किसानों में असंतोष

कृषि संबंधी नये कानून अन्नदाताओं के लिए अपेक्षाकृत कम फायदेमंद 

डी के प्रजापति

नई दिल्ली: खेती से जुड़े तीन कानूनों को संसद में पारित किये जाने के विरोध में देश के किसानों और खेतिहर मजदूरों में आक्रोश देखा जा रहा है। 250 किसान संगठनों के मंच अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति की अपील पर बीते 25 सितम्बर को पूरे देश में किसान विरोधी बिलों को रद्द करने की मांग को लेकर प्रतिरोध कार्यक्रम आयोजित किये गये। जानकारों का मानना है कि किसान, किसानी और गांव को बर्बाद करने, मंडी व्यवस्था समाप्त करने, न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की व्यवस्था को खत्म करने, व्यापारिक कंपनियों को मुनाफाखोरी और जमाखोरी की छूट देने, किसानों की जमीन कंपनियों को सौंपने के उद्देश्य से लॉकडाउन के समय में तीन किसान विरोधी अध्यादेश लाये गये। मानसून सत्र में विपक्ष के भारी विरोध के बीच तीनों को संसद की मंजूरी में मिल गयी।

आवश्यक वस्तु कानून 1925 में संशोधन, मंडी समिति एपीएमसी कानून (कृषि उपज वाणिज्य एवं व्यापार संवर्धन व सुविधा बिल और ठेका खेती (मूल्य आश्वासन पर बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता कृषि सेवा बिल, 2020 को मंजूरी के साथ ही संशोधित बिजली बिल 2020 लाकर एक तरह से कृषि क्षेत्र को कार्पोरेट के हवाले कर दिया है। विश्लेषकों का मानना है कि यह एक तरह से आजादी के बाद किए गए भूमि सुधारों को खत्म करने का रास्ता प्रशस्त करने जैसा है।

पंजाब और हरियाणा में बन्द सम्पूर्ण रहा और पश्चिम उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना, मध्यप्रदेश के कई इलाकों में बंदी रही। पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आन्ध्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, केरल, हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू, असम में बड़ी-बड़ी विरोध सभाएं हुईं। ऐसा अनुमान है कि एक लाख से ज्यादा विरोध कार्यक्रम आयोजित हुए और 2 करोड़ से ज्यादा लोगों ने इनमें भाग लिया। एआईकेएससीसी की अपील पर 28 सितम्बर 2020 को महान क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह के 114वें जन्मदिवस के अवसर पर देश भर में इन तीनों कानूनों, डीजल-पेट्रोल के दाम में वृद्धि और नया बिजली कानून 2020 का विरोध किया गया।

मोदी सरकार द्वारा लाए गये कानून विदेशी कम्पनियों और बड़े प्रतिष्ठानों को सरकारी मंडी के बाहर अपनी निजी मंडियां बनाने की अनुमति देते हैं। ये फसल की खरीद पर एकाधिकार करके उन्हें बहुत सस्ते दामों पर खरीदेंगे। इनकी मंडियों को टैक्स से भी मुक्त कर दिया है। इससे सारी सरकारी खरीद, भंडारण और राशन में अनाज की आपूर्ति समाप्त हो जाएगी। जब भी कभी फसल अच्छी हुई है, कभी बड़े प्रतिष्ठानों ने अच्छा रेट नहीं दिया है। मोदी सरकार किसानों और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है और यह दावा किया जा रहा है कि विदेशी कम्पनियां किसानों को अच्छा रेट देंगी।

जानकार बताते हैं कि मोदी सरकार मंडी बिल को ‘दाम आश्वासन’ और ठेका खेती बिल को ‘आमदनी आश्वासन’ कह रही है। वे इन्हें आत्मनिर्भर विकास और किसानों का सुरक्षा कवच बता रहे हैं। सच यह है कि ये कानून वास्तव में ‘सरकारी मंडी बाईपास’ तथा किसानों को ‘कार्पोरेट जाल में फंसाने’ के कानून हैं। ग्रामीण मंडियां निजी कारपोरेशन के कब्जे में होंगी, किसान अनुबंध खेती के जरिये उनसे बंधे होंगे और उनकी जमीनें निजी सूदखोरों के हाथों गिरवी रखी होंगी। ये कानून उदारीकरण नीति का गतिमान रूप हैं और इनके अमल से किसानों पर कर्जे बढ़ेंगे। इन कानूनों के द्वारा सरकार ने देश की खाद्यान्न सुरक्षा पर गंभीर हमला किया है। उसने सभी अनाज, दालें, तिलहन, आलू और प्याज को आवश्यक वस्तुओं के माध्यम से नियमन से मुक्त कर दिया है। इसका नया कानून असल में ‘कालाबाजारी की मुक्ति’ कानून है, जिसमें फसल खरीद पर नियंत्रण करने वाले प्रतिष्ठानों को जमाखोरी और कालाबाजारी की पूरी छूट होगी और 75 करोड़ राशन के लाभार्थियों को मजबूरन खुले बाजार से अनाज खरीदना होगा।

विशलेषकों की मानें तो अब तक किसान आत्मनिर्भर था परन्तु अब ऐसा लगता है कि उस पर कॉर्पोरेट का गुलाम बनने का खतरा मंडरा रहा है। अब तक बीज, खाद, कीटनाशक पर कार्पोरेट जगत का कब्जा था लेकिन अब कृषि उपज और किसानों की जमीन पर भी कार्पोरेट का कब्जा हो जाएगा। बिजली संशोधन बिल के माध्यम से बिजली के निजीकरण का रास्ता प्रशस्त किया जा रहा है। इसके बाद किसानों को बिजली पर मिलने वाली सब्सिडी समाप्त हो सकती है जिसके चलते किसानों को महंगी बिजली खरीदनी होगी। केंद्र सरकार ने किसानों की आमदनी दोगुनी करने की घोषणा की थी, लेकिन ऐसे कानून लागू हो जाने के बाद किसानों की आमदनी आधी रह जाएगी तथा किसानों पर कर्ज बढ़ जाना तय है। 65 प्रतिशत ग्रामीण आबादी के जीवकोपार्जन के साधन कृषि को बर्बाद करने से बेरोजगारी भी अनियंत्रित हो जाएगी।

कोरोना काल में किसानों को हुए नुकसान की भरपाई देने तथा जीडीपी में 24 प्रतिशत की कमी आने के बावजूद किसानों की मेहनत से अन्न भंडार भरा है। देश की खाद्य सुरक्षा अक्षुण्ण रखने के बावजूद किसानों की आवश्यकताएं पूरी करने की जगह किसान बिल आननफानन में पास कर दिये गये। केन्द्रीय कृषि मंत्री का कहना है कि सरकारी खरीद और एमएसपी जारी रहेगी। लेकिन सच्चाई यह है कि आज भी ये दोनों चीजें बहुत कम ही अमल की जाती हैं और इनके अमल करने के लिए बाध्य करने का कोई कानून मौजूद ही नहीं है।

अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के वर्किंग ग्रुप के किसान नेताओं ने राष्ट्रपति से मुलाकात कर किसानों की संपूर्ण कर्जा मुक्ति तथा लागत से डेढ़ गुना मूल्य की गारंटी संबंधी बिल के मसौदे सौंपे थे तथा सरकार को इन बिलों को संसद में पारित कराने के लिए प्रेरित करने का अनुरोध किया था क्योंकि किसानों की यही मुख्य आवश्यकता है।

दिल्ली में नाबार्ड के ग्रामीण और कृषि वित्त के छठे विश्व कांग्रेस में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा कि एपीएमसी की मंडियां खत्म करने के लिए सरकार राज्यों को समझा रही है। उनके बयान के उस हिस्से का हिन्दी अनुवाद…

“मैं ई-नाम पर जोर देना चाहती हूं। केंद्र सरकार इसका प्रचार कर रही है और कई राज्यों ने इसे अपने स्तर पर शुरू करने के लिए रजामंदी दे दी है। इसके साथ ही हम ये सुनिश्चित कर रहे हैं कि राज्यों को समझाया जाए कि एपीएमसी को रिजेक्ट कर दें। एक समय पर एपीएमसी ने अपना काम किया है, इस बात में कोई शक नहीं है। लेकिन आज इसमें कई परेशानियां हैं। और राज्य के स्तर पर भी ये इतना कारगर नहीं है। मैं चाहती हूं कि राज्य और हम उनसे बात कर रहे हैं, इसे खत्म करें और किसानों के लिए ई-नाम को अपनाएं।” (निर्मला सीतारमन, 12 नवंबर 2019)

केंद्र सरकार ने खेती को लेकर तीन कानून बनाए हैं। इस कानून को लेकर किसानों के बीच कई तरह के सवाल हैं। उनकी पहली आशंका यही है कि मंडी सिस्टम खत्म किया जा रहा है। प्रधानमंत्री का कहना है कि विपक्ष झूठ फैला रहा है कि मंडी सिस्टम खत्म किया जा रहा है। सच्चाई यह है कि वित्त मंत्री 10 महीने पहले कह चुकी हैं कि राज्यों को समझाया जा रहा है कि एपीएमसी मंडी सिस्टम खत्म कर दिया जाए।

14 अप्रैल 2016 को मंडियों को एक प्लेटफार्म पर लाने के लिए ई-नाम की योजना लाई गई। चार साल में 1000 मंडियां ही जुड़ पाई हैं, जबकि देश में करीब 7000 मंडियां हैं। मंडियों के खत्म करने के वित्त मंत्री के बयान के एक महीना बाद 12 दिसंबर 2019 को हुक्मदेव नारायण यादव की अध्यक्षता वाली कृषि मामलों की स्थायी समिति ने रिपोर्ट पेश किया। इस रिपोर्ट के अनुसार इस वक्त 469 किलोमीटर के दायरे में कृषि बाजार है। जबकि हर पांच किलोमीटर की परिधि में एक मंडी होनी चाहिए। इस तरह भारत में कम से कम 41 हजार संयुक्त कृषि बाजार होने चाहिए, तभी किसानों को सही मूल्य मिलेगा।

सरकार मंडियों के विकास पर कितना खर्च कर रही है, इसे समझने के लिए 2018 और 2019 के बजट में देखिए। बजट में एग्रीकल्चर मार्केटिंग के लिए राशि दी जाती है। एग्रीकल्चर मार्केटिंग में बीज खरीदने से लेकर फसल बेचने तक वो सब क्रियाएं शामिल हैं जो फसल को खेतों से उपभोक्ता तक पहुंचाती हैं। इसमें मंडियों की व्यवस्था, स्टोरेज, वेयरहाउस, ट्रांसपोर्ट आदि सब शामिल होते हैं। 2018 के बजट में एग्रीकल्चर मार्केटिंग के लिए 1050 करोड़ का प्रावधान किया गया था। संशोधित बजट में 500 करोड़ कर दिया गया। आखिर में मिले 458 करोड़ ही। एग्रीकल्चर मार्केटिंग के लिए 2019 के बजट में 600 करोड़ का प्रावधान किया गया था। संशोधित बजट में यह राशि घटाकर 331 करोड़ कर दी। 50 प्रतिशत कम हो गई।

जरूरत के हिसाब से 1050 करोड़ का बजट भी कम है, लेकिन उसमें से भी 50 प्रतिशत कम हो जाता है। किसान नेताओं का कहना है कि नए कानून के अनुसार जो प्राइवेट सेक्टर की मंडियां खुलेंगी उनमें टैक्स नहीं लगेंगे। सरकारी मंडी में तरह-तरह के टैक्स लगते हैं और उस पैसे से मंडियों का विकास होता है। यानी मंडियों के विकास का पैसा हमारा किसान भी देता है। इससे तो दो तरह की मंडियां हो जाएंगी। एक में टैक्स होगा, एक में टैक्स नहीं होगा। जाहिर है जिसमें टैक्स होगा वो मंडी खत्म हो जाएगी। इसलिए किसानों को चाहिए कि वे मंडियों को लेकर सरकार से और सवाल करें और सरकार को चाहिए कि वे किसानों के सवालों के जवाब और स्पष्टता से दे।

कुल मिलाकर ये तीनों बिल बड़े कारोबरियों के हित में हैं और खेती के क्षेत्र में उनके उतरने के लिए मददगार साबित होंगे। इस डूबती अर्थव्यवस्था में खेती ही एकमात्र ऐसा सेक्टर है जो लाभ में है। अगर यह बिल पास हो जाता है तो किसानी के पेशे से छोटे और मझोले किसानों और खेतिहर मजदूरों की विदाई तय मानिये। मगर ये लोग फिर करेंगे क्या? क्या हमारे पास इतने लोगों के वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था है? जहां वह सरकारी समर्थन मूल्य व सरकारी खरीद की सुविधा छीन रही है, प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि वह किसानों के हित में सबकुछ करेंगे।

अब ग्रामीण इलाकों में कार्पोरेट व विदेशी कम्पनियों को मंडियां खोलने की अनुमति दी जा रही है। अब तक इन पर प्रतिबंध था क्योंकि ये किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को धोखा देते थे। ये सस्ता खरीद कर महंगा बेचते हैं और जमाखोरी, कालाबाजारी कर अति मुनाफा खींचते थे। प्रधानमंत्री कहते हैं कि वह किसानों को बिचौलियों और आढ़तियों से बचा रहे हैं। यह आढ़तिये सरकार की ओर से खरीद करते हैं। इस क्रम में यह किसानों को कर्ज देते हैं और गैर कानूनी ढंग से भारी सूद वसूलते हैं। किसान सूद का विरोध कर रहे थे सरकारी खरीद का नहीं। सरकार ने सूदखोरी होने दी थी जबकि इसे रोकना चाहिए था। अब सरकार ने खुद को फसल की खरीदारी की जिम्मेदारी से पूरी तरह हटा लिया है। यह वैसा है जैसे सरकारी अस्पताल के काम न करने पर उन्हें पूरी तरह से बंद कर दिया जाये और निजी क्षेत्र के लिए चिकित्सा क्षेत्र खोल दी जाये।

कहा जा रहा है कि किसान अब अपनी फसल जिसको चाहे बेचे, जहां चाहे बेचे और जिस दाम पर चाहे बेचे। किसान अपनी फसल खेत से दूर नहीं ले जा सकता और करीब की मंडी में ही बेच सकता है। अब जब केवल कार्पोरेट खरीदार होगा और सरकार गायब होगी तो फसल के दाम औंधे मुह गिरेंगे। किसान मांग कर रहे हैं कि सरकार एमएसपी व सरकारी खरीद का कानून बनाये और हर मंडी में कार्पोरेट के समक्ष प्रतिस्पर्धा में खड़ी रहे। केवल इस स्थिति में किसानों को बेचने की आजादी मिलेगी।

कानून में ठेका खेती के प्रावधान को लेकर बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि यह कार्पोरेट द्वारा पूर्व तय दामों पर फसल खरीदने का ‘सुरक्षा कवच’ है। लेकिन यह किसानों द्वारा खुले बाजार में लाभकारी रेट पर अपनी फसल बेचने पर रोक लगाता है। इस कानून में ठेके में मध्यस्थ का प्रावधान है जो तय करेगा कि खेती में कुछ गलत काम तो नहीं हुआ या फसल क्वालिटी क्या है, जिससे नमी आदि के नाम पर तय रेट घटाये जा सकते हैं। ठेकों के अमल के लिए कोई पेनाल्टी का प्रावधान नहीं है, बल्कि पेमेंट करने में कम्पनियों को 3 दिन की छूट है। विवाद कोर्ट में नहीं जा सकते और इनका निपटारा एसडीएम द्वारा नियुक्त एक कमेटी करेगी या एसडीएम खुद करेगा। यह कानून कार्पोरेट को किसानों की जमीन एकत्र करके खेती कराने की छूट देता है। दाम गिरने या फसल के नुकसान के घाटे को किसान पर लादता है, उस पर कर्ज का बोझ बढ़ाता है और सारा मुनाफा कम्पनियों को सौंपता है। आशंका है कि इससे बाजार गेहूं, चावल, दाल, दूध, सोया आदि से पट जाएंगे और दाम बहुत गिर जाएंगे। इससे किसानों की आत्मनिर्भरता और घटेगी और वह खेती से बेदखल होंगे।

किसान भारी कर्जो में लदे हैं और प्रशासक निश्चिंत हैं। फिक्की और सीआईआई जैसे कार्पोरेट संगठन लम्बे समय से अनाज की सरकारी खरीद रोकने तथा इसके बाजार को खोलने की मांग करते रहे हैं। विश्व व्यापार संगठन राशन की दुकाने बंद करने को कहता रहा है। यह कानून अनाज, तिलहन, दलहन व सब्जियों को आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी से हटाते हैं। इससे इनकी बिक्री व दाम पर सरकारी नियंत्रण समाप्त हो जाएगा। जनता का भोजन अब आवश्यक नहीं होगा और खाद्यान्न श्रृंखला, अधिरचना तथा कृषि बाजारों पर कार्पोरेट का कब्जा होगा। 75 करोड़ राशन के लाभार्थी कारपोरेट से खाना खरीदने के लिए मजबूर होंगे, जिनके बाजार की ताकत बढ़ जाएगी। दुनिया भर में सरकारें कम्पनियों से अपने किसानों की रक्षा करती है। अनियंत्रित कार्पोरेट पर सरकारी खरीद व दाम आश्वासन नियंत्रण का एक मात्र तरीका है।

 

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