजबूत थी, हिन्दी भाषी कांग्रेस के साथ थे। कांग्रेस के कमजोर होने और भाजपा के पकड़ मजबूत करने से यह वोट उसके साथ जुड़ गया है। यही वजह है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हिंदीभाषी खास कर बिहारी मतदाताओं में सेंध लगाने की कोशिश कर रही हैं। इसके लिए उन्होंने पार्टी में हिंदी सेल के गठन और छठ पूजा का आयोजन जैसे कदम उठाए हैं। ऐसे में तृणमूल कांग्रेस को उम्मीद है कि वह हिन्दीभाषी मतदाताओं में सेंध लगाने में सफल रहेगी पर बिहार में भाजपा की जीत उसकी मुश्किल बढ़ा सकती है।