कब बनेगा अपराधमुक्त समाज

हाथरस कांड की जांच का काम सीबीआई ने अपने हाथ में ले लिया है। हाथरस कांड को लेकर कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों ने धरने-प्रदर्शन किये। सत्ता पक्ष ने विपक्षी दलों पर राजनीति करने के आरोप भी लगाये। सवाल ये उठता है कि मामले में विपक्ष को राजनीति करने का मौका क्यों और किसने दिया! जाहिर है ये मौका पुलिस प्रशासन की लापरवाही और ढुलमुल कार्रवाई की वजह से मिला। इसमें सत्ता से जुड़े प्रभावशाली राजनीतिक लोगों के हस्तक्षेप की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। दूसरी तरफ, राजस्थान के करोली में मंदिर की जमीन पर कब्जा करने के लिए पुजारी को जिंदा जला दिया।
हाथरस और करोली की घटनाओं में कोई समानता नहीं है। हाथरस में एक 19 वर्षीय वाल्मीकि युवती को हवस का शिकार बनाया गया। उसे इस कदर घायल कर दिया कि इलाज के दौरान उसकी मौत हो गयी। पुलिस प्रशासन ने इस मामले में जिस तरह से कार्रवाई को अंजाम दिया उससे साफ है कि प्रशासन कुछ दबाना और छुपाना चाहता है, जो गलत है। पीड़िता के शव को रात के अंधेरे में पुलिस प्रशासन ने परिवार की सहमति के बिना जबरन जला दिया। इसे अंतिम संस्कार तो किसी भी सूरत में नहीं कहा जा सकता। इससे भी प्रशासन की मंशा पर सवाल खडे़ होते हैं। राजस्थान पुलिस प्रशासन ने पुजारी के जिंदा जलाये जाने की घटना को लेकर पूरी सतर्कता बरती और मुख्य आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया और पीड़ित पुजारी परिवार को न्याय मिलता हुआ दिखा। हालांकि, इस मामले के दो आरोपी अभी फरार हैं। विपक्षी दलों खासतौर पर भाजपा नेताओं ने यहां राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश की, लेकिन प्रशासनिक सतर्कता के चलते उन्हें नाकामी हाथ लगी।
एक बार फिर स्पष्ट कर दें कि हाथरस और करोली की घटनाओं में किसी भी तरह की समानता नहीं है। लेकिन दोनों में पुलिस प्रशासन के रवैये में अंतर देखने को मिला। यह हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती है कि लोकतंत्र में कानून का शासन होता है। कानून अपराध की पहचान जाति या धर्म के नाम पर नहीं, बल्कि अपराध की प्रवृत्ति के आधार पर करता है। कहने का तात्पर्य ये है कि सरकार किसी भी पार्टी या दल की हो, शासन कानून का ही रहेगा। उक्त दोनों मामलों में देखा जाए तो हाथरस में दबंग समुदाय के युवाओं पर कमजोर वाल्मीकि समुदाय की लड़की को शारीरिक हवस का शिकार बनाने का आरोप है। साथ ही, कानूनी कार्रवाई को भी प्रभावित करने की कोशिश की गयी। वहीं, करोली की घटना में साफ तौर पर जमीन के लालच में पुजारी को जिंदा जलाया गया। दोनों मामलों में प्रशासन के रवैये के अलावा सामाजिक स्तर पर भी अंतर साफ है। करोली में बहुसंख्यक मीणा समुदाय के लोगों ने सजातीय आरोपियों के खिलाफ एकजुट होकर पीड़ित पुजारी परिवार का साथ दिया। वहीं, हाथरस में रेप पीड़िता के पक्ष में गांव का एक भी आदमी नहीं आया। यहां तक कि पीड़िता के समुदाय के लोग भी दबंगों के डर से दुबके हुए हैं। बाहर से आये सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनीतिक पार्टियों को ही पीड़ित पक्ष की आवाज बुलंद करनी पड़ी।
इसी कड़ी में तीसरी घटना है तमिलनाडु के कुडलूर की, जहां एक दलित महिला सरपंच को प्रशासनिक अधिकारियों की मौजूदगी में मीटिंग की अध्यक्षता महज इसलिए नहीं करने दी गयी कि उप सरपंच, सचिव और अन्य मेंबर सवर्ण जाति के थे। साथ ही, महिला सरपंच को जमीन पर बैठने को विवश किया गया। यहां तक कि सरकारी कार्यक्रमों में महिला सरपंच को तिरंगा नहीं फहराने दिया गया। हमारे समाज में जात-पात, ऊंच-नीच और धार्मिक भेदभाव की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसका अंदाजा इन तीनों घटनाओं में स्थानीय समाज के व्यवहार से आसानी से समझा जा सकता है। जातीय भेदभाव भारतीय समाज का कटु सत्य है। हाथरस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने पीड़िता के शव को रात के अंधेरे में जलाये जाने बारे डीएम से सवाल किया कि यदि पीड़िता किसी अमीर की बेटी होती तो क्या तब भी आप ऐसा ही करते! जाहिर है पीड़िता अमीर की बेटी होती तो डीएम ऐसा करने की हिमाकत नहीं करते। साफ है कि हाथरस और कुडलूर की घटनाएं केवल अपराध नहीं, बल्कि जुल्म की श्रेणी में आती है। इन दोनों घटनाओं में सवर्ण और दलित तथा अमीर और गरीब का भेद साफ दिखता है।
महिलाओं के प्रति अपराधों, उनमें भी रेप की घटनाओं में बढ़ोतरी किसी एक प्रदेश या किसी एक पार्टी की सरकार में नहीं कमोबेश सभी प्रदेशों में तेजी से बढ़ रही हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, देश में हर सोलहवें मिनट में एक महिला के साथ रेप की वारदात और हर 90 मिनट में एक बच्चे के प्रति अपराध दर्ज किया जाता है। रेप के मामले में उत्तर प्रदेश देश में पहले और राजस्थान दूसरे नंबर पर आते हैं। हत्याओं के मामले में भी उत्तर प्रदेश टॉप पर है। देश में अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। उनमें महिलाओं, बच्चों, दलितों, आदिवासियों तथा समाज के दबे-कुचले लोगों के प्रति अपराधों में बढ़ोतरी चिंता का सबब बनती जा रही है। सभी राजनीतिक दल महिलाओं को सुरक्षित माहौल देने तथा अपराध खत्म करने के दावे अपने चुनाव घोषणा पत्रों में करते हैं। लेकिन जिताऊ उम्मीदवार को टिकट देने की होड़ में उसके आपराधिक रिकार्ड को ताक पर रख दिया जाता है। इसी का परिणाम है कि संसद और विधानसभाओं में दागी सदस्यों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। राजनीतिक दलों की करनी और कथनी का अंतर समाज में आपराधिक प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहा है। राजनीति और अपराधियों का गठजोड़ समाज को अंतहीन अंधेरी सुरंग में धकेल रहा है। निश्चित रूप से सामाजिक जागरूकता, चरित्र निर्माण और दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना अपराधों पर लगाम लगाना संभव नहीं है।

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